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डउका पुरान: एक अनुशीलन

प्रवासी जीवन के अनुभवों को साझा करती रचनाधर्मिता हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पहचान के लिए संघर्षरत है। मुख्यधारा का साहित्य उसे अनदेखा भी करता रहा है। अनेक प्रवासी रचनाकारों ने अपने संघर्ष, दुख-सुख और पहचान के प्रश्नों को इन रचनाओं में बखूबी उकेरा है। प्रो. सुब्रमनी रचित ‘डउका पुरान’ इसी कड़ी की एक महत्वपूर्ण रचना है। हिन्दी प्रवासी साहित्य विशेषज्ञ डॉ विमलेशकांति वर्मा के शब्दों में ‘भारत से हजारों मील दूर प्रवासी भारतीय किस प्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति करते है,1 उसकी एक बानगी प्रस्तुत करता है- डउका पुरान।  

यह लेखक की अपने समय और समाज के प्रति निष्ठा है कि उन्होंने इस रचना को भाखा में लिखने का साहस किया। सुब्रमनी को यह लगता है कि अँग्रेजी भाषा में उनके चरित्र, स्थितियाँ और कथा शायद विश्वसनीयता का स्पर्श न कर सकें। आखिर अँग्रेजी का एक विख्यात प्रोफ़ेसर जिसके खाते में अँग्रेजी की अनेक पुस्तकें है, वो एक बार इसे अँग्रेजी मे लिखने की सोचने के बाद अपना मन बदल देता है। आखिर क्यों? 

डउका पुरान शुरू होता है बीसवीं शती में और लगभग चार दशकों की कथा कहता हैं। फीजी गए गिरमिटियों के संघर्ष, सुख-दुख, जीवन के उतार-चढ़ाव और आशा- आकांक्षा का दस्तावेज़ है यह। कथा नायक, फिजीलाल से अतीत की उस घटना के बारे पूछने पर कि कैसे आए, सुनिए वह क्या कहता है –‘बाबू बड़ा दुख से आईन। रोवत, गावत, हिलत, डोलत‘2 और जब कोई इन डउकन (गिरमिटियों) के इतिहास में रुचि प्रकट करता हैं, उसे दर्ज करना चाहता हैं तो फिजीलाल फूला नहीं समाता। उसकी इच्छा है कि हम्मे डउका पुरान सुनायक है। लेकिन डउका कौन। डउकन माने -आमजन। जो भुला दिये जाते हैं, बिसरा दिये जाते हैं। इतिहास उन्हे अनदेखा करता हैं इसीलिए उसका आग्रह है कि ‘एमा सिरिफ डउकन के खिस्सा रही।'3 किसी और का नज़रिया और हिस्सेदारी फिजीलाल को अब मंजूर नहीं।और यह केवल एक फीजीलाल की कहानी न हो कर उसके बहाने असंख्य फीजीलालों की दस्ता है। सरलता, सहजता जिनकी पूंजी हैं। अपने देस के प्रति उनकी आकुलता उनके हृदय में है।

डउका पुरान सात अध्याय में विभाजित है। उपन्यास में चरित्र या घटनायें महत्वपूर्ण न होकर वर्णन महत्वपूर्ण हैं। इनमें कथा का विकास और चरित्र के विविध रंग विन्यस्त है। वर्णनों के सूक्ष्म ब्योरे इन्हें जीवंत और विश्वसनीय बनाते हैं जिनमे फीजी गए भारतवंशियों का जीवन, उनकी संस्कृति तथा बदलता समय अपनी समग्रता के साथ बड़ी ही कुशलता से पिरोया गया है ऐसे कि हम एक को दूसरे से अलग नही कर सकते। लगता हैं, जैसे फीजीलाल कोई किस्साग़ो हो जिसकी किस्सागोई की रवानी में पाठक बहे जा रहे हों। उपन्यास में कई वृतांत हैं – कामिनी के, पईना के, छविराम के चूडामनी के और सरदार के–और इन सबसे फीजीलाल कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है। इस कथा में व्यक्ति और समाज जैसे एक दूसरे मे घुल मिल गये हों। 

उपन्यास के आरंभ में फीजीलाल अपना परिचय देता हैं– फीजीलाल, गिरमिटराम डउका। गिरमिटियों की अस्मिता चेतना फिजीलाल इन शब्दों स्पष्ट करता है - 

“सबका जागा होयका चाही देस का इतिहास मा, चाहे डउकन होय, अउघड या लाकुडु लफाड़ी।“4 और वे सब अब इतिहास में अपनी जगह ढूँढ रहे हैं, उस इतिहास में जो उनका हो जिसमें उनकी अपनी जगह और अपना नजरिया हो। वह व्यंग्य के लहज़े मे जैसे चेता रहा हो –‘अब तो तोहार इतिहास होई जाई डामाडोल,ऊबड़ खाबड़। ‘5

समाज के हाशिये पर के लोगों का इतिहास जब कोई और लिखेगा तो भला वह उनका ‘अपना‘ कैसे होगा। प्रसिद्ध आलोचक प्रो. हरीश त्रिवेदी के शब्दों में "निम्नवर्गीय जीवन का स्वरचित प्रामाणिक चित्रण साहित्य में नहीं मिलता। ........  सबाल्टर्न का अपना सच्चा स्वर तो ‘डउका पुरान’ की फीजी हिन्दी जैसी भाषा में ही मुखरित हो सकता था और हुआ भी"।6

फीजीलाल व्यक्ति न होकर सामूहिक चेतना का प्रतीक है,जो जनता है कि इतिहास में उन्हें जगह मिलते ही इतिहास ‘ऊबड़-खाबड़’ हो जाएगा। क्योंकि “जउन कुछ तू बिदमान लोगन रद्दी समझत हो, निकार के करता हो बाहेर, वहीं सब सान के बनाइब, डउका पुरान।“7 इस संकल्प और अपनी तलाश की यात्रा का ही तो परिणाम है,यह उपन्यास। यह कथा यात्रा गिरमिटियों का सतही लेखा-जोखा न होकर,उनके जीवन को समूचे सुख–दुख, हास–परिहास, आशा–निराशा के साथ मूर्त करता है।  

और यह पुरान है “भाखा” में। क्योंकि ‘अपना भाखा मा बातचीत होय तो अउर मजा लगे।’8 सुब्रमनी ने इसी विश्वसनीयता के लिए ही तो डउका पुरान अँग्रेजी या साहित्यिक हिन्दी में न लिखकर फीजी हिन्दी में लिखा। फीजी हिन्दी, वह हिन्दी– जो फीजी में प्रचलित है और जिसका रूप विन्यास शिष्ट हिन्दी से काफी भिन्न है। जो अवधी और भोजपुरी की मिश्रित परंपरा से आकार ग्रहण करती हैं। डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित के शब्दों में ‘फिजियन हिन्दी का शब्द भंडार हिन्दी, भोजपुरी, अवधी, अँग्रेजी और फिजीयन शब्दों के मेल से बना है जैसे – कौनची [कौनचीज], वास्तीन [वास्ते], संधे [संगे], पतरा [पतला] आदि। कुछ क्रियाएँ भी अलग दिखाई देती है जैसे –जाए सकेगा [जा सकेगा], उ खरीदिस [उसने खरीदा]आदि’।9 

बोली के तत्वों का उपयोग साहित्यकार अनेक कारणों से करते हैं– कहीं छौंक के लिए तो कही ‘चटनीफिकेशन’ के लिए। लेकिन सुब्रमनी जिस अनुभूत संसार की संवेदना से हमारा साक्षात्कार करना चाहते थे वह अपनी संपूर्णता में केवल इसी ‘भाखा’ में ही संभव हो पाता। और हुआ भी। डउका पुरान का पाठक यह बखूबी अनुभव भी करता है। 

पीढ़ियों की इस कथायात्रा में लेखक ने भाषा को उसकी संपूर्णता में पकड़ा है – ध्वनि, लय और टोन के साथ। फीजी मे भी ऐसी भाषा का प्रयोग अब कम होता जा रहा है और उसका स्वरूप तेज़ी से परिवर्तित होता जा रहा है। हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं– अपने आस-पास की निरंतर एकरूप होती दुनिया और हमारे द्वारा प्रतिदिन प्रयोग की जानेवाली भाषा में तेज़ी से आते बदलाव। डउका पुरान की रचना प्रक्रिया – लेखक के लिए भी तो ‘बचपन की सैर’ जैसा है। फिर से बचपन के उन दिनों में पहुँच जाना – फ़्लैशबैक-सा।

डॉ. कमल किशोर गोयनका इस उपन्यास के विषय में लिखते हैं –‘डउका पुरान एक सामाजिक – सांस्कृतिक महकाव्यात्मक उपन्यास है। इसमें लेखक ने फीजी के भारतीयों का जीवन तथा उनकी भाषा को जीवित कर दिया है।‘10

उपन्यास पढ़ते हुये कई बार यह लगता है कि सुब्रमनी का अपना संवेदन संसार बड़ा व्यापक है। उनके पास गहन पर्यवेक्षण शक्ति तथा बचपन की स्मृतियों का विशद कोश है। फीजी में गन्ने के खेत में काम करने गए भारतवंशियों का आरंभिक जीवन अत्यंत कष्टपूर्ण था। जो सपने दिखाकर वे ले जाए गए, वे तो कहीं थे ही नहीं। वहाँ वे आदमी नहीं बस– कुलम्बर जो थे। इन भोले-भाले ‘कुलियों’ के जीवन में छोटी-छोटी चीजें भी अत्यंत महत्व की थी। वे उनसे रस लेना जानते थे, उनका सहज मन उनमे रम जाता था – जैसे रेडियो का आगमन, ग्रामोफोन और फिल्म देखने का अनुभव आदि। इस कथायात्रा के कुछ ऐसे ही रोचक प्रसंग हैं।

लेकिन इस कठिन जीवन में प्रेम की फुहारें भी तो हैं। प्रेम मनुष्य को सुंदरता की वह दृष्टि देता है – जिससे फीजीलाल कामिनी के ‘चहराप पसीना जइसे फूलन पे पानी कि बूंदें‘ देखा पता है। 

पीढ़ियों की इस कथा मे फीजी की तत्कालीन [राजनैतिक,सामाजिक] घटनाओं के भी अनेक संकेत हैं– ‘जइसे देस माँ गड़बड़ी मचा, कल्लू गायब’ और ‘ई मंदिरेप आंखी गड़ाईन। तीन दफा तुरिन, तीन दफा सब मिल कै बनवाइन।11 फीजी के समकालीन इतिहास से अनेक संदर्भ इस रचना में उपलब्ध हैं। 

हास्य-व्यंग्य इस उपन्यास की महती विशेषता है। जिसमें इसकी विशेष जिसमें भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका है। यहाँ हास्य प्रसंग कृत्रिम या आरोपित न होकर जीवन सहज स्फूर्त है – ‘आस्ते खाव, तोह के इंजिन पकडेक है।’12 इसी तरह सूटेड-बूटेड शहराती के कोट उतारने पर "ई सब उतारेक रहा तो काहे न घरेम उतार के आइस|"13 सुब्रमनी ने फीजी हिन्दी को उसकी संपूर्णता में पकड़ा है वे उच्चारण, वर्तनी और लेखन सभी स्तरों पर सतर्क हैं। वे अनेक शब्दों – पौण्ड – पौन, कुकई, डर–डेर, तउलिया तउला, बैल – बुल्ल, शरमान – सरमान, लीख-लीक आदि का उसके मूल रूप में ही प्रयोग करते हैं। फीजी के प्रवासियों में उत्तर प्रदेश और बिहार से आये लोगों की संख्या अधिक है। इस कारण पूर्वाचंल की संस्कृति के अनेक रंग वहाँ प्रचलन में हैं। विवाह संस्कार का विशद वर्णन, उसमें कुटुंब – समाज की भागीदारी के अनेक प्रसंगो को सुब्रमनी ने बड़े मनोयोग से उपन्यास में वर्णित किया है। रामायण का गायन और मंचन फीजी के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। श्रद्धाभिभूत पईना फिल्मों मे हनुमान जी को देखते ही भावुक हो जाता है – ‘हनुमान सामीस भेंट होई।‘14

फीजी के भारतवंशी अपनी पहचान और अपने समय के प्रति बहुत सचेत हैं। पईना के शब्दों में “उससा इसाई आयवाला”, ‘अगले तीन साल माँ गाँव एकदम बदलेगा’। इन सामाजिक, राजनैतिक हलचलों को देखकर लगता हैं वहाँ भी राजनेता आकर अनेक वादे करते हैं। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण डउका पुरान अपने समय का एक महत्वपूर्ण ‘सामाजिक सांस्कृतिक टेक्स्ट‘ है।

मानवीय अनुभवों के इस महाकाव्य में लोग तेजी से बदलते समय में भौंचक हैं। उनकी वो दुनिया, जिसमें शायद सुविधा नहीं थी। सुख था, शांति थी– तेज़ी से सिमटती – सिकुड़ती जा रही है। फीजीलाल के शब्दों में “बसकित सब तरफ बढ़ गया। नवा टोला वही माँ हेरान रहा।“15 यह अपने विलुप्त होते पहचान की टीस नहीं तो और भला क्या है। केवल टोला ही नहीं है हेराया गाँव का आपसी सदभाव भी खतम हो रहा है। अब अपनी समस्याओं का समाधान लोग मिल-बैठकर नहीं ढूँढते। हबीबुल्ला के शब्दों में इस भयानक समय की पीड़ा – “हम बोले कोर्ट में जायक कउन जरूरत, अपनेम समझ बूझ लेव। न मानिन, आपन वाली कर के छोड़िस झुटठे वकील पइसा खाइन।”16 

ये डउकाजन अपनी भाषा के प्रति ये अत्यंत जागरूक हैं। वह उनकी पहचान का महत्वपूर्ण आधार जो है। अपनी इसी भाषा पर पड़ते विविध प्रभावों से उन्हें लगता हैं जैसे ‘आपन भाखा का है, खाली परछाई हैं।‘ भाषा और जीवन के बीच बढ़ती दूरी की इससे सटीक अभिव्यक्ति भला और क्या होगी। इस भाषा को ही तो संरक्षित करने का महत्वपूर्ण प्रयास है यह। जिससे आम जन की पीड़ा, दुख-सुख, आशा-आकांक्षाएँ उनकी अपनी भाषा मे मुखरित हों। अन्य भाषा मे यह संभव कैसे होगा। प्रो. हरीश त्रिवेदी के शब्दों में – “हर भाषा में उसका अपना विशिष्ट जीवन दर्शन होता है“ निम्नवर्गीय व्यक्ति बोल नहीं पाता अत: निम्न वर्गीय जीवन का स्वरचित प्रामाणिक चित्रण साहित्य में नहीं मिलता। सबाल्टर्न का अपना सच्चा स्वर तो डउका पुरान की फीजी हिन्दी जैसी भाषा में ही मुखरित हो सकता था, और हुआ भी है।“17

घर से निकलते ही फीजीलाल देखता है कि शहर में सभी दौड़ते भागते चले जा रहे हैं – ‘अइसे ना चलेक चाही जैसे कोई पिछवाया है।18 पंडित छविराम इस कठिन समय की सच्चाई फीजीलाल को समझाते हैं ‘सब आपन-आपन। आजकल केकर कउन। आज के समय में धर्म भी तो धंधा होता जा रहा है। पंडित जी ‘सनफरा–सिसिकों और बंकूवर जाते तो हैं लेकिन माटी पाथर से हीन शहर से- सालिगराम की खोज में गाँव का रुख करते हैं। और तो और पंडित समाचरन अपने बढ़ते धंधे के कारण चार ‘अंपरेनटिस’ भी रख लेते हैं’, आखिर धर्म का धंधा शहर में ही तो फलता-फूलता है। ज़मीन से लगाव को समझ पाना जड़हीन, आकाश कुसुम जैसी शहराती पीढ़ियों के लिए कठिन है। जहाँ ‘वही जउन सब कै हित मा’ जीवन दर्शन है एवं जीवन –‘सब पंचन के साथ’ बँधा है, उनसे अलग जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

डउका पुरान में सुब्रमनी ने जिस लोक भाषा का सर्जनात्मक उपयोग किया है। उनका यह प्रयोग अनायास ही कथा शिल्पी रेणु का स्मरण करा देता है। जीवन को उसकी संपूर्णता में उपस्थित करती हुई भाषा। सुब्रमनी के भाषा शैली की प्रशंसा करनी होगी कि कैसे उन्होंने फीजी हिन्दी के ठेठ शब्दों का इतना सर्जनात्मक प्रयोग किया। फीजी का ग्रामीण जीवन डउका पुराण में बखूबी उभर के सामने आया हैं। अपनी बोली-बानी में बतियाते थे चरित्र अपने सुख दुख, आशा आकांक्षा को एक दूसरे के साथ साझा करते हैं। वे मानते हैं कि “जब विपत्ति में कोई हाथ बढ़ा दे तो दुख थोरा कमती होई जाय।”19 यही सरल, सहज जीवन, जहाँ व्यक्ति दूसरे के दुख से दुखी होता है और उसके लिए सब कुछ करने को तत्पर भी रहता है। आज के इस के इस आत्मकेंद्रित जीवन में इस भाव का निरंतर क्षरण हो रहा है। 

संदर्भ:

  1. डॉ. विमलकांति वर्मा, गगनांचल, वर्ष 56 पृष्ठ, 111 
  2. डउका पुरान, पृष्ठ 3
  3. वही, पृष्ठ 7 
  4. वही, पृष्ठ 6
  5. वही, पृष्ठ 6
  6. वही, पृष्ठ 8
  7. वही, पृष्ठ 6
  8. वही, पृष्ठ 6
  9. डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, प्रवासी हिन्दी साहित्य,पृष्ठ 66 
  10. डॉ. कमल किशोर गोयनका, हिन्दी का प्रवासी साहित्य 65
  11. डउका पुरान, पृष्ठ 452 
  12. डउका पुरान, पृष्ठ 332
  13. वही, पृष्ठ 66
  14. वही, पृष्ठ 19
  15. वही, पृष्ठ 67
  16. वही, पृष्ठ 388
  17. डॉ. हरीश त्रिवेदी, डउका पुरान 
  18. डउका पुरान, पृष्ठ 373
  19. वही, पृष्ठ 77 

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