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बेचैन करती कहानियाँ

बदलते समय के परिदृश्‍य में हिंदी कथा साहित्‍य का क्षेत्र भी बदला है और आज हम सभी इस बदलाव को पूरी तरह से न सही परंतु आंशिक रूप से थोड़ा और अधिक स्‍वीकार कर चुके हैं या यूँ कहें कि हम स्‍वीकार कर रहे हैं। 

प्रश्‍न यह है कि किस स्‍वीकारोक्‍ति की बात हो रही है? तो उत्‍तर है कि भारत से इतर रचे जाने वाले साहित्‍य की।

प्रत्‍येक देश और उस देश में स्‍थित समाज का अपना कोई न कोई महत्‍व होता है। वह महत्‍व सामाजिक क्षेत्र का भी हो सकता है, आर्थिक क्षेत्र का भी और राजनैतिक क्षेत्र का भी हो सकता है और सांस्‍कृतिक क्षेत्र का भी। 

परंतु हर वह देश प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के लिये महत्‍वपूर्ण एवं सुखद अनुभूति प्रदान करनेवाला होता है, जहाँ उसके नागरिक सुखी एवं स्‍वतंत्र रूप से निवास कर सकें। वह देश एवं उसका समाज तभी अपने नागरिकों के लिये गौरव का विषय बन सकता है, जब वहाँ के नागरिकों को प्रवासी होने का तनिक आभास न हो या कोई उसके साथ सौतेला व्‍यवहार न करे। 

परंतु क्‍या वास्‍तविकता में ऐसा है? उत्‍तर मिलेगा... नहीं।

इस प्रश्‍न का उत्‍तर केवल और केवल मात्र वही दे सकता है जो अपने मुल्क की सौंधी मिट्टी की ख़ुशबू को छोड़कर प्रवासी हो गये हैं।  

आज के दौर में प्रवासी साहित्‍य के क्षेत्र में तेज़ी से उभरकर आनेवाला नाम है... तेजेन्‍द्र शर्मा का, जिन्‍होंने अपनी कहानियों में इस दर्द को बहुत ही मार्मिकता एवं कारुणिक शब्‍दों के साथ उकेरा है। जिन्‍हें पढ़ने के बाद एक बेचैनी और छटपटाहट का रेशा मन-मस्‍तिष्‍क में कौंधने लगता है। साथ ही इसका प्रभाव काफ़ी लंबे समय तक पाठक वर्ग के ज़ेहन में बना रहता है। 

इससे पहले मैंने विस्‍थापन शब्‍द को केवल पढ़ा था, किंतु उसका सही मायनों में क्‍या अर्थ होता है और विस्‍थापन किसे कहते हैं, इसकी पुष्‍टि मुझे तेजेन्‍द्र जी की कहानियों को पढ़ने के बाद हुई। 

विस्‍थापन का दंश क्‍या होता है? विस्‍थापन का दर्द कैसा होता है, इसे आप उनकी हर कहानी को पढ़कर समझ सकते हैं। 

कहानी भले ही अपने कलेवर में अन्‍य विधाओं से छोटी होती है, परंतु थोड़े में ज्‍य़ादा कहने की प्रवृति हमेशा बनी रहती है अर्थात् ‘गागर में सागर’ भरने की कला में निपुण होती हैं कहानियाँ।

प्राय: हम किसी लेखक को पढ़ते हुए पाते हैं कि उनमें कथा कहते-कहते भटकाव आ जाता है परंतु तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियों में उन्‍हें इस स्‍थिति से बचते हुए देखा जा सकता है।  

हर वो कहानी, चाहे ‘काला सागर’ हो या ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ या ‘देह की कीमत’, ‘मुझे मार डाल बेटा’ या ‘टेलीफोन की लाइन’। इन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे पाठक स्‍वयं उस स्‍थान पर खड़ा हो और वे सारी घटनाएँ स्‍वयं पाठक वर्ग के साथ घटित हो रही हों। 

भू-मंडलीकरण के इस दौर में आज मनुष्‍य भले ही कहीं भी आने-जाने एवं कहीं भी जाकर रहने के लिये स्‍वतंत्र हो, परंतु स्‍थायी रूप से कहीं जाकर रहने एवं वहाँ जाकर अपना रोज़गार शुरू करने की कल्‍पना उतनी ही भयावह है, जैसे चट्टान को काट-काटकर मूर्ति बनाने की चेष्‍टा। 

यदि आप स्‍थितियों का सही-सही मूल्‍यांकन करेंगे तो आप देखेंगे कि आज प्रवास में जाकर रहना और नागरिकता को प्राप्‍त कर लेना मात्र एक शौक़ नहीं रह गया है, यह कहीं न कहीं मनुष्‍य के भटकाव की स्‍थिति को भी दर्शाता है आप प्रश्‍न करेंगे कि कैसे? 

हाँ, इससे इन्‍कार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा का विस्‍तार हुआ है, शिक्षित वर्गों की संख्‍या में बढ़ोत्तरी हुई है और इस नाते उनमें अपनी प्रतिभा का सही मूल्‍यांकन करने की क्षमता भी बढ़ी है। परंतु क्‍या आपको नहीं लगता कि शिक्षा से भी ज्‍य़ादा महत्‍वपूर्ण भूमिका यहाँ पैसों की है। विकसित देशों की यही तो विशेषता है कि वहाँ पैसा अधिक है और पैसे के साथ-साथ नाम भी, भले ही आदमी वहाँ जाकर कूड़ा उठाता हो, या फिर स्‍वीपर का ही काम करता हो, परंतु प्रवास में जाकर रहने और रोज़गार करने में ही कितना बड़ा नेम-फ़ेम है। 

कहानी ‘देह की कीमत’ से तेजेन्‍द्र जी यही स्‍थिति स्‍पष्‍ट करते हैं कि किस तरह नव-विवाहित युवक जापान जाने की चाह में ग़ैरक़ानूनी तरीक़े को अपनाता है और ज्‍य़ादा पढ़े-लिखे न होने की वज़ह से लेबर का काम करने पर विवश हो जाता है और अंतत: काल के गाल के समा जाता है। 

इसे विस्‍थापन कर दर्द कहेंगे या कहेंगे मनुष्‍य की कभी पूरी न होनेवाली लालसा? अथवा इसे कहेंगे ’सो-कॉल्‍ड शो ऑफ़’, जिसका खोल मनुष्‍य ताउम्र ओढ़े रहना चाहता है, उदाहरण के तौर पर ‘देह की कीमत’ का अंश देखें – 

‘फरीदाबाद का वैध नागरिक, खाते-पीते घर का ‘काका’ जापान में अवैध काम करने को अभिशप्‍त था.....वहाँ तो कुली भी बन जाता था, तो कभी रेस्‍टॉरेंट में बर्तन भी माँज लेता था...हर वह काम जो हरदीप अपने देश में कभी किसी भी कीमत पर नहीं करता, जापान में सहर्ष कर लेता था...कारण? झूठी शान के अतिरिक्‍त और क्‍या हो सकता है? कि लड़का जापान में काम करता है।’ (पृष्‍ठ 28)

उपर्युक्‍त गद्यांश से यह स्‍वत: ज्ञात हो जाता है कि मनुष्‍य में दिखावा करने की चाह किस हद तक हावी रहती है, जिसके लिये वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। इस दिखावे और इंपोर्टेड चीज़ों की चाह हरदीप को कहाँ पहुँचा देती है, इसकी कल्‍पना भी उसने कभी नहीं की होगी। 

सवाल यह है कि हरदीप की ये हालत हुई क्‍यों? क्‍या उसकी आकांक्षा को रोका नहीं जा सकता था? बिल्‍कुल रोका जा सकता था, पर रोकेगा कौन? ज़ाहिर सी बात है कि घर के बुज़ुर्ग। लेकिन जब घर के बड़े बुज़ुर्गों में ही विदेशी वस्‍तुओं के प्रति तीव्र लालसा हो तो यक़ीनन बच्‍चों में लालच का बीज अंकुरित होगा ही।

भारत के दिवंगत पूर्व राष्‍ट्रपति डॉक्‍टर ए. पी. जे. अब्‍दुल क़लाम ने बहुत ही मूल्‍यवान शब्‍द कहे थे, ‘बच्‍चों के भविष्‍य का निर्माण तीन ही लोग बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं.. माता, पिता और प्राइमरी टीचर्स।‘ इन तीनों के ऊपर ही दारोमदार रहता है बच्‍चों की परवरिश और भविष्‍य निर्माण का। 

ठीक इसी प्रकार विस्‍थापन की स्‍थिति में जी रहे लोगों की मन:स्‍थिति जायज़ा ले सकते हैं। इसका उदाहरण हमें उनकी कहानी, ‘मुझे मार डाल बेटा’ में मिलता है, जहाँ बाऊजी (चार्टर्ड अकाउटेंट) अपनी संपूर्ण मातृभूमि के दर्शन कर लेना चाहते हैं, परंतु विस्‍थापन का डंक उन्‍हें इसकी इजाज़त नहीं देता। 

‘शरणार्थी! अपने ही देश में शरणार्थी!, पीड़ा...विस्‍थापन की पीड़ा! अपनी मर्ज़ी से विदेश में जाकर बसने जाना एक अलग बात है, परंतु तलवार के ज़ोर पर अपने ही देश में विस्‍थापित हो जाना?’  (पृष्‍ठ-52)

इसके साथ ही उन्‍हें अपने वतन की याद किस क़दर सताती है, इसका अनुमान उनकी इन्‍हीं पंक्‍तियों से लगाया जा सकता है – 

‘करदा है मन मत्‍थे लांवां, मुड़ वतन दी खाक़ नूं
करके सजदे सिर झुकावां, उस ज़मीने पाक नूं (पृष्‍ठ-53)’

एक तिलमिलाहट, एक छटपटाहट और कुछ न कर पाने की बेबसी तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियों में अद्यतन देखने को मिलती है और यही उनकी कहानियों को अन्‍य कहानियों से अलग करती है। इनकी कहानियों को पढ़ने के बाद पाठक के मन पर जो असर पड़ता है, उसे परिभाषित करने के लिये एक ही शब्‍द-पद है.... "बेचैन करती कहानियाँ"

प्रवास में रहने जाने का जो अनुभव है, वह कितना सुखद है और उससे कहीं अधिक वहाँ रहने का जो दुखद अनुभव है, उसे समझने के लिये ये कहानियाँ एक सच्‍चे मार्गदर्शक की भूमिका निभाने में समर्थ हैं। 

लोग भले ही विदेश में जाकर रहने का दंभ भरते हैं, परंतु उन्‍हें यह नहीं पता कि उनकी अपनी पहचान उन्‍हें केवल अपनी ही सरज़मीं से मिल सकती है न कि प्रवासी रूप में रह रहे विदेश की मिट्टी से।

प्रवासी शब्‍द अपने आपमें भिन्‍नता को, विस्‍थापन को दर्शाता है। प्र+वासी...प्र अर्थात...अन्‍य, दूसरा, भिन्‍न, और ‘वासी’ याने दूसरे देश में जाकर निवास करनेवाला, बसर करनेवाला। 

जो अपने आप में परिपूर्ण न हो, जो अपने आपसे ही भिन्‍नता को दर्शाता हो, वह कैसे किसी के लिये संपूर्णता का परिचायक हो सकता है? सभी साधनों एवं सुविधाओं से लैस होने के बावजूद एक अलगाव, एक अजनबीपन की स्‍थिति सदैव बनी रहती है प्रवासियों के जीवन में। 

तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियों की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि वे कहानी को कब किस मोड़ पर पहुँचा देंगे, इसका कयास लगाना भी पाठक वर्ग के लिये दूर की कौड़ी मालूम होती है। प्रत्‍येक कहानी का एक टर्निंग पॉइंट हैरान कर देनेवाला एक वाक़या प्रतीत होता है। प्रत्‍येक कहानी का अंत पाठकों को आश्‍चर्यचकित कर देने के साथ-साथ, उसकी अपेक्षा से अलग उठकर जा खड़ा होता है। पाठक वर्ग की अपेक्षाओं से बिल्‍कुल अलग नतीजे घोषित करती हैं सभी कहानियाँ। 

उदाहरण के लिये उनकी कहानी ‘क़ब्र का मुनाफा’ देख लीजिये जिसमें मनुष्‍य पर झूठी शान हावी होती हुई दिखाई गई है। मरने के बाद भी मनुष्‍य नेम-फ़ेम कमाना चाहता है और अपनी आन-बान-शान में कोई कमी नहीं आने देना चाहता। आय से भी अधिक पैसा कमाने, जिसे मुनाफ़ा कहते हैं, की चाह में इसके पात्र अंतत: एक ऐसा रोज़गार ढूँढ़ निकालते हैं, जो मनुष्‍य के सोच के बाहर की चीज़ है। अर्थात क़ब्र के लिये तय की हुई ज़मीन को समय के साथ दोगुनी क़ीमत पर बेचना...और उससे डबल मुनाफ़ा कमाना।

इंसानी दिमाग़ में उपजने वाला एक अनैतिक रोज़गार, जहाँ दया, करुणा, स्‍नेह, ममता एवं संवेदना के लिये कोई स्‍थान नहीं। संवेदनहीन होकर ही यह बिजनेस किया जा सकता है, संवेदनशील होकर नहीं।  

“अरे भाभी, आपको ख़लील भाई ने बताया नहीं कि उनकी स्कीम की ख़ास बात क्या है? उनका कहना है कि अगर आप किसी एक्सीडेन्ट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग से जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और ख़ूबसूरत दिखाई दे। अब आप ही सोचिये ऐसी कौन सी ख़ातून है जो मरने के बाद ख़ूबसूरत और जवान न दिखना चाहेगी?” अंतिम पृष्‍ठ पर निम्‍नलिखित पंक्‍तियां देखें.....

“और अब इन्फ़लेशन की वजह से उन कब्रों की कीमत हो गई है ग्यारह सौ पाउण्ड यानि कि आपको हुआ है कुल चार सौ पाउण्ड का फ़ायदा।”
ख़लील ने कहा, “क्या चार सौ पाउण्ड का फ़ायदा, बस साल भर में! ” उसने नज़म की तरफ़ देखा। नज़म की आँखों में भी वही चमक थी।
नया धन्धा मिल गया था!

इस कहानी का अंत चौंकानेवाली प्रवृत्‍ति लिये हमारे सामने प्रकट होता है। 

‘टेलीफोन लाइन’ जिसका अंत पाठकों की सोच से परे होता है, जब सोफिया अवतार सिंह से कहती है, ‘तुम मेरे दोस्त हो... तुम तो मुझ से प्यार भी करते थे... तुम आजकल हो भी अकेले... भला तुम... तुम ख़ुद ही मेरी बेटी से शादी क्यों नहीं कर लेते? तुम्हारा घर भी बस जाएगा और मेरी बेटी की ज़िंदगी भी सैटल हो जाएगी... तुम सुन रहे हो...।’

ये जो अंतिम पंक्‍ति है, मेरी बेटी की ज़िंदगी भी सैटल हो जाएगी।’ एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती है कि सैटलमेंट? आख़िर किस सैटलमेंट की बात हो रही है? तो विदेश में रहकर वहाँ की नागरिकता प्राप्‍त करने का सैटलमेंट? वहाँ के अधिकारों को प्राप्‍त करने का सैटलमेंट? या वहाँ स्‍थायी रूप से बस जाने का सैटलमेंट?

इस प्रवासी होने के मोह में इंसानियत किस क़दर मर जाती है एवं इंसान किस प्रकार विवेकशून्‍य हो जाता है, इसका एक यथार्थ और जागरूक उदाहरण है यह कहानी। सैटलमेंट के चक्‍कर में सोफिया अपनी बेटी की ज़िंदगी की बागडोर एक ऐसे बूढ़े आदमी के हाथों में सौंप देना चाहती है, जिससे कभी वह ख़ुद प्‍यार करती थी, सिर्फ़ इसलिये कि वह बंदा (अवतार सिंह) लंदन का स्‍थायी नागरिक है और वहाँ की स्‍थायी नागरिकता प्राप्‍त कर चुका है। 

इस सैटलमेंट की महत्‍वाकांक्षी प्रवृत्‍ति के कारण वह इतनी अंधी हो चुकी है कि उसे अपनी बेटी और अवतार सिंह के बीच की उम्र का फ़ासला भी नज़र नहीं आया। न उसे अनमेल विवाह का ख़याल आया और न ही अपनी बेटी की ख़ुशी का और न ही बेटी को मिलनेवाले शारीरिक सुख का, जो युवा व्‍यक्‍तित्‍व में होता है। इन तमाम बातों एवं यथार्थ से बेफ़िक्र सोफिया को केवल मात्र सैटलमेंट ही दिखाई दिया...आश्‍चर्य है...!!

क्‍या आज मनुष्‍य की इच्‍छाओं ने इतना छद्म रूप धारण कर लिया है कि उसने अपनी सारी नैतिकताओं को ताक़ पर रखकर केवल एक अंधी दौड़ के पीछे भागते रहने को ही अपना परम कर्तव्‍य मान लिया है? नैतिकता! अच्‍छा शब्‍द है किसी को उसका कर्तव्‍यबोध एवं इंसानी फ़ितरत को याद दिलाने के लिये। इसी शब्‍द से जुड़ी उनकी एक कहानी है, ’काला सागर,’जहाँ सारी नैतिकताओं को तार-तार करते हुए दिखाया हैं तेजेन्‍द्र जी ने। यह कहानी न केवल मनुष्‍य की संवेदनहीनता को दर्शाती है, बल्‍कि मनुष्‍य किस तरह स्‍वार्थी, निर्दयी, क्रूर और लालची हो सकते हैं, इसका भी ख़ुलासा करती है। 

मनुष्‍य का एक अन्‍य रूप उस गिद्ध के समान भी होता है जो लाशों की चिंदी-चिंदी हुई बोटियों को भी नोंच-नोंचकर खा जाने के लिये तैयार रहता है। एक ओर मनुष्‍य की संवेदना उनके साथ इस बात के लिये रहती है कि जिन्‍होंने अपनों को खोया, उनका दुख कितना ग़हरा होगा, तो वहीं दूसरी ओर उनके मरणोपरांत उनकी चीज़ों के प्रति लोभ और मोह मनुष्‍य के खोखले और दिखावटी आँसू का भंडाफोड़ करती नज़र आती है। इसका परिचय इन्‍हीं पंक्‍तियों से हो जाता है:-  

‘मिस्टर महाजन!’
‘जी।’ उन्होंने आँखें मूँदे ही पूछा।
‘आपसे एक सलाह चाहिए।’
‘कहिए।’ नेत्र खुले।
‘जिस काम के लिए आए थे, वो तो हो गया। जरा बताएँगे, यदि शापिंग वगैरह करनी हो तो कहाँ सस्ती रहेगी? नए हैं न... “(पृष्‍ठ..46)

किस क़दर संवेदनहीनता चरम सीमा को पार कर जाती है। इंसानियत किस क़दर लालच का चोला ओढ़ सकती है, इस कहानी से बेहतर कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता। 

कुछ यात्री ग़म ग़लत करने के लिए पेग-पर-पेग चढ़ा रहे थे।

‘यार, पी ले आज, जी भरके। हमें कौन-से पैसे देने हैं। यह काम अच्छा किया है एअरलाइन ने।’
विमल महाजन थोड़ा और आगे बढ़े,
‘क्यों ब्रदर, आपने कौन-सा वीसीआर लिया?’
‘मुझे तो एनवी450 मिल गया।’
‘बड़ी अच्छी किस्मत है आपकी। मैंने तो कई जगह ढूँढ़ा। आखिर में जो भी मिला, ले लिया। हमें कौन-सा बेचना है!’
‘आपने सोनी ढूँढ़ ही लिया। कितने इंच का लिया?’
‘27 इंच का। और आपने?’
‘हमारे भाग्य में कहाँ जी! जेवीसी का लिया है। पर देखने में अच्छा लगता है। फिर च्वाइस कहाँ थी!’

लोभ मनुष्‍य के भीतर छिपा बैठा सबसे बड़ा दैत्‍य है है जो एक दिन उसीको निगल जाता है। तृष्‍णा एवं भोग करने की पराकाष्‍ठा मनुष्‍य का सबसे बड़ा शत्रु है जो उसके चरित्र और उसके व्‍यक्‍तित्‍व, दोनों का पतन करने के प्रमुख औज़ार हैं। 

इसी संदर्भ में घटित होनेवाली ऐसी कई घटनाएँ स्‍वत: ही हमारे सामने उपस्‍थित हो जाती हैं जो हमें अपने दैनिक जीवन में कहीं न कहीं सुनने को मिल जाती हैं। 

तेजेन्‍द्र जी की ये कहानियाँ महज़ कहानी नहीं हैं, बल्‍कि आज के यथार्थ जीवन में घटित होने वाली वे सारी घटनाएँ हैं जो किसी न किसी रूप में प्रत्‍येक मनुष्‍य के साथ जुड़ी हुई दिखाई देती हैं और हर मनुष्‍य को वह अपनी ही कहानी प्रतीत होती है। 

पाठक वर्ग का साधारणीकरण व आत्‍मसातीकरण होते हुए पाया जाना एक सफल रचना की विशेषता है। साथ ही मानव-मन की परतों को उकेरकर उसका सामान्‍यीकरण कर देना यह एक रचनाकार की विशेषता है और तेजेन्‍द्र शर्मा इसमें खरे उतरते हैं। 

उन्‍होंने अपनी कहानियों में ऐसे ज्‍वलंत एवं महत्‍वपूर्ण मुद्दों का समावेश किया है जिससे आज की युवा पीढ़ी सबसे अधिक जूझ रही है और वह है....बेरोज़गारी। 

इन कहानियों में तेजेन्‍द्र शर्मा की भाषा एकदम सरल, सहज, स्‍पष्‍ट और प्रवाहपूर्ण है, जिसमें पंजाबी में उल्‍लिखित छोटे छोटे वाक्‍य कहानी के प्रभाव को और उत्‍सुकतापूर्ण बनाते नज़र आते हैं। भाषा में चुटीलापन भाषा को और अधिक ग्राह्य बनाने में कारगर सिद्ध हुआ है। 

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