अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

भूमंडलीकरण की पड़ताल करती कहानियाँ (संदर्भः तेजेन्द्र शर्मा)

विश्व में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया बहुत पहले शुरू हो चुकी थी, जिसके तीन चरण देखे जा सकते हैं लेकिन यहाँ विशेषतः अन्तिम चरण अर्थात् 1990 के बाद के भूमंडलीकरण एवं इसकी स्थिति को समझने की आवश्यकता है। यह एक ऐसी वैश्विक परिघटना है जो वैश्विक परिदृश्य पर आधारित है। समस्त विश्व की अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण भूमंडलीकरण का आधारभूत तत्व है, जिसमें माल, सेवा, वित्त, सूचनाएँ संस्कृतियाँ सभी कुछ परस्पर देशों में अबाधित रूप से प्रवाहित होती हैं। इसके अंतर्गत आर्थिक गतिविधियाँ स्वतंत्र बाज़ार के नियमों से संचालित होती हैं और बाज़ार का महत्त्व बढ़ने लगता है। परिणाम स्वरूप कॉरपोरेट जगत के अधिकार क्षेत्रों का विस्तार होने लगता है।

दरअसल वैश्वीकरण का आधार ही बाज़ार और उपभोक्तावाद है जो विश्व की स्थानीय एवं सांस्कृतिक भिन्नता को एक रंग में रँगना चाहती है। यदि कहें तो भूमंडलीकरण एक ऐसी आँधी है जिसने तमाम विश्व की अस्मिताओं के समक्ष उनके अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। इस आँधी को शक्ति और गति प्रदान की है टैक्नोलॉजी और सूचना क्रांति ने। आज सूचना क्रांति के विस् फ़ोट से कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। बाज़ार इसी टैक्नोलॉजी के पंखों पर सवार होकर राष्ट्र-समाजों की राजनैतिक व्यवस्था, संस्कृति, अर्थनीति सब के मायने बदल रहा है। जीवन मूल्यों के स्थान पर उन्मुक्तता पैर पसार रही है। मानव के बाह्य सौन्दर्य बोध की ललक ने उसके आन्तरिक रस को सोख लिया है और वहाँ बाज़ार ने लोभ-लाभ की प्रवृति पैदा कर दी है। पूरी दुनिया के मानव यंत्रवत निरन्तर भौतिकता की दौड़ में दौड़ते ही जा रहे हैं। इस प्रकार वैश्वीकरण केवल एक आर्थिक व्यवस्था ही नहीं वरन् इसके वैयक्तिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पहलू भी हैं।

इस दृष्टि से यह विचारणीय है कि कोई रचनाकार समाज निरपेक्ष होकर रचनाधर्मिता का निर्वाह नहीं कर सकता। इस आधार पर तेजेन्द्र शर्मा का कथा साहित्य वैश्विक परिदृश्य को ही परिलक्षित करता है।

1990 के बाद वैश्वीकरण बहुत तीव्रगति से विश्व में अपने पैर जमा रहा था, इंग्लैंड जैसे विकसित देशों में तो यह अपने पूर्ण वैभव पर था। इस व्यवस्था ने तमाम देशों के दरवाज़े न केवल व्यापार हेतु खोले, वरन् उसके साथ-साथ बहुत कुछ और भी आने लगा, जिसने राष्ट्र-समाजों की अपनी पहचान को धूमिल कर दिया और वैश्विक बाज़ारवाद की भूल-भुलैया में हम खोने लगे। लेखक की रचना-भूमि भारत एवं इंग्लैंड दोनों रही हैं। इनकी अधिकांश कहानियों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बाज़ारवादी उपभोक्तावाद का प्रभाव परिलक्षित है।

इस दृष्टि से इनकी ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’, ‘देह की क़ीमत’, ‘काला सागर’, ‘टेलीफ़ोन लाइन’ एवं ‘बेतरतीब ज़िंदगी’, कहानियों को विशेष रूप से रेखांकित किया जा सकता है।

बाज़ार और उपभोक्तावाद वैश्वीकरण के ऐसे मज़बूत पहिये हैं जिनके बल पर यह व्यवस्था विश्वव्यापी बनी। बाज़ार केन्द्रित होने के कारण ही इसमें आर्थिक बाज़ारवादी संस्कृति का विकास हुआ तथा आर्थिक आयाम जुड़ने से ही भावात्मक पक्ष के स्थान पर तार्किक पक्ष मज़बूत हुआ जिसके परिणाम स्वरूप इस संस्कृति में उपभोगवादिता, भौतिकता और भोगविलास अपने चरम पर पहुँच चुका है। ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ कहानी बाज़ारवाद के नग्न यथार्थ को हमारे समक्ष उपस्थित करती है जहाँ उपभोक्तावाद, व्यक्तिवाद के साथ-साथ वैश्वीकरण के तमाम हथकण्डे मौजूद हैं। इंग्लैंड में रहने वाले दो मुस्लिम परिवार एवं दोनों दोस्तों के व्यवसाय और मुनाफ़ों के माध्यम से तेजेन्द्र वैश्वीकरण की एक बानगी प्रस्तुत करते हैं जो पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं के माध्यम से अपने पूरे लाव-लाश्वकर (मूल्यहीनता, वैयक्तिकता, संवेदनशून्यता, लोभ, लाभ, आदि) के साथ पूरी दुनिया में अपने पैर पसार चुकी है, फिर भला संवेदनशील रचनाकार उस प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता है? अधिक लाभ कमाने की चाह के कारण ही ख़लील और नज़म दोनों नौकरी से विमुख होकर अपना व्यवसाय करना चाहते हैं ताकि शीघ्रातिशीघ्र वे दुनिया के कुबेर वर्ग में शामिल हो सकें। इसके साथ ही  भूमंडलीकरण अपने साथ इस वैभव के प्रदर्शन की माँग भी करता है कि वे औरों से बेहतर स्थिति में हैं।

दरअसल ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ के केन्द्र में वैश्वीकरण का विचार तत्व ही प्रमुख है। अधिकांश राष्ट्रों में भूमंडलीकरण को रोकने के लिए कोई आर्थिक नीति नहीं तय की गई, वरन् परिवर्तन के नाम पर सत्ता परिवर्तन होता रहा नतीजतन प्रबंधन और प्रोद्योगिकी के दम पर समाज को चलाने और निजी पूँजी को केन्द्र में रखने वाले कॉरपोरेशन को मॉडल बनाने का तर्क मज़बूत होता रहा। (भारत का भूमंडलीकरण, अभय कुमार दुबे) इसी संदर्भ में ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ में नौकरी के स्थान पर अपना व्यवसाय अर्थात निजी पूँजी की अवधारणा केन्द्र में है। "अब और नहीं की जाएगी ये चाकरी" से ऊब कर ‘पूँजी की पॉवर’ अपने हाथ में रखना चाहते हैं। "उसने अपनी मेहनत और अक्ल से इस कंपनी को यूरोप की अग्रणी फ़ाइनेंशियल कंपनी की कतार में ला खड़ा किया है।" कॉरपोरेट जगत केवल अर्थ व्यवस्थाओं, समाजों, राष्ट्रों को ही परिवर्तित नहीं कर रहा वरन् व्यक्ति के आन्तरिक-बाह्य दोनों पक्षों को बहुत तेज़ी से प्रभावित भी कर रहा है। जहाँ व्यक्ति की आकांक्षाएँ कभी ख़त्म नहीं होती चाहे वे कितने भी वैभवशाली क्यों न हो जायें।

भूमंडलीकरण ने व्यक्ति की उत्तेजनाओं को, उसकी लालसा को बढ़ाया है, जिससे व्यक्ति की आत्मिक-आनंद की स्थायी अनुभूति लगभग ख़त्म हो चुकी है। सब कुछ होने पर भी कुछ न होने की अनुभूति वैश्वीकरण की एक बड़़ी देन है, मानव एक यांत्रिक जीवन जीने को अभिशप्त है इस व्यवस्था में। उसे जीते जी फ़ुर्सत नहीं अर्थोपार्जन से, तभी तो मरणोपरांत भी अपने वैभव का प्रदर्शन क़ायम रखना चाहता है। ख़लील का कथन ‘अब ज़िंदगी भर तो काम, काम और काम से फ़ुर्सत नहीं मिली, कम से कम मर कर तो चैन की ज़िंदगी जिएँगे’। यह कैसा जीवन है जहाँ बाज़ारवादी संस्कृति ने इंसान को एक ‘Rat Race’ में शामिल कर दिया। दिन रात धन, धन और केवल धनोपार्जन, पूरी कहानी के केन्द्र में भौतिक सुखों की इसी भूख और उसकी तात्कालिक संतुष्टि एवं लालसा को देखा जा सकता है। बाज़ारवाद ने एक और विचार को जन्म दिया है, ‘यूनीक विचार धारा’। सबसे अलग रहो, सबसे अलग दिखो, अलग खाओ-पिओ, सबसे अलग पहनो, अलग तरह से जिओ यही ‘यूनीकपन’ मरने के बाद भी हर क़ीमत पर बना रहना चाहिए। ख़लील कब्रिस्तान का वर्णन ऐसे करता है जैसे वह क़ब्रिस्तान न हो वरन् कोई रहने का घर हो, जहाँ पूरे आस-पास के वातावरण उसकी लोकेशन का वर्णन होता है- “देखिए उस क़ब्रिस्तान की लोकेशन, उसका लुक और माहौल एकदम यूनीक है।" ये ‘यूनीकपन’ की सोच दरअसल बाज़ारवाद की सोची समझी साज़िश है अन्यथा सब एक से होगे रहेंगे, जिएँगे-मरेंगे तो बाज़ार का अस्तित्व कैसे क़ायम रह सकेगा? एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न लगे-दिखे, इसी में तो बाज़ार का मुनाफ़ा है। कहानीकार इस सोच की तह में जाकर वैश्वीकरण की सूक्ष्म पड़ताल करता है। तेजेन्द्र सूक्ष्म संवेदनाओं के कथाकार हैं इसीलिए उनकी कहानियों में कोई भी विचार अथवा विचारधारा बाहर से पकड़ में नहीं आती वरन पाठक कहानी के रेशे-रेशे में उसकी अनुभूति ही कर सकता है। कहानीकार कहीं भी भूमंडलीकरण या बाज़ारवाद को एक आवश्यक बुराई या ‘नारे’ की तरह नहीं देखता वरन् संवेदना की परत-दर परत खोलते हुए ही इसकी पहचान की जा सकती है। इस रूप में वैश्विक व्यवस्थाओं में वैश्वीकरण अपने पूरे प्रभामंडल के साथ उपस्थित है। 

अर्थव्यवस्थाओं की अभूतपूर्व प्रगति, विज्ञापन के मायावी जगत से प्रोत्साहित उपभोक्तावाद, व्यापार-प्रबंधन की नित नई युक्तियों ने हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक-सांस्कृतिक परिवेश को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया है। ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ में क़ब्रों की ख़रीद-फ़रोख़्त का बिजनेस भी हो सकता है।

यहाँ परम्परागत आर्थिक-व्यावसायिक ढाँचा चरमराकर ढह गया है और नए तरह के व्यावसायिक दबाव और परिवेश केवल बाज़ार को ध्यान में रखकर तैयार किये जा रहे हैं। नज़म का कथन इन्हीं विचारों की पुष्टि करता है- ‘आपने कार्पेंडर्स पार्क वालों की नई स्कीम के बारे में सुना है क्या? वो ख़ाली दस पाउंड महीने की प्रीमियम पर आपको शान से दफ़नाने की पूरी ज़िम्मेदारी अपने पर ले रहे हैं। उनका जो नया पैंफ़लैट निकला है, उसमें पूरी डिटेल्स दे रखी है। लाश को नहलाना, नये कपड़े पहनाना, कफ़न का इंतज़ाम, रॉल्स-रॉयस में लाश की सवारी और क़ब्र पर संगमरमर का प्लाक-ये सब बीमे में शामिल है।"

इस संदर्भ में अभय कुमार दुबे का वक्तव्य सटीक प्रतीत होता है कि विज्ञापन और कामनाओं का सौंदर्यमूलक संसार रचकर चेतना के ऊपर हावी हो जाता है और बाज़ार के ज़रिये हर चीज़ की क़ीमत तय करके उसे मुनाफ़ों का स्रोत बना देता है। इस तरीक़े से संस्कृति और अर्थतंत्र के बीच भूमंडलीकरण एक अभंग जाल की तरह काम करता है।" (भारत का भूमंडलीकरण) 

वस्तुतः वैश्वीकरण एवं बाज़ारवाद को उड़ने के लिए पंख विज्ञापन ने ही दिये हैं। विज्ञापन का मायावी जगत उपभोक्तावादी संस्कृति और बाज़ारवाद को बढ़ावा देता है। बाज़ारवादी व्यवस्था मेंं विज्ञापन के ज़रिये उपभोक्ता के मानस को अनुकूलित और प्रभावित किया जाता है और उत्पाद विशेष के लिए उसमें इच्छा और ललक पैदा कर उसमें वास्तविक आवश्यकता न होने पर भी उस प्रोडक्ट को ख़रीदने के लिए उपभोक्ता को प्रेरित किया जाता है। तेजेन्द्र बाज़ार द्वारा पोषित विज्ञापन की इस मायावी दुनिया को बख़ूबी समझते हैं तभी तो ‘Buy one get two or more’ की तर्ज़ पर क़ब्रिस्तान के साथ लाश का मेकअप फ़्री हो रहा है। पूरा पैकेज है। यहाँ जीवन ही नहीं, मृत्यु भी एक बेहतर व्यवसाय सिद्ध हो सकती है, यही बाज़ार का लक्ष्य है। इतना ही नहीं बाज़ार और उसका विज्ञापन तंत्र आपकी लालसा को चरम तक पहुँचा देता है जहाँ सेल धमाकों के विज्ञापन ने दुनिया-भर को भरमा रखा है दरअसल ये सब बाज़ार की विपणन नीति के निर्धारक तत्व हैं। उपभोक्तावाद को प्रश्रय देती यह विज्ञापन संस्कृति इतने गहरे रूप में लोगों के मनोभूगोल को बदलती जा रही है कि इससे कोई बच नहीं सकता, तभी तो क़ब्रिस्तान की स्कीम उपभोक्ता वर्ग को और लालायित करती है- ‘ख़लील भाई, उनकी एक बात बहुत पसंद आई, उनका कहना है कि अगर किसी एक्सीडेंट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग से जल मरें तो ये लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और ख़ूबसूरत दिखाई दे। नादिरा भाभी और आबिदा को यही आइडिया बेचते हैं कि जब वो मरेंगी तो दुल्हन की तरह सजाई जाएँगी’।

बाज़ार का प्रमुख आधार सपने और व्यक्ति की लालसाओं को बेचना है यही कारण है कि उनके उत्पाद आज विशेषतः सौन्दर्य-प्रसाधन स्त्री की लालसाओं को जागृत करने का कार्य करते हैं। सौंदर्य साधनों का भरा पूरे वैश्विक उद्योग जगत है जहाँ मीडिया और विज्ञापन के माध्यम से यह पूरे विश्व में मुनाफ़ा कमाने में चरम पर है। ‘बॉडी केयर’ का यह व्यवसाय अपना आकर्षण कभी नहीं खो सकता क्योंकि किसी भी समय मनुष्य सुंदर ही दिखना चाहेगा और यदि स्त्री है तो निश्चित रूप से सुंदर और जवान दिखना चाहेगी। पूरे सौंदर्य व्यापार पर मंदी के दौर में भी उसकी सेहत और चमक पर खरोंच नहीं आई। कहानीकार बाज़ार और विज्ञापन के बढ़ते कदमों को मृत्यु के पश्चात भी देखता है लेखक संकेत करता है कि यह कारोबार यूँ ही फलता-फूलता रहेगा। ‘कस्टमर’ जीवित हो अथवा लाश हो उससे क्या फ़र्क पड़ता है, बाज़ार का मुनाफ़ा होना चाहिए। किसी भी क़ीमत पर ‘तो क्या हम एक पागल बाज़ार की ओर बढ़ रहे हैं जो कभी नहीं सोता है’, (भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास-पुष्पपाल सिंह) भले ही हम सो जाएँ, लेकिन बाज़ार का मुनाफ़ों और अधिक मुनाफ़ों का व्यापार निरंतर चलता रहता है। एक बार महाजन का हृदय पसीज सकता है, वह दया कर सकता है, लेकिन बाज़ार के पास दया नहीं। यह विचारणीय है कि भूमण्डलीकरण में संचार क्रांति और विज्ञापन के नित नए चरण बाज़ार के कारक बनते हैं। सौन्दर्य प्रसाधन और फ़ैशन बाज़ार मिलकर बाज़ारीकरण का एक अभूतपूर्व परिदृश्य निर्मित करते हैं कि मनुष्य आवश्यक, आरामदायक और ऐश्वर्य का विवेक खोकर सब कुछ को, छल-छद्म के रूप में व्यक्ति की दिनचर्या में और यहाँ तक कि मृत्यु-चर्या का भी अंग बनाता जा रहा है। तेजेन्द्र बाज़ार की इस जादुई आकषर्ण शक्ति को बख़ूबी समझते हैं। कोई सफल रचनाकार स्थिति को केवल वर्तमान तक ही नहीं देखता वरन् वह उसका भविष्य दृष्टा भी होता है। क्या है? से क्या हो सकता है? की यात्रा कथाकार निरंतर करता है, यहाँ भी आज बाज़ार जहाँ अपने उत्पादों को बेचने के लिए विभिन्न कंपनियों द्वारा विज्ञापनों के नाम पर औरतों के शरीर को उपभोक्ता सामग्री बनाकर बेचने की होड़ लगाता है, वहीं वह बदसूरत और मृत औरतों के शरीर को भी सुंदर और जवान बनाने का दावा कर उनकी मृत-देह को भी उपभोग की वस्तु में तब्दील कर देता है। इंग्लैंड भोगवादी संस्कृति का केन्द्र है अतः इसे भोगवादी सदी कहना अधिक समीचीन होगा। तेजेन्द्र प्रस्तुत कहानी के माध्यम से इसी बाज़ार जनित उपभोक्तावाद को कहानी के केन्द्र में रखते हैं। ‘बाज़ार की यह व्यवस्था, बाज़ार का मनुष्य को कीलने की यह माया प्रपंच ही भूमंडलीकरण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विशुद्ध रूप से व्यावसायिक कंपनियाँ हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य, अंतिम लक्ष्य लाभ-मुनाफ़ा अर्जित करना है।’ (भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास-पुष्पपाल सिंह) इस भौतिकवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हमारी आवश्यकताएँ और प्राथमिकताएँ पूरी तरह बदल गई हैं। नज़म और ख़लील का क़ब्र बुक कराना भी इसी प्राथमिकता का हिस्सा है।

वैश्वीकरण की उपभोक्तावादी संस्कृति में स्त्री भी एक भोग की वस्तु है, उसका वस्तुकरण हो गया है। जिस प्रकार स्टेटस के लिए भौतिक वस्तुओं कार, बंगला आदि ज़रूरी है ठीक उसी प्रकार इंग्लैंड जैसे देश में भी स्त्री स्टेटस का पर्याय है। नज़म का कथन कि ‘नेसेसरी ईविल हैं ये हमारे लिए और फिर इस देश में तो स्टेटस के लिए भी इनकी ज़रूरत पड़ती है... इस मामले में जापान बढ़िया है। हर आदमी अपनी बीवी और बच्चे को शहर के बाहर रखता है सबर्ब में और शहर वाले फ़्लैट में अपनी वर्किंग पार्टनर। सोचकर कितना अच्छा लगता है।’ स्त्री भी एक उपभोग की वस्तु है भले ही जापान जैसे विकसित देश की हो अथवा इंग्लैंड की। वह मात्र देह है। 

‘भूमंडलीकरण के पैरोकारों ने नागरिक को उपभोक्ता में बदलने की संस्थागत वैधानिक युक्तियाँ करनी शुरू कर दी हैं।’ (भारत का भूमंडलीकरण-अभय कुमार दुबे) फिर ये नागरिक यदि स्त्रियाँ हैं तो निश्चित रूप से इन्हें उपभोग की वस्तु बना दिया जाएगा। स्त्रियों के शोषण के संदर्भ में भूमंडलीकरण की भूमिका पर अभय कुमार दुबे की दृष्टि का उल्लेख किया जा सकता है ‘भूमंडलीकरण ने औरत की देह उसके श्रम, उसकी छवि, उसके सौन्दर्य और कमनीयता का अतीत के किसी भी काल के मुक़ाबले सर्वाधिक दोहन किया।’ निश्चित रूप से यह दोहन दुनिया में लगभग सभी देशों में हो रहा है चाहे, जापान हो अथवा इंग्लैंड या फिर अमेरिका या भारत। स्त्री की स्थिति में कहीं कोई ख़ास बदलाव नहीं। भूमंडलीकरण में बाज़ारवाद की जकड़बन्दी अपने पूर्ण चरम पर है जहाँ कपड़े, जूते, सौन्दर्य प्रसाधन अथवा घरेलू वस्तुओं आदि की सेल के विज्ञापन तरह-तरह से घरों में घुसते हैं और उपभोक्ता का ‘ब्रेन वॉश’ करके उसे मन भावन प्रलोभनों के जाल में फँसाते हैं- एक ख़रीदो, दो पाओ, तीन पाओं के चित्ताकर्षक विज्ञापन बाज़ारवादी सिद्धान्तों का ही प्रतिरूप है। इसी तर्ज़ पर क्या मृत्यु के साजो-सामान की सेल नहीं हो सकती? तेजेन्द्र बाज़ार और उसके नीति निर्धारक आधारभूत तत्व विज्ञापनों की वास्तविकता से परिचित हैं तभी तो नज़म का कथन बाज़ारतंत्र और उसकी विज्ञापन शक्ति के विषय में संकेत करता है ’सुनो उनकी कोई स्कीम नहीं है जैसे बॉय वन गेट वन फ़्री, बॉय टू गेट वन फ़्री? ऐसा हो तो हम अपने-अपने बेटों को भी स्कीम में शामिल कर सकते हैं।" निश्चित रूप से कहानीकार बाज़ार और उसकी संवेदनहीनता को वर्तमान भूमंडलीकरण के इसी परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की आवश्यकता पर बल देता है। बाज़ार ने मशीनी सभ्यता को प्रश्रय दिया है जहाँ संवेदना का स्थान उपभोग और मुनाफ़ों ने ले लिया है तभी तो यह उपभोक्ता वर्ग स्वयं, अपनी पत्नियों के साथ-साथ अपने इकलौते पुत्रों की मृत्यु और क़ब्रों के विषय में ही नहीं सोचता वरन् उसकी दृष्टि उस मुनाफ़ों पर है, जिसका लालच विज्ञापनी बाज़ारवादी संस्कृति उसे दे रही है, एक पिता और उसकी कोमल भावनाएँ वहाँ कहीं हैं ही नहीं, वैश्वीकरण की आँधी के समक्ष यदि शेष है तो केवल लोभ-लाभ की संस्कृति।

वैश्वीकरण ने पूरे विश्व की अर्थ-व्यवस्थाओं को ‘कंट्रोल’ किया हुआ है। दरअसल अमेरीकीकरण ही वैश्वीकरण का दूसरा रूप कहा जा सकता है। जिस प्रकार विश्व के समस्त मुक्त बाज़ारों पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति का कब्ज़ा है ठीक उसी के अनरूप तेजेन्द्र ख़लील के माध्यम से इस ओर संकेत करते हैं। ‘वह समझ गई कि ख़लील को बीमारी है- कंट्रोल करने की बीमारी। वह हर चीज़, हर स्थिति, हर व्यक्ति को कंट्रोल कर लेना चाहता है, कंट्रोल फ़्रीक’। वस्तुतः वैश्वीकरण का मूल आधार आर्थिक गतिविधियों का स्वतंत्र बाज़ार में नियमों से संचालित होना है अर्थात वैश्वीकरण के मज़बूत होने के साथ कॉरपोरेट जगत राष्ट्रों की संप्रभुता को कंट्रोल करने लगता है। इसी कंट्रोल शक्ति का परिचय तेजेन्द्र ख़लील के माध्यम से देते हैं।

वास्तव में वैश्वीकरण के परिणाम स्वरूप सामाजिक जीवन एवं मूल्य-संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। भौतिकवाद के इस दौर ने व्यक्ति की बाह्य चाल-ढाल की नहीं बदली, वरन उसका आचरण और व्यवहार अधिक परिवर्तित-लौकिक हुए हैं। आर्थिक आयाम के साथ जुड़ने से भौतिकता और भोग विलास के तत्वों की प्रधानता सर्वोपरि मानी जाती है इसी के कारण बाज़ार ने एक नई संस्कृति ‘प्रदर्शन संस्कृति’ को जन्म दिया है ‘उसे इस बात का गर्व है कि उसने अपने परिवार को ज़माने भर की सुविधाएँ मुहैय्या करवाई हैं। नादिरा के लिए बी.एम.डब्ल्यू कार है तो बेटे इरफ़ान के लिए टोयोटा स्पोर्ट्स है। हैंपस्टेड जैसे पॉश इलाक़े में महलनुमा घर हैं। इसी प्रकार ‘कम से कम मरने के बाद अपने स्टेटस के लोगों के साथ रहेंगे’ आदि उदाहरण वैश्वीकरण की उस भोगवादी मानसिकता का ही प्रतिफलन है जहाँ व्यक्ति और उसकी आत्मिक संतुष्टि का कोई मूल्य नहीं, वरन् बाह्य प्रदर्शन एवं भोग-विलास को ही आनंद का मूल मान लिया गया है बाज़ार इसी कृत्रिम आनंद की ओर हमें धकेल रहा है। ‘स्टेटस’ का महत्व जीते जी तो रहा ही मरणोपरांत भी क़ायम रहना ही चाहिए। यही तो बाज़ार का करिश्मा है। ‘ब्रांडेड संस्कृति’ के तहत जूते ‘नाइकी’ या ‘रीबोक’ के हैं अथवा किसी सामान्य कंपनी के, बाज़ार और विज्ञापन मिलकर इसमें अंतर करते हुए उपभोक्ता को हाई स्टेटस’ बनाये रखने पर पूरा बल देते हैं। दरअसल स्टेटस को बनाये रखने की चिंता ही बाज़ार की प्राथमिकता है जिसे तेजेन्द्र ने बहुत सूक्ष्मता और सहजता से संप्रेषित किया है।

एक नव्य साम्राज्यवादी संस्कृति वैश्वीकरण एवं बाज़ार के रूप में विश्व में पैर पसार चुकी है। अब ज़रूरत का सिद्धांत व्यर्थ हो चुका है, अधिक से अधिक भोग विलास के संसाधनों-सुविधाओं का अंबार ज़रूरत बनता जा रहा है। बाज़ार ने इस अंतर को ख़त्म कर, कभी न ख़त्म और कभी न पूरी होने वाली भोगवादी संस्कृति में हमें धकेल दिया है, आबिदा का वकत्व्य बाज़ारवाद के इसी सुरसा-मुख की ओर संकेत करता है ‘आपा जब ज़िंदा होते हुए इनको सात-सात बेडरूम के घर चाहिए तो मरने के बाद क्या ख़ाली ‘दो गज’, ज़मीन काफ़ी होगी इनके लिए’।

इस कभी न ख़त्म होने वाली लालच की दौड़ ने हमारा जीवन, परिवेश, मूल्य सभी कुछ बदल कर रख दिये हैं, भागम-दौड़ और आपा-धापी के कारण एक नया जीवन दर्शन विकसित हो गया है सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्य चरम तक पहुँचने का। बाज़ार ने युगों-युगों से पोषित आदर्शों ‘जब आबै संतोष धन, सब धन धूरि समान’ को तिलांजलि दे दी है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने वैभव और भोगविलास के साधनों को ही जीवन का चरम लक्ष्य बना डाला है। ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ बाज़ार और उसकी उपभोक्तावादी संस्कृति को परत-दर-परत उघाड़ती चलती है। पूरा बाज़ारतंत्र जिस मुनाफ़ों के सिद्धान्त से चलता है, तेजेन्द्र मृत्यु के कारोबार का संकेत कर बाज़ार को न केवल जीवन के साजो-सामान तक सीमित करते हैं वरन् क़ब्रों का भी नया धंधा किया जा सकता है, जैसे प्रोपर्टी का धंधा, ख़रीदों और मुनाफ़ों में बेचो फिर क्या फ़र्क पड़ता है कि यह मुनाफ़ा क़ब्रों से हो अथवा किसी फ़्लैट से। बाज़ार तो केवल लाभ पर ध्यान केन्द्रित करता है। कहानी भूमंडलीकरण और बाज़ार के तमाम पक्षों को सशक्त रूप में हमारे समक्ष रखती है। लेखक मृत्यु के बाज़ार को एक अन्य कहानी ‘ओवरफ़्लो पार्किंग’ में भी संकेतित करता है। इंग्लैंड जैसे विकसित राष्ट्र में बाज़ार और उसका विस्तार कितने चरम तक पहुँच चुका है ‘ओवरफ़्लो पार्किंग’ इसका ज्वलंत उदाहरण है ‘मौत भी एक महत्त्वपूर्ण धन्धा है यहाँ हर चीज़ का पैकेज है। ताबूत की क्वालिटी, फूलों की च्वाइस, रॉल्स रॉयस का मॉडल, पुरोहित का इंतज़ाम, क्रियाकर्म की अवधि। जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा। रेट फ़िक्स हैं... आपकी मर्ज़ी आपको मरना है या नहीं मरना है।’ मृत्यु के साजो-समान का पूरा कारोबार और बाज़ार है यहाँ। अर्थात जीवन ही नहीं मृत्यु पर भी बाज़ार हावी है।

तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में एकरसता कहीं नहीं मिलती। इनकी रचनाओं में मृत्यु भी बहुरंगी है और भूमंडलीकरण की विविध परतें भी इनकी कहानियों को वैश्विक परिदृश्य से जोड़ती हैं। इस अर्थ में ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ कहानी यदि वैश्वीकरण का प्रतिबिम्ब है तो ‘देह की क़ीमत’ और ‘काला सागर’ कहानियाँ इसके प्रभाव को रेखांकित करती है। जहाँ संवेदन-शून्यता की सारी सीमाएँ पार हो जाती हैं वहीं ‘टेलीफोन लाइन’ भूमंडलीकरण से सीधे मुठभेड़ करती दिखाई देती है। लेकिन ‘बेतरतीब ज़िन्दगी’ कहानी में तेजेन्द्र वैश्वीकरण और बाज़ार के दबाव, आतंक और भय की बहुत सूक्ष्म पड़ताल करते दिखाई देते हैं। इसलिए तेजेन्द्र की कहानियों का यह वैशिष्टय है कि वे कहीं भी किसी विचार अथवा थीम की पुनरावृत्ति नहीं करतीं। उपभोक्तावादी संस्कृति में पूरा विश्व ढलता जा रहा है इसी वैश्वीकरण के कारण पूरी दुनिया एक वैश्विक सुपर बाज़ार के रूप में तब्दील हो गई है। विदेशी वस्तुओं के महँगे आकर्षक उत्पादों से निम्न मध्यम वर्ग का मन भी अब आकर्षित होता जा रहा है। ‘देह की क़ीमत’ का हरदीप भी इसी बाज़ारवादी चमक से अन्धा होकर अवैध रूप से जापान पहुँच जाता है। ‘काका अवैध तरीक़े से जापान जाता है और दो-तीन वर्ष वहाँ बिताकर, जेबें भरकर वापिस आता है’। (देह की क़ीमत) वस्तुतः ये केवल उत्पाद ही नहीं वरन् इनके माध्यम से हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में बदलाव बहुत तेज़ी से आता जा रहा है, उपभोक्तावाद के रूप में यह संस्कृति पूरी मानवता को अपनी चपेट में ले रही है, यहाँ अपनी भौतिक संपन्नता, अपना विकास चरमोत्कर्ष पर है, चाहे उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। कोई भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े, वास्तव में यह संस्कृति भोगवादी सदी का रूप धारण कर चुकी है। हरदीप का कथन इसे पुष्ट करता है- ‘जब तक रिस्क नहीं लेंगे, तो यह ऐशो-आराम के सामान कहाँ से जुटायेंगे।... यह सारी इंर्पोंटेड चीज़ें कहाँ से आयेंगी? ‘ओ तू यहाँ कानूनी और ग़ैर कानूनी के चक्कर में पड़ी है और मुझे अपनी ज़िन्दगी बनाने की फ़िक्र है।’ (देह की क़ीमत) ज़िन्दगी बनाने का एक ही अर्थ है बाज़ार की भाषा में अधिक से अधिक धनोपार्जन उपभोक्तावादी दृष्टि ने नई पीढ़ी में जो धन लिप्सा जगा दी है उसके लिए कल्पवृक्ष या कामधेनु विदेशी भूमि अर्थात अमेरिका या यूरोपीय देश ही हैं। बाज़ार ने ही सामाजिक भिन्नताएँ तय की है, क्योंकि अधिक धन, प्रतिष्ठा का प्रतीक (स्टेटस सिंबल) है। वस्तुतः आज की भारतीय समाज की युवा पीढ़ी के सभी स्वर्ग विदेशों में ही बसते हैं। बाज़ार ने शांत-देशज भारतीय संस्कृति को उद्वेलित कर उसमें संवेगात्मक उफान पैदा कर दिया है और इसकी चपेट में बहुत तेज़ी से हमारा युवा वर्ग आता जा रहा है। हरदीप इसी भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति की गिरफ़्त में है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति की यह आँधी पूरी दुनिया को अपने नियंत्रण में लेती जा रही है फिर चाहे भारतीय हरदीप हो अथवा पाकिस्तान, बांग्लादेश, फिलीपीन या कोरिया। अधिकांश युवा इस मायाजाल में फँसकर एक यांत्रिक जीवन जीते हुए केवल भोगविलास के सामान इकट्ठा कर अपना जीवन सफल बनाने में लगे हुए हैं, यही उनके जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसे बाज़ार ने तय किया है ‘कर लो दुनिया मुठ्ठी में’ की तर्ज़ पर आज अधिकांश युवा वैध-अवैध का विचार छोड़ एक दौड़ में शामिल हो चुके हैं, जीवन समाप्त हो सकता है पर दौड़ नहीं। उपभोक्तावादी संस्कृति में सफलता का मापदण्ड आर्थिक सफलता के अतिरिक्त कुछ नहीं। इसी दृष्टि से हरदीप एक सफल व्यक्ति बनकर पाँच लाख रुपये और इंपोर्टेड सामान लेकर आया तो और सफलता किसे कहते हैं? भूमंडलीकरण ने बड़ी चतुराई से बाज़ार के माध्यम से ‘स्टेटस सिंबल’ तय कर दिये हैं जो ब्रांडेड कपड़े पहनें, इंर्पोटेड वस्तुओं का प्रयोग करें और विदेशों में रहें, भले ही वहाँ कुछ भी निम्न से निम्न कार्य करें पर कहलाएँगे तो विदेशी। एक होड़ मची हुई है विदेश जाने की। तेजेन्द्र बाज़ार का नग्न यथार्थ रूप प्रस्तुत करते हैं ‘देह की क़ीमत’ और ‘काला सागर’ में जहाँ संवेदनाएँ मर चुकी हैं और ज़िंदा है तो केवल उपभोक्तावादी संस्कृति।

हरदीप की मृत्यु के पश्चात उसके शोक में संतप्त नहीं है परिवार, वरन् तीन लाख के चैक की चिंता है- अपने ही पुत्र या भाई के कफ़न के पैसों की चाह इस परिवार को कहाँ तक गिरायेगी’ (देह की क़ीमत) कहानी मूल्यहीनता एवं संवेदनशून्यता को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती है। यही लोभलिप्सा की संस्कृति वैश्वीकरण ने हमें गिफ़्ट में दी है।

भूमंडलीकरण के विषय में डॉ. कुमुद शर्मा का कथन उल्लेखनीय है कि ‘भूमंडलीकरण की इस दुनिया में झूठे और भ्रामक अहम भाव से ग्रस्त लोग, ऐसे ही लोग ज़िंदा रह सकते हैं, जो दूसरों से श्रेष्ठ होने का भाव मन ही मन पाले रहते हैं। (भूमंडलीकरण और मीडिया) कहने का तात्पर्य है कि बाज़ार में अधिक श्रेष्ठता को ही सफलता का मापदण्ड माना जाता है संबंधों या संवेदनाओं के लिए इसमें कोई स्थान नहीं। बाज़ार की पहली शर्त है मानवता को अमानवीयता में परिवर्तित करना अन्यथा उसका आर्थिक हित कैसे होगा? ‘काला सागर’ इसी अमानवीयता की सीमाओं को पार करती बाज़ार का एक अलग बिम्ब रचती है। तेजेन्द्र प्रस्तुत कहानी के माध्यम से पाश्चात्य सांस्कृतिक बाज़ारवादी मनोवृत्ति की भारतीय संस्कृति में घुसपैठ को बहुत सहज और सूक्ष्म रूप में व्यक्त करते हैं।

जो उपभोक्तावाद की भोगवादी संस्कृति की ठोस खुरदरी ज़मीन को तलाशती है, जहाँ सपने, मूल्य, आस्थाएँ, मानवता का कहीं कोई मूल्य नहीं, क्योंकि बाज़ार संवेदना से नहीं चलता, उत्तेजना से संचालित होता है। वैश्वीकरण की नियामतों में जहाँ सांस्कृतिक विस्थापन बढ़ता जा रहा है वहीं आतंकवाद का वैश्विक प्रसार भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। वैश्वीकरण सूचना और टैक्नोलॉजी के पंखों पर सवार होकर पूरे विश्व में बहुत तेज़ी से पहुँच चुका है, जिसने निजीकरण, वैयक्तिकता, संवेदनहीनता, भौतिकता को जन्म दिया। ‘क्या आतंकवाद का कोई धर्म होता है?... क्या एक विमान उड़ा देने से आतंकवादियों की बातें मान ली जाएँगी? क्या इन तीन सौ उनतीस लोगों को भी शहीद कहा जाएगा?... मारा तो उन्हें भी गोरी सरकार के आतंकवादी अफ़सरों ने था। निहत्थे वे भी थे और निहत्थे ये भी।’ (काला सागर) भूमंडलीकरण एक नव्य साम्राज्यवाद की नीति को बढ़ावा दे रहा है। वैश्वीकरण के स्थान पर अमेरिकीकरण की संस्कृति इसके मूल में है जिससे गै़र अमेरिकी देश विशेषतः मुस्लिम बहुल देश इसके विरोध में एकजुट होते जा रहे हैं एवं पूरी दुनिया को अपने नियंत्रण में रखने हेतु, अनेक आतंकी संगठन भी इसी दौरान सक्रिय हुए हैं, जो पूरी दुनिया में अपनी गतिविधियों से शांति भंग करते रहते हैं। इसके साथ ही बाज़ारवाद ने अमानवीयता की सारी हदें पार करने वाले व्यक्ति-समाज की सृष्टि भी की है। भूमंडलीकरण के कुछ विचारकों ने इसका बहुत भयावह स्वरूप प्रस्तुत किया है, उनकी दृष्टि में भूमंडलीकरण मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं के ऊपर पूँजी की सत्ता स्थापित कर देता है। इसमें पूँजी मानवता का दम घोंट देती है। मानव समाज पर पूँजी हावी हो जाती है। मनुष्यता पीछे छूट जाती है। (कुमुद शर्मा) ‘काला सागर’ मनुष्यता को पीछे छोड़ने की ही सूचक है।

‘आपको याद होगा कि पिछले क्रैश में मेरी बेटी नीना की मौत हो गई थी। उस समय भी एयर लाइन और क्रू-यूनियन ने मुआवज़ा मुझे ही दिया था। मैं चाहता हूँ कि अब भी मेरे बेटे और बहू की मृत्यु का मुआवज़ा मुझे ही मिले इससे पहले कि मेरी पत्नी इसके लिए अर्ज़ी दे।’

यहाँ चाहे ‘देह की क़ीमत’ के हरदीप की माँ और भाई हों अथवा यह तलाक़शुदा वृद्ध पिता, सभी संवेदनशून्य और धनपिपासु के रूप में उपस्थित हैं। तेजेन्द्र शर्मा बड़ी कुशलता से उपभोक्तावाद की बाज़ारवादी संस्कृति को, रिश्तों-भावनाओं में सेंध लगाने की प्रक्रिया को लेकर वैश्वीकरण के यथार्थ का ताना-बाना अपनी कहानियों में बुनते हैं। अपने परिवारजनों, रिश्तेदारों के इंग्लैड में एयर क्रेश की दुर्घटना में मारे जाने के केवल कुछ घंटों बाद ही इनका मिस्टर महाजन से पूछना ‘ज़रा बताएँगे यदि शॉपिंग वग़ैरह करनी हो तो कहाँ सस्ती रहेगी?’ ‘क्यों ब्रदर आपने कौन सा वी.सी.आर. लिया?, ‘मुझे तो एनवी 450 मिल गया’, ’बड़ी अच्छी क़िस्मत है आपकी, आपने सोनी ढूँढ ही लिया। कितने इंच का लिया’, ’27 इंच का और आपने’, ’हमारे भाग्य में कहाँ जी!’ बाज़ार ने संवेदनाओं का रस सोख लिया है। ब्रांडेड प्रॉडक्ट के प्रति चुंबकीय आकर्षण नहीं होगा, तो बाज़ार का मायाचक्र कैसे फलेगा-फूलेगा। इसी बाज़ारवाद में ‘बाज़ार’ का सिक्का चलता है, संवेदना की जगह उत्तेजना और संवेग की जगह फ़ैशन यही बाज़ार का सिद्धान्त है।

‘टेलीफोन लाइन’ बाज़ारवादी कार्यप्रणाली के माध्यम से रिश्तों की मुनाफ़ावादी नीति को प्रसारित करती है। भूमंडलीकरण की अवधारणा बहुराष्ट्रीय मल्टीनेशनल कंपनियों पर आधारित है जिनके कारण उदारीकरण, खुला-बाज़ार युक्त बाज़ारजनित उपभोक्तावाद को प्रश्रय मिला है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विशुद्ध रूप से व्यावसायिक कंपनियाँ हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य, अंतिम लक्ष्य मुनाफ़ा अर्जित करना है। इन कंपनियों में कार्यरत कर्मचारी जो एक ‘मनी मशीन’ में तब्दील हो चुके हैं, उन सभी के समक्ष बिक्री-लक्ष्य, मुनाफ़ा-लक्ष्य यानि (टारगेट्स) रखे हुए हैं। इन टारगेट्स को किसी भी प्रकार प्राप्त करना ही इनकी प्रोन्नति और सफलता का आधार है। ‘टेलीफोन लाइन’ का आरंभ इसी ‘टारगेट्स’ से शुरू होता है- ‘सर क्या आप मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैं?’ ‘सर हमारे पास एकदम नई स्कीम है।’ और फोन पर यह प्रार्थना कि ‘अंकल जी, प्लीज ले लीजिए न। मेरा टारगेट नहीं हो पा रहा प्लीज।" पूरी कहानी बाज़ारवादी संस्कृति को प्रतीकात्मक ढ़ंग से अभिव्यक्त करती है मल्टीनेशनल कंपनियों के अनचाहे फोन जिस तरह एक व्यक्ति के जीवन को डिस्टर्ब करके अपने टारगेटस को पूरा करने का येन-केन प्रयास करते रहते हैं ठीक उसी तर्ज पर तेजेन्द्र की ‘टेलीफोन लाइन’ के तार इन कंपनियों से जुड़ते हैं उसकी रिंग बैल समस्त कहानी में सोफिया रूपी कंपनी के रूप में ध्वनित होती रहती है। ‘अनावश्यक घुसपैठ और अपना टारगेट जिसमें कंपनियाँ और सोफिया दोनों ही पूरा करने के लक्ष्य को साधने का प्रयास करते हैं। अवतार सिंह केवल एक उपभोक्ता है जिसे स्कीम का लालच बार-बार कंपनियाँ भी देती है और सोफिया भी। "हैलो सोफी क्या तुम लाइन पर हो? हैलो...।" "हाँ अवतार सुन रही हूँ तुम मेरी बात सुनों... तुम मेरे दोस्त हो... तुम तो मुझसे प्यार भी करते थे। तुम आजकल हो भी अकेले, भला तुम, तुम खुद ही मेरी बेटी से शादी क्यों नहीं कर लेते? तुम्हारा घर भी बस जाएगा और मेरी बेटी की ज़िंदगी भी सेट हो जाएगी। तुम सुन रहे हो..." एक ओर मल्टीनेशनल कंपनियों की  फ़ोन की घंटी, दूसरी तरफ़ा सोफिया के  फ़ोन की घंटी। एक तरफ़ा इन कंपनियों के लोकलुभावन वादे, दूसरी तरफ़ा सोफिया द्वारा अतीत की मधुर स्मृतियाँ दोनों ही अवतार सिंह को भ्रमाती हैं, रिझाती है, ललचाती हैं। एक तरफ़ कंपनियों का टारगेट पूरा करने का प्रयास दूसरी तरफ़ा सोफिया का टारगेट, ‘बेटी को सेटल करना’... तेजेन्द्र शर्मा बहुत ही ख़ूबसूरती से बाज़ारवाद की संस्कृति को प्रस्तुत कहानी में व्यंजित करते हैं।

पूरी कहानी प्रतीकात्मक रूप से वैश्वीकरण को मानवीय संबंधों में सेंध लगाने को रेखांकित करती है। एक तरफ़ मल्टीनेशनल कंपनियों का मुनाफ़ा और टारगेट तो दूसरी तरफ़ा सोफिया द्वारा संवेदनाओं को भुनाना (कैश करके) बेटी की ज़िंदगी किसी भी तरह से सेटल करना एक बिंदु पर आकर दोनों के लक्ष्य एक हो जाते हैं और उपभोक्ता (अवतार सिंह) इन लोकलुभावन स्कीम वाले  फ़ोन की लाइन से परेशान और भ्रमित हो कर  फ़ोन बंद कर देता है। तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ किसी एक एंगल से नहीं देखी-समझी जा सकतीं उन्हें समझने के लिए विविध दृष्टिकोणों से देखने की दरकार है। बाज़ार के जितने भी रंग-रूप हैं। इनकी कहानियाँ उन तमाम रूपों का एक ‘कोलॉज’ रचती है।

वैश्वीकरण का भय मिश्रित आतंक और दबाव इनकी ‘बेतरतीब ज़िंदगी’ में दिखाई देता है। चूँकि बाज़ार का एकमात्र लक्ष्य मुनाफ़ा और अर्थोपार्जन ही है इस दृष्टि से कला संस्कृति, साहित्य सब गौण होते जा रहे हैं। वैश्वीकरण जन्य यांत्रिकता एवं उपयोगितावाद तथा व्यक्तिवादी संस्कृति ने उत्तेजना और तात्कालिक संतुष्टि की भावना को बढ़ाया है, जिसके परिणामस्वरूप कलात्मक व भावात्मक पक्ष हाशिये पर चले गए हैं। बाज़ार के कारण क्लासिकल कला रूप संरक्षित तो अवश्य हुए हैं किन्तु उनकी जीवंत अभिव्यक्ति की परंपरा बाधित हुई है, जिससे सांस्कृतिक शून्य पैदा हुआ है... उसे लोक प्रिय उत्तेजक कलाओं ने भरा है, कलाओं के शांत आचरण की जगह फ़ैशनी दिखावे और सौन्दर्य की जगह चमक-दमक ने ले ली है। ‘बेतरतीब ज़िंदगी’ में एक कलाकार का बाज़ार के बीच टिके रहना एक चुनौती है। दरअसल बाज़ार अपनी शर्तों पर चलता है और कला अपनी शर्तों पर, जहाँ कला बाज़ारू रंग में नहीं रँगती, समस्या का मूल वहीं से शुरू होता है। कहानी का आरंभ ही एक कलाकार के भय से होता है, यह भय बाज़ार का है, उपभोक्तावादी संस्कृति का है। ‘कुछ डरते-डरते वह बॉम्बे ब्रैसरी रेस्टोरेंट में घुसा’। कारण कलाकार की अस्मिता और व्यक्तित्व बाज़ारवादी साँचे में फ़िट नहीं होते। उपभोक्तावाद तथा ‘ब्रांडेड संस्कृति’ बाज़ार की अनिवार्य शर्त हैं दूसरी ओर एक ग़रीब कलाकार के पास मर्सिडीज गाड़ी नहीं, हैरी ऑन दि हिल पर बड़ा सा घर तो क्या, अपना कोई घर ही नहीं, ‘दरअसल यह कलाकार है फक्कड़ क़िस्म का आदमी न अपने पहनावे को लेकर सचेत है, न रख रखाव को लेकर सचेत है, चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी भी कुछ हद तक बेतरतीब ही लगती है।’ जबकि वैश्वीकरण का आधार ही ब्रांडेड संस्कृति है। कमलेश्वर के अनुसार आज का समय टॉप ब्रांडस के सॉलिड बाज़ार का है, आज ज़रूरत है आर्टिफिशियल लक्जरी और एलिगेंस की, हेयर स्टाइल में मैक्सी लुक की अर्थात बाज़ारवादी संस्कृति में लोगों के जीवन जीने के रंग ढ़ंग की, सांस्कृतिक स्वाद, पसंद, वस्त्र, सभी कुछ कंपनियों द्वारा विज्ञापित ब्रांडेड होने चाहिए।’ एक हिन्दी साहित्यकार भला इस वैश्वीकरण की सज-धज के समक्ष  कहाँ ठहर सकता है? ‘आज उसे एक अमीर बिजनेस मैन को अपनी लेखनी से प्रभावित करना है।’ यहाँ तेजेन्द्र बाज़ारवादी ताक़तों के समक्ष कला और सांस्कृतिक मूल्यों की श्रेष्ठता को निरंतर बनाये रखने की जद्दोजहद करते हैं लेकिन कहीं भी कला बाज़ार के आतंक से मुक्त नहीं हो पाती, उसका दबाव निरंतर सांस्कृतिक चेतना पर देखा जा सकता है।

‘आज कल उसमें आत्मविश्वास की कमी होती जा रही है... राजीव प्रसाद की काले रंग की मर्सिडीज कार और उनके हैंम्पस्टेड गार्डन के पास पाँच बैडरूम के घर का दबाव वह अपने व्यक्तित्व पर महसूस कर रहा है।’

इस दबाव को सेठ चूना वाला का महलनुमा घर और भोग विलास के तमाम साधन और बढ़ा रहे हैं। उपभोक्तावादी ब्रांडेड संस्कृति ही दरअसल बाज़ारवादी शक्ति को अपराजेय बनाकर अमीर और गरीब की खाई को बढ़ा रही है। ‘लग रहा था जैसे पैसा दीवारों और फ़र्श पर चिपका दिया गया था’।... ‘ये जितनी टाइल्स हैं सब इटैलियन मार्बल हैं... घर में जितनी भी पेंटिंग्स लगी है वो मेरे प्रिय पेंटर कूनिंग की है’ यह कार्पेट की वीविंग क्या 80:20 है।’ वह सोच रहा था कि पैसे वाले लोग कितनी अलग बातें करते हैं।’ दरअसल यह भिन्नता अमीर-ग़रीब के बीच तो है ही साथ ही कला-संस्कृति और बाज़ार की भोगवादी सांस्कृति का अंतर भी है। वैश्वीकरण ने जहाँ एक ओर उपभोक्तावादी जीवन दृष्टि और पश्चिमी सभ्यता का प्रचार किया है वहीं उसने पूरे विश्व की संस्कृतियों को भी लीलने का दुष्चक्र चलाया है। अंग्रेज़ी भाषा के समक्ष हिंदी भाषा की हीनता इसका एक पहलू है। कहानी में तेजेन्द्र ने प्रतीकों और बिंबों के कुछ ‘कोलाज’ रचे हैं-

‘इटैलियन मार्बल’, ‘कूनिंग की पेंटिग’, ’80:20 कार्पेट वीविंग’, ‘मर्सिडीज गाड़ी’, ‘क्रिकेट खेल’, प्रियता आदि प्रतीकों के माध्यम से कहानीकार बाज़ार के जादुई माया चक्र को रचकर, रचनात्मकता एवं कलात्मकता की इस व्यवस्था में क्या स्थिति है और भविष्य में क्या होगी, इसका उल्लेख करते हुए लेखक बाज़ारवाद के भय को व्यंजित करना चाहता है। दरअसल बाज़ार आधारित समाज व्यवस्था, व्यक्ति की रचनात्मकता, असहमति व विरोध दर्ज करने की क्षमता को कुंठित करती है, और उसे एक नई दासता में बँधने के लिए विवश करती है। लेखक भूमंडलीकरण के दबाव और आतंक और भय के साथ-साथ वैश्वीकरण में सबसे बड़े खतरे कला और  संस्कृति के अपमान एवं हाशियेकरण की ओर संकेत करता है। अब वैश्वीकरण में आधुनिकता के नाम पर संस्कृतियों को बेबस और लाचार बना कर उनका ‘वेश्याकरण’ किया जा रहा है, लेखन इन नग्न यथार्थ को भी उद्घाटित करता है।  

इस विशेषांक में

साहित्यिक आलेख

रचना समीक्षा

पुस्तक चर्चा

व्यक्ति चित्र

शोध निबन्ध

बात-चीत

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. दलित साहित्य
  3. फीजी का हिन्दी साहित्य
  4. कैनेडा का हिंदी साहित्य
पीछे जाएं