अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

फीजी हिंदी के उन्नायक : प्रोफेसर सुब्रमनी

आज पुन:स्मृति में आ गया बचपन में पढ़ा श्लोक, विद्या ददाति विनयं विनयाद याति पात्रताम"1जब अन्तराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के प्रवासी भवन में प्रोफेसर सुब्रमनी से मुलाकात का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके चेहरे की सौम्यता, विद्वता का तेज, उनके आंतरिक सौन्दर्य का परिचय अनायास ही दे रहे थे। भारतीय डायस्पोरा का प्रतिनिधित्व करता, फीजी हिंदी में आया उनका 1034 पृष्ठों का उपन्यास फीजी माँ: एक हज़ार की माँ  के भारत में लोकार्पण का शुभ अवसर था। उस अवसर पर उनकी पत्नी अंशु जी भी मौजूद थी, जो अपने मिलनसार स्वभाव के कारण बहुत जल्द सबसे घुलमिल गयी थी। भारतीय डायस्पोरा और हिंदी साहित्य के क्षेत्र में,सुब्रमनी जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए, मैं, सुब्रमनी जी का साक्षात्कार लेना चाहती थी लेकिन समयाभाव के कारण ऐसा हो न सका। लेकिन उनकी प्रतिभा और विनम्रता मुझे उनके बारे में लिखने से रोक नहीं पायी। इस अवसर पर अन्तराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के अध्यक्ष श्री  विजेंदर गुप्ता, महासचिव श्री  श्याम परांडे जी, परिषद् के निदेशक श्री नारायण कुमार जी, केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के उपाध्यक्ष अनिल जोशी जी, प्रवासी संसार पत्रिका के संपादक डॉ. राकेश पांडे जी, के के बिरला फ़ाउंडेशन के निदेशक डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण जी, ख्यातिप्राप्त भाषा वैज्ञानिक डॉ. विमलेश कांति वर्मा जी, मॉरीशस की विशेषज्ञ डॉ. नूतन पांडे जी, त्रिनिदाद के विशेषज्ञ डॉ. दीपक पांडे जी, प्रवासी साहित्य के विशेषज्ञ डॉ. अरुण मिश्र जी, लंदन की जानीमानी हिन्दी साहित्यकार सुश्री दिव्या माथुर जी, फीजी दूतावास के उच्चायुक्त महामहिम योगेश पुंजा जी और अन्य विद्वानों ने उनका हार्दिक अभिनन्दन किया। अपने वक्तव्य में प्रो. सुब्रमनी ने भारत में मिले मान-सम्मान के प्रति आभार जताया। इस लेख के द्वारा मेरा भी यही उद्देश्य है कि भारतवंशी सुब्रमनी जी जैसे प्रतिभावान शिक्षक, सशक्त लेखक, प्रखर भाषाविद को विदेशों के अलावा हम भारत के लोग भी बड़े स्तर पर जाने। इनकी प्रतिभा का विदेशों में जितना मान है, हम इनकी उतनी कीमत इतनी नहीं आँक पाते हैं। इनका भारत देश के लिए, हिंदी भाषा, संस्कृति के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष योगदान से  हम आम भारतीय अनजान हैं।

इनके पूर्वजों ने फीजी की कितनी विपरीत परिस्थितियों में रहकर अपने वंशजों को पाला और पढ़ाया लिखाया और कितने बिगड़ते संवारते हालातों में इन वंशजों ने अपने पाँव के नीचे की ज़मीन को तलाशा है और कितने ये आज भी भारत से दिल से जुड़े हुए हैं, यह हम सबके लिए  जानना बहुत जरूरी है। इतिहास ने जो इनके पूर्वजों को हाशिये पर रखा ,'छोटे ईश्वर की सौतेली संतान ''बर्डन ऑफ़ द बीस्ट'2 की संज्ञा से नवाजा, क्या उस पीड़ा अपमान को कोई कम कर सकता है? कोई उसका ख़ामियाज़ा चुका सकता है? शायद नहीं। लेकिन उस समय के हालातों, तकलीफों, शोषण को सहकर और अपनी अटूट जिजीविषा कड़ी मेहनत से उनके पूर्वजों ने उन्हें जो थोड़ी ज़मीन बख्शी है, ये भारतवंशी उसी को अपनी प्रतिभा, मेधा, परिश्रम से पुख्ता बनाने में जुटे हैं। इनके प्रति हम हमेशा आभारी रहेंगे। आज इनको मुख्य धारा में लाकर, इनका सम्मान करना हमारा सौभाग्य होगा। आज वैश्विक मंच पर भारत की संस्कृति और भाषा इन्ही के दम पर खड़ी है।  फीजी का इंग्लिश, हिंदी और फीजी हिंदी साहित्य सुब्रमनी के लेखन से अत्यंत समृद्ध हुआ है, इसमें कोई दो राय नहीं है।

किसे पता था कि बचपन में देखा हुआ सुब्रमनी जी का वह सपना कि वह एक दिन अपनी किताब स्वयं लिखेंगे, सच होगा।  लेकिन दृढ़  निश्चय और कठोर परिश्रम से, जब फीजी की पथरीली धरती में गिरमिट मज़दूर सफ़ेद सोना उगा सकते थे तो क्या सुब्रमनी पढ़ लिखकर लेखक नहीं बन सकते थे? थे तो वह भी उन्ही मेहनतकशों के वंशज। सुब्रमनी के पिता की गोरे के घर से रद्दी में से उठाकर घर लाई हुई किताबें, सुब्रमनी के लिए अमूल्य निधि बनी। रामचरितमानस का बचपन से गायन और पठन संस्कारों की नींव पुख्ता करता गया। गरीबी, पिता का असामयिक निधन, पाँच बहनों और माँ की ज़िम्मेदारी, अभाव, संघर्ष और चुनौतियाँ व्यक्तित्व को कुंदन की तरह निखारते चले गए। बचपन में सहपाठियों और अध्यापकों के द्वारा उड़ाया गया मज़ाक और भत्सर्ना भले ही उन्हें शेक्सपियर और जेन ऑस्टेन के समकक्ष न ला पाया हो (जब उन्होंने कक्षा में अपने लेखक बनने के सपने के बारे में बताया तब उन्हें शेक्सपियर और जेन ऑस्टिन कह कर चिढ़ाया गया था) लेकिन इंग्लिश और फीजी हिन्दी साहित्य लेखन को दिया गया उनके  साहित्यिक योगदान ने उन्हें बहुत ऊँचे पायदान पर खड़ा कर दिया। कला के सभी रूपों को जीवित करने के लिए पैसिफिक क्रिएटिव आर्ट्स एसोसिएशन की स्थापना हुई जिसने मन नाम से जर्नल निकालना शुरू किया जिसके सुब्रमनी संपादक बने।3

वयस के सत्तर के दशक को पार करने के बावजूद भी उनकी कार्य करने की अदम्य क्षमता उन्हें साधारण से असाधारण लेखक बनाती हैं। इनका जन्म 1943 में लबासा में हुआ। फीजी यूनिवर्सिटी में भाषा विज्ञान और साहित्य के प्रोफेसर रहे। इससे पहले सुब्रमनी जी वर्ष  2111 से 2017 तक फीजी नेशनल यूनिवर्सिटी में रहे और उससे पहले साउथ वह पैसिफिक यूनिवर्सिटी में वरिष्ठ पद पर थे। वह 2009 से 2010 तक फीजी नेशनल यूनिवर्सिटी  में विजिटिंग प्रोफेसर रहे और 2008 में श्री सत्य साईं यूनिवर्सिटी पुत्तापर्थी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे। भारत में 2004 में नार्थ गुजरात यूनिवर्सिटी पाटन में प्रोफेसर रहे। निबंधकार, उपन्यासकार, आलोचक, कहानीकार, भाषाविद, शिक्षक आदि विभूषणों से सुसज्जित सुब्रमनी ने लेखन की दुनिया में कदम रखने के बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनकी इंग्लिश में कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ द फंटेसी ईटर्स 1988,साउथ पैसिफिक लिटरेचर 1985, इंडो फ़ीजियन एक्सपीरियंस1979, मिथ टू फैबुलेश्न 1985, अल्टेरिंग इमेजिनेशन, रिक्लेमिंग द नेशन, न्यू फ़ीजियन राइटिंग, वाइल्ड फ्लावर्स आदि हैं और फीजी हिंदी में 2001 में उनका 500 से अधिक पृष्ठों का उपन्यास डउका पुरान आया और हाल ही में उनका 1034 पृष्ठों का वृहद उपन्यास फीजी माँ: एक हज़ार की माँ आया, जिसने फीजी के साहित्यिक खेमे में नया इतिहास रच दिया।4

उनके बहुत से लेखक साथी जैसे जॉन सुनना, डोनाल्ड कल्पोकास, सत्येंदर नंदन फीजी की सक्रिय राजनीति में आ गए और उन्हें भी राजनीति में आने के लिए बहुत बार आग्रह किया गया। लेकिन उनका कहना था कि वे जो भी अपने समुदाय और राष्ट्र से कहना चाहते है उसे वे अपने कार्यों से अभिव्यक्त करेंगे। लेखन ज्यादा गंभीर और स्थाई कार्य है जबकि राजनीति का जीवन क्षण भंगुर है और लेखन से लोगों के साथ बातचीत और संवाद संभव है। वे अपने विद्यार्थियों को पढ़ने के साथ-साथ लेखन के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं और  उनके विद्यार्थियों में बहुत से लेखक बन कर उभरे।5 ब्रिज वी लाल भी उन्ही के शिष्य रह चुके हैं। हालांकि फीजी हिंदी में लेखन की नींव बहुत पहले पड़ चुकी थी (फीजी हिंदी में लेखन का आरम्भ कुमकुम बा के पंडित बाबुराम ने 100 पृष्ठों की छोटी सी व्यंग्यात्मक पुस्तक से किया था। उसके बाद महाबीर मित्र की कविता की पुस्तकें रामनारायण गोबिंद और रामकुमारी की लोक गीतों की पुस्तकें आई। कुछ वर्ष पहले ठाकुर रणजीत सिंह ने फीजी हिंदी के लिए लिखा)। फीजी हिंदी सीखने के लिए रोडने एफ मोग की आधारभूत और संदर्भित व्याकरण और सुजन होब्स और जे एफ सीगल की पुस्तकें आई जिसकी सहायता से उन विदेशियों को फीजी हिंदी पढ़ना आसान हो गया, जो फीजी समुदाय में शामिल होना चाहते थे और फीजी के लोगों की सहायता करना चाहते थे। बाजार, गली, घर, खेत की भाषा समझ कर सामाजिक ज़िंदग़ी को करीब से देखना और खुलेपन से दोतरफा संवाद कायम करना चाहते थे। लेकिन सुब्रमनी के डउका पुरान और फीजी माँ:एक हजार की माँ ने फीजी हिंदी का मजबूत भवन खड़ा कर दिया।

सुब्रमनी जी ने अँग्रेजी के प्रोफेसर होते हुए भी अँग्रेजी के साथ-साथ फीजी हिंदी में भी लेखन का रास्ता प्रशस्त किया। जैसा कि नेल्सन मंडेला ने भी एक बार कहा था–

“गर आप किसी से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वो समझ सकता है तो वह भाषा उसके दिमाग तक जायेगी लेकिन अगर आप किसी से उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं तो वह बात उसके दिल तक जायेगी।”7

उसी तरह फीजी बात फीजी भारतीयों की मातृभाषा है। यह अंधकार युग की टूटल फूटल भाषा नहीं है जिसे विस्मृत इतिहास की गुमनाम गलियों में छोड़ देना बेहतर है। यह तो एक ऐसी अद्वित्य भाषा है जो विशेष ऐतिहासिक सांस्कृतिक और सामाजिक अनुभवों के बीजों से उत्पन्न हुई है जिसमें फीजी इतिहास की विभिन्न धाराओं का संगम प्रतिबिंबित होता है। उत्तर भारत की अवधी, भोजपुरी, दक्षिण भारत की द्रविड़ियन, ब्रिटेन की इंग्लिश और फीजी की स्थानीय भाषा के शब्दों को अपने में समेटते हुए कब एक नए रूप में अवतरित होती चली गयी स्वंय इसको भी नहीं पता। लेकिन यह भाषा हर फीजी भारतीय के अंदर नैसर्गिक रूप से प्रवाहित होती है और इस भाषा में बातचीत करने के लिए उन्हें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता।8 कालांतर में फीजी में हिंदी के दो रूप विकसित हो गए थे– पहला रूप बोलचाल की हिंदी का जिसे वे फीजी हिंदी या फीजीबात कहते हैं, दूसरा रूप संस्कृत प्रधान शब्दावली हिंदी का है जिसे शिक्षा, प्रसारण और अन्य औपचारिक अवसरों पर प्रयोग किया जाता है।9 फीजी हिंदी साहित्य में भी इसी खड़ी बोली हिंदी की बहुतायत है लेकिन हर देश में व्यक्ति अपनी भाषा में अभिव्यक्ति चाहता है। जो वक्ता मंच पर शुद्ध हिंदी बोलते हैं निजी तौर पर वह भी फीजी हिंदी में बात करना पसंद करते हैं। यह बिलकुल ऐसा ही जैसे शुद्ध हिंदी तो केवल सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए है लेकिन जीवन का असली व्यवहार तो फीजी हिंदी में ही होता है। यह धाराप्रवाह संवाद की, दिल की भाषा है, जिसका प्रयोग दुकानों में, खेतों में, बाजार में, घरों में, इसके मुहावरे और रूपक चलते हैं। यह ऐतिहासिक अनुक्रम के विभिन्न सोपान तय करती है।(Lal, 2005) बहुसांस्कृतिक जीवन शैली में विभिन्न भाषाओं की उत्तरजीविता को कायम रखने के लिए लिखित साहित्य का होना बहुत जरूरी हैं, इसी कारण से फीजी हिंदी में छुटपुट रचनाएँ शुरू से प्रकाशन में आती रही है। हालांकि फीजी के भारतीयों ने फीजी हिंदी को औपचारिक मान्यता कभी नहीं दी लेकिन रोडने मोगद्वारा लिखित फीजी हिंदी जेफ सीगल द्वारा लिखित से इट इन फीजी हिंदी और सूजन होब्स की इंग्लिश-फीजी हिंदी-इंग्लिश शब्दकोश  ने हिंदी भाषा की इस शैली को महत्त्वपूर्ण माना और विदेशी होते हुए भी फीजी हिंदी पर भाषिक दृष्टि से काम किया।10

प्रो. सुब्रमनी ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि लोगों में फीजी हिंदी को लेकर बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ हैं, उनके अनुसार यह टूटी-फूटी भाषा है। लेकिन इसके अपने नियम है, अपना व्याकरण है, अपना  सौन्दर्य है, जीवन की यथार्थता है।11सुब्रमनी, ब्रिज विलास लाल, रेमंड पिल्लई आदि सभी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं और गिरमिटियों के वंशज रहे हैं और इसीलिए उन्होंने अपनी पूर्वजों की भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। इस भाषा की भाव व्यंजना से वे भली-भाँति परिचित हैं और इसी कारण से फीजी हिंदी में रची उनकी रचनाओं का सौन्दर्य अप्रतिम है। उनके फीजी हिंदी के लेखन में भाषा सहज प्रवाह से पठनीयता में बिना किसी अवरोध के बहती चलती है और स्थानीय मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग कृति को देश काल के रस से सराबोर कर देता है। फीजीबात सुब्रमनी की रगों में बह रही है लेकिन अन्य औपनिवेशिक भाषाओं की तरह इसकी जड़ें भी इतिहास के पन्नों में हैं। सन्‌ 4 मई 1879 से 1920 तक, भारत के विभिन्न क्षेत्रों से, शर्तबंदी मज़दूर प्रथा के अंतर्गत 60965 मज़दूर फीजी आये थे जिनमें सुब्रमानी के पूर्वज भी थे। ये मज़दूर अधिकतर पश्चिमोत्तर प्रान्त, अवध, बिहार, मद्रास आदि क्षेत्रों से आये और इन विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच संपर्क भाषा का काम हिंदी ने किया जिसमे अवधी, भोजपुरी,भारत की अन्य भाषाओं के शब्द, इंग्लिश और फीजी की स्थानीय भाषा के शब्द समाहित होते गए।12 यह भाषा उन्हीं मज़दूरों द्वारा देश काल परिस्थिति जैसे कारकों के कारण अपना रूप आकार रचती गयी। जिसे आज हम फीजी हिंदी या फीजीबात कहते हैं वह अनजान देश, अनजान परिवेश, शोषण, अपमान,उनके अस्तित्व और चेतना पर जबरन प्रहारों के बीच उत्तरजीविता के लिए परस्पर सुख-दुःख साझा करना आसान बनाने के लिए विकसित होने वाली नई बोली थी जिसे आरम्भ में ब्रिटिश उपनिवेशों ने भी प्रोत्साहित किया। ऐसी परिस्थितियों में आपसी मेलजोल से भाषा में शब्दों में अर्थ संबंधी और ध्वन्यात्मक प्रभाव लक्षित होने लगते है और जब यह विकसित हो जाते हैं तो इसे कोइने कहा जाता है और इस प्रक्रिया को कोइनाइजेशन कहा जाता है और आज फीजी हिंदी भारतीय फीजी समुदाय के लिए जीवंत कोइने भाषा बन गयी है।13 सुब्रमनी ने कहा, "भारतीय भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आये थे और वे आपस में बातचीत करना चाहते थे। तब कुछ इंग्लिश के कुछ आई तौकेई के शब्द अनायास ही मिश्रित हो गए और यह भाषा अस्तित्व में आई।"14 उत्तर भारत की भाषाएँ, चार द्रविड़ भाषाएँ, हिंदी की बोलियाँ, काइवीती शब्द, इंग्लिश के शब्द- सबकी अतिवृहद विभिन्नता के बावजूद, फीजी में भाषाई एकरूपता का पाया जाना कम आश्चर्यजनक नहीं है। आज आप फीजी में कहीं भी चले जाए हर जगह भारतीय एक सी ही भाषा बोलता नजर आएगा। यहाँ तक कि फीजी हिंदी का जो रूप गिरमिट के समय था, वही रूप आज भी है और इसी फीजी हिन्दी ने अपने अपने होमलैंड में रहने वाले दूसरे समुदायों के लोगों को दिलों को जोड़ने में सांस्कृतिक उपकरण का काम किया है। फीजी हिंदी में लेखन में सुब्रमनी के अलावा बहुत से लेखकों ने योगदान दिया है उनमें कुछ नाम है ब्रिज विलास लाल, सतेंदर नंदन, सुदेश मिश्र, विजय नायडू, प्रवीण चन्द्र अहमद अली, विजय मिश्र,कोमल करिश्मा लता, निखत शमीम, सरिता देवी, चाँद सुभाषिनी, लता कुमार, धनेश्वर शर्मा, खेमेंदर, कमल कुमार, मोहित प्रसाद, कमलेश शर्मा, कविता नंदन, अनुराग, सुनील भान, सतीश राय, शालिनी आदि हैं। कोई किस्सा बताव पुस्तक में प्रवीण चन्द्र ने अधिकतर सभी लेखकों की फीजी हिंदी में लिखी कहानियों का संकलन किया है।15 जेफ्फ सीगेल, रोडने मोग और सूजन होबस ने फीजी हिंदी शिक्षण की दुनिया में महत्त्वपूर्ण काम किया है। जहाँ विजय मिश्र इस लेखन की विचारधारा को 'गिरमिट आइडियोलॉजी' कहते हैं, वहां सुदेश मिश्र लेखकों के इस वर्ग को 'सबाल्टर्न ज्ञाता वर्ग' कहते हैं।16 ब्रिज वी लाल की मारित, रेमंड पिल्लई का अधूरा सपना और शांतिदूत के संपादक महेंदर चन्द्र शर्मा विनोद तरलोक तिवारी ने छद्म नाम से थोरा हमरी भी सुनो फीजी हिंदी में लिख कर फीजी हिंदी का मान बढ़ाया।17 लेकिन फीजी हिंदी के क्षेत्र में आज के दिन सबसे बड़ा नाम है–  सुब्रमनी का, क्योंकि प्रोफेसर सुब्रमनी ने निचले पायदान पर खड़ी फीजी हिंदी को साहित्य में मजबूत स्थान दिलाने में अथक प्रयास किया है। 2001 में ‘डउका पुराण’ लिखकर सुब्रमनी ने यह सिद्ध कर दिया कि इस सबाल्टर्न भाषा को अब मज़बूत ज़मीन मिल गयी है। अभी तक फीजी भारतीय समुदाय के अभिजात्य वर्ग के लोग भाषा को वर्ग के स्तर नापने के साधन के रूप में इस्तेमाल करते थे और फीजी हिंदी में लेखन, उनमें एक शर्म और हीनता का भाव भर देता था क्योंकि जबसे औपनिवेशिक युग में अपने आप को श्रेष्ठ समझने की भावना पनपी तबसे सबने इंग्लिश को प्राथमिकता दी। वर्तमान में औपनिवेशिक शक्तियों का ह्रास हुआ तो मानक हिंदी का वर्चस्व हुआ। लेकिन किसी भी लेखन में कलात्मकता तभी आती हैं जब लेखक अपनी भाषा के प्रति जुड़ाव और गौरव महसूस करता है।18 और प्रकृति का नैसर्गिक रूप भी यही है कि जब व्यक्ति की जड़ें जम जाती है तब वह आरोपित माध्यमों में रुचि नहीं लेता और सृजनात्मक रचना अपनी मातृभाषा में ही करना चाहता है। फीजी में बाइबिल का अनुवाद करने वाली उर्मिला प्रसाद का भी यही कहना है कि अगर चीजों को फीजी हिंदी में संप्रेषित किया जाएगा तो अधिकतर लोग बेहतर तरीके से समझ पायेंगे। इसी विचारधारा के चलते कि आने वाली पीढ़ी के लिए मातृभाषा में किये गए काम पुन:ज्ञान मीमाँसा के लिए आधारशिला का काम करेंगे,सुब्रमनी ने फीजी हिंदी में डउका पुरान और फीजी माँ : एक हजार की माँ  दो उच्च कोटि के उपन्यास रचे।

उनका फीजी हिंदी में लिखा पहला उपन्यास डउका पुरान केवल फीजी भारतीयों के लिए नहीं गिरमिट इतिहास का दस्तावेजीकरण है। पैसिफिक द्वीपों में लिखे गए सारे साहित्य में स्थानीय भाषा में लिखा यह उपन्यास आकार में सबसे वृहद है और यह उपलब्धि कोई कम नहीं।19 डउका पुरान में व्यक्त ऐतिहासिक स्मृतियाँ कथा के रूप में मातृभाषा में अंकित की गयी हैं जो आने वाले समय में पुरालेख ज्ञान के शोध के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी। डउका पुरान की भूमिका में जानेमाने संगीतज्ञ और ऑस्ट्रेलिया के भूतपूर्व हिंदी प्रसारक अम्बिकानंद जी ने इसे एक उत्कृष्ट और शुरू से अंत तक बाँधे रखने वाली कृति बताया। पंडित विवेकानंद शर्मा जी सुब्रमनी के इस प्रयोग और भाषा को हास्य-व्यंग्य और सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के सूक्ष्म निरूपण के लिए उपयुक्त मानते हैं।20 दिल्ली विश्वविद्यालय के इंग्लिश के प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी इसको अपने ढंग का पहला मौलिक और अनूठा उपन्यास मानते है उनके ही शब्दों में-

"जनभाषा का बीच-बीच में एक वर्ग विशेष के चरित्रों का कथोपथन में प्रयोग करना या कुछ भदेस शब्दों का बघार लगा कर कथा को देशज आस्वाद देने का प्रयास करना और बात है लेकिन पूरा महाकाव्य उपन्यास ऐसी भाषा में रचा जाना बिलकुल ही अलग बात है और यह चमत्कार सुब्रमनी ने कर दिखाया है। काश कि भारतीय मूल के कुछ अन्य स्वनामधन्य लेखकों ने भी ऐसा ही किया होता जैसे कि वी एस नायपाल या सलमान रुश्दी, तो आज विश्व साहित्य का नक्शा ही कुछ और होता।उत्तर उपनिवेशवाद के कई धुरंधर विद्वान् कई वर्षों से यह मातम मानते आ रहे है कि निम्नवर्गीय व्यक्ति (सबाल्टर्न)बोल नहीं पाता। अत:निम्नवर्गीय जीवन का स्वरचित प्रामाणिक चरित्र चित्रण साहित्य में नहीं मिलता।ये विद्वान् समझते नहीं कि बेचारा निम्नवर्गीय आदमी बोले भी तो अंगरेजी में कैसे बोले। सबाल्टर्न का अपना सच्चा स्वर तो डउका पुराण की फीजी हिन्दी जैसी भाषा में ही मुखरित हो सकता था और हुआ भी है। यह कृति फीजी के ही नहीं भारत के भी साहित्यिक इतिहास में एक असाधारण घटना है और उत्तर उपनिवेशवादी विश्व साहित्य में भी इसका अलग ही महत्त्व व स्थान बनना चाहिए।"21

इस कृति को सूरीनाम में सातवें अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन में भारत सरकार ने सम्मानित किया है। इस उपन्यास के नायक का नाम है फीजी लाल, जो उत्तर उपनिवेश के आम फीजी भारतीय की तस्वीर पाठकों के समक्ष रखता है और इसी आम आदमी के बारे में लिखे गए महाकाव्यात्मक उपन्यास की समीक्षा करते हुए अरुण मिश्र कहते हैं–

“अभिजन के भद्रलोक से दूर आम जन का खुरदरा श्रमशील जीवन भी उतना ही सुंदर और प्रियकर होता बस देखने की दृष्टि होनी चाहिए और यही दृष्टि तो सुब्रमनी के पास है जिससे वे डउकाओं का पुराण ही लिख डालते हैं।“22 जवान फीजी लाल के माध्यम से हम एक समुदाय, उसमें आये बदलाव, शहरीकरण, माइग्रेकाव्यशन, अस्थिरता का दौर, आधुनिक मीडिया, युद्ध के बाद की विभीषिकाएँ सबसे रूबरू होते चलते हैं।'डउका' का अर्थ है धूर्त, मसखरा, सरल, आम आदमी, जिसके होने या न होने से कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं होने वाला है।लेकिन वह है निराला अपने आप में अनोखा। फीजीलाल भले ही अंगूठा-छाप है लेकिन दुनियादारी की भरपूर समझ रखता है। वह खोजी प्रवृति का, लोगों की नीयत को मिनट में भाँप जाने की क्षमता रखता हैं। सुब्रमनी, फीजीलाल के माध्यम से उनके अपने गाँव, फीजी के हर गिरमिटिये की, उसके गाँव की याद ताज़ा कर देते हैं।उसकी खिचडी बोलचाल की स्थानीय भाषा, उपन्यास के चरित्रों के साथ आत्मसात हो जाती है। जैसे रेनू के मैला आँचल को पढ़ते हुए हमें ऐसा लगता है कि हम पुरनिया मेरीगंज पहुँच गए हैं बिलकुल ऐसे ही डउका पुरान पढ़ते समय फीजी के गाँव की रस-गंध आपको सरोकार करने लगती है। विमलेशकांति वर्मा जी अपने लेख फीजीबात में लिखते हैं कि इस उपन्यास की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण उपन्यास का जनभाषा फीजी हिन्दी में लिखा जाना है। फीजी टाइम्स में प्रकाशित अपने आलेख ‘डउका पुराण इन्वेड्स होम्स’ में लारा चेट्टी ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है।23 लेखक फीजीलाल की कहानी से पूरे फीजी भारतीय समुदाय उन सबकी कहानी, विभिन्न घटनाओं, भूमिकाओं, प्रसंगों से पाठक का परिचय करवाता है, जिसे या तो लिखा नहीं गया या भुला दिया गया था।लेकिन उन प्रसंगों को भुलाना इतना आसान नहीं है। वह सबाल्टर्न वर्ग का भोगा हुआ इतिहास है फीजीलाल नायक के माध्यम से यात्रा करते हुए पाठक इस उपन्यास के द्वारा देश और समुदाय में आए बदलावों की सैर भी कर लेता है।24  

डउका पुरान की भाषा हास्य व्यंग्य से भरपूर है। उसकी अधिकतर शब्दावली मुहावरेदार है और वही भाषा है जो लबासा में सुब्रमनी के पिता के समय में बोली जाती थी और लबासा के लोग आज भी उन अधिकतर शब्दों से परिचित हैं। उपन्यास में बहुत से नाम ऐसे हैं, जो युद्ध के बाद के समय में प्रयोग किये जाते थे और आज उनको पढ़ कर फीजी के लोगों के चेहरे पर अनायास ही मुस्कान आ जाती है। ये कुछ नाम हैं जैसे घराऊं, क्ल्लन, झगडू, पैना, कौसा, भागीरथी आदि। कई प्रसंगों में फीजी हिंदी के रचनात्मक प्रयोग किये गए है जिनसे अद्भुत हास्य पैदा होता है। जैसे एक बार गाँव में एक राजनीतिज्ञ वोट माँगने आता है। फीजी हिंदी में वोट को बोट बोलते हुए वह बोट माँगता है तो फीजीलाल अपने पिता से पूछता है कि वह बोट का क्या करेगा? फीजीलाल का पिता कहता है उसे क्या पता, क्या पता उसे बोट में बैठना हो, और करे, जो उसे करना हो। इस तरह एक शब्द के दो अर्थ होने से हास्य पैदा होता है।25 

गिरमिट इतिहास की कथा, भारत से फीजी आना, एक जहाज़ का डूबना- सभी घटनाओं का लेखक वास्तविक वर्णन करता है। फीजीलाल कहता है:

हेर्फोई चौदहवा जहाज रहा जिसमें गिरमिटिया लोग को लाये के इंडिया से फीजी लावा गईस रहा। इसके बाद ई जहाज दुई अउर दफे फीजी आइस। ई जहाज 1510 टन गरु और लोहा के बना पाल वाला जहाज रहा जिसके 1869 में ग्लास्को के जे एल्डरएंड कंपनी मर्चेंट शिपिंग कंपनी ऑफ़ लन्दन खातिर बनाईस रहा। 1898 में हेरफोर्ड के नार्वे के एक कंपनी के बेच देवा गअइस अउर 1907 में ई अर्जेंटीना के नंगीच एक चट्टान पे चढ़ के डूब गईस। 26

सुब्रमनी की फीजी साहित्य को समृद्ध बनाने की आडम्बरहीन एकांत साधना डउका पुरान के बाद उनके दूसरे वृहद उपन्यास फीजी माँ: एक हज़ार की माँ के रूप में सामने आई, जिसकी तुलना 'मदर इंडिया' से की गयी। इस उपन्यास के द्वारा सुब्रमनी ने पाठकों के सामने गिरमिटियों और उनके वंशजों का संसार रचा है। पाठकों के सामने खोया अतीत लाकर खड़ा कर दिया है और ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम उनके जादुई शब्दों के सम्मोहन में बंधे वापस पूर्वजों तक की यात्रा कर रहे हैं। यह उपन्यास इतिहास के दस्तावेज़ों का पुनर्लेखन हैं। लेखक के अनुसार वो दिन लौट कर तो नहीं आ सकते लेकिन उस समय किया श्रम, संघर्ष, भोगी पीड़ा का वर्णन वर्तमान पीढ़ी को बेहतरी का रास्ता तो दिखा ही सकता है। यह वर्तमान का भविष्य का तोहफा है और अतीत को श्रद्धांजलि है। फीजी माँ: एक हजार की माँ को पढ़ने के एक हजार तरीके है। फीजी के माने हुए विद्वान धनेश्वर शर्मा जी कहते हैं जिस प्रकार मार्खेज ने अपने उपन्यास हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिच्यूड में कहा था कि जैसे उस दौर में अनिद्रा की बीमारी प्लेग की तरह फैली थी ठीक उसी तरह से इंग्लिश भाषा ने लोगों के दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया। शुरू में यह सभी को सुविधाजनक और कार्यकुशल लगी। लेकिन जल्द ही लोगों को लगने लगा कि वे अपने अतीत की स्मृतियोंसे दूर हट रहे हैं। अपने भविष्य के सपने नहीं देख पा रहे है। जिस प्रकार मार्खेज का चरित्र अपनी रोज़मर्रा की चीजों के नाम भूल जाता है और उनको अपनी भाषा में लिखने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार सुब्रमनी रोज़मर्रा के शब्द, मुहावरे जिसे बोल सीख कर फीजी भारतीय बच्चा बड़ा हुआ है उन शब्दों, मुहावरों को लिपिबद्ध करना चाहते हैं ताकि आनेवाली पीढ़ी उन्हें भूल न जाए और अपनी जड़ों से जुड़ी रहे।27 जिस प्रकार त्रिनिदाद के भारतवंशी विद्वान श्री जय परसराम अपनी नवागत पुस्तक बियॉन्ड सर्वाइवल में मिट्टी  के चूल्हे की खोज में निकलते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी को रोज़मर्रा की चीजों से अवगत कराया जाए और उनकी यह यात्रा और बहुत से रत्न ढ़ूँढ़ निकलती है,28 उसी प्रकार सुब्रमनी  अपनी स्मृतियों को लोप होने से पहले थाती के रूप में सँजो कर रखना चाहते हैं और इसी कारण उनके अथक प्रयासों से इस वृहद उपन्यास का आविर्भाव हुआ। जहाँ डउका पुराण का फीजीलाल आम फीजी भारतीय व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है वहीं फीजी माँ:एक हजार की माँ की वेदमती आम फीजी भारतीय महिला का प्रतिनिधित्व करती है।

कथा की नायिका वेदमती एक विधवा भिखारी है, जो सुवा के भीड़-भाड़ वाले इलाके में वेदेंत बैंक के बाहर बैठती है। उपन्यास को स्त्री जीवन, सबाल्टर्न इतिहास, मदर इंडिया के ग्लोबल मदर बनने की ओर बढ़ना, गाँव से ग्रामीण जीवन ग़ायब होना, भारतीय संस्कृति का ह्रास, जबरन विस्थापन का डर आदि सभी आयामों से जोड़ कर देखा जा सकता है।29 उपन्यास की भाषा चुटीली भाव-प्रधानता लिए, व्यंग्यात्मक और मुहावरेदार है। पोलटिक, टाओं, हाइब्रिड, ओबासिस, बिजनिस, रिकोडा, मसीन, रिसेच, टीचा, थिएटा आदि इंग्लिश के शब्द उनकी भाषा में घुले मिले है। वेदमती और जॉय की परस्पर बातचीत में वेदमती भावुक हो जाती है जब जॉय उसे फीजी माँ कहकर बुलाती है और उपन्यास का केन्द्रीय भाव भी अनायास ही पाठकों के समक्ष आ जाता है।

जॉय कहती है-
फिल्म औरत के जीवन पे है गरीबी पे नई
फिर भी बेटी हम्मे कहाँ से मिल करियो हमारे पास का है फिल्म में डारे के ?
आप तो फीजी माँ हैं 
हमर तो जईसे काटो खून नई पहिला दफा कोई ई रकम से माँ बोलिस दिल हमर भरी आईस।30 

प्रसिद्ध फीजी लेखक  साहित्यिक आलोचक  विजय मिश्र, सुब्रमनी की पुस्तक की समीक्षा इस प्रकार करते हैं- 

सुब्रमनी के उपन्यास के फीजी हिंदी पाठक हमेशा फीजी भारतीय अनुभवों को संग्रह करने और भावी पीढ़ी को हस्तांतरित करने के लिए सुब्रमनी के ऋणी रहेंगे जो कि समाजशास्त्र और साथ ही कला के जटिल कार्य और उत्तर औपनिवेशिक अनुभवों की सरहदों को धक्का मारते हैं। सुब्रमनी के उपन्यास वीरोचित रचनाएँ हैं जो सबाल्टर्न की चुप्पी को भेदती हुई यह घोषणा करती हुई निकलती है कि मातृभाषा की ऊर्जा महत्त्वपूर्ण है और यह मातृभाषा की शक्ति ही है जिसकी सहायता से उत्तरऔपनिवेशिक अनुभवों ने अपने सच्चे सौन्दर्यबोध और संस्कृति को जिंदा रखा है।31 


सन्दर्भ ग्रन्थ 

  1. नारायण, हितोपदेश, छठा सर्ग। 
  2. Lal, B.V., 2005. Bahut Julum: Reflections on the use of Fiji Hindi.Fijian Studies:A journal of Contemporary Fiji,3(1).
  3. Simpson, S., August 2019. Fiji's awakening by a reclusive, literary giant : Professor Subramani.Fiji Plus.Suva, fiji: Julian Moti QC.
  4. Subramani, 2018. Biodata insert ur profile the university of fiji.[online].
  5. Simpson, S., August 2019. Fiji's awakening by a reclusive, literary giant : Professor Subramani.Fiji Plus.Suva, fiji: Julian Moti Qc
  6. Kanwal, J.S., December 2010. The Hindi Debate.FijiTimes.Sydney: www fijitimes.net.au.
  7. Mandella, N., 2011. Nelson Mandella by Himself : The Authorised Book of Quotations.Nelson Mandella by Himself : The Authorised Book of Quotations.Macmillan.
  8. संपादक, प्रवीण चंद्र, कोई किस्सा बताव:फीजी हिंदी में कुछ कहानी.2018 ब्रिस्बने: क्लार्क एंड मैकाय.
  9. वर्मा, विमलेश कांति,फीजीबात: हिन्दी की एक विदेशी शैली, बहुवचन. 2015 जुलाई-सितम्बर, 46 अंक वर्धा: महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय.
  10. वर्मा, विमलेश कांति , फीजी बात: हिंदी की एक विदेशी शैली बहुवचन. 2015 जुलाई-सितम्बर, 46 अंकवर्धा: महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय.
  11. RNZ, March 2020. Academic Backs Indo Fijian mother tongue over Formal Hindi.Pacific Fiji.New Zealand: Radio Service.
  12. Prasad, R., 2015. Banished and Excluded : The Girmit of Fiji.[online]..
  13. Naidu, R., 2012. Language.Fiji Times.Suva: Fiji Times Limited.
  14. RNZ, March 2020. Academic Backs Indo Fijian mother tongue over Formal Hindi.Pacific Fiji.New Zealand: Radio Service.
  15. संपादक, प्रवीण चंद्र, कोई किस्सा बताव:फीजी हिंदी में कुछ कहानी.2018 ब्रिस्बने: क्लार्क एंड मैकाय.
  16. Long, M., 2018. Girmit Postmemory and Subramani.Journal articles [52],editionNo. 6.
  17. वर्मा,विमलेश कांति , फीजीबात.हिंदी स्वदेश और विदेश में.2018 पृ.365.दिल्ली: प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,
  18. Naidu, R., 2012. Language.Fiji Times.Suva: Fiji Times Limited.
  19. Lal, B.V., 2003. Review of Dauka Puran, by Subramani.The Contemporary Pacific,15(1)
  20. सुब्रमनी ,डउका पुरान .2001दिल्ली : स्टार पब्लिकेशन्स.
  21. सुब्रमनी ,डउका पुरान .2001दिल्ली : स्टार पब्लिकेशन्स.
  22. मिश्र, अरुण. डउका पुरान की समीक्षा, गगनाञ्चल,अक्तूबर -दिसम्बर 2004, पृ.166, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, दिल्ली .
  23. वर्मा, विमलेश कांति।(2018) हिन्दी स्वदेश और विदेश में. पृ 375, प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली. 
  24. Lal, B.V., 2003. Review of Dauka Puran, by Subramani.The Contemporary Pacific,15(1)
  25. Lal, B.V., 2003. Review of Dauka Puran, by Subramani.The Contemporary Pacific,15(1)
  26. सुब्रमनी, डउका पुरान .2001दिल्ली : स्टार पब्लिकेशन्स.
  27. Sharma, D., 2018. Fiji Maa : ABook of Thousand Readings.December.11(1).
  28. Parasram, J., 2017. A Note from the Author.Beyond Survival.Great Britain: Hansib Publications Limited .
  29. Sharma, D., 2018. Fiji Maa : ABook of Thousand Readings.December.11(1).
  30. सुब्रमनी , फीजी माँ: एक हजार की माँ.फीजी माँ: एक हजार की माँ. सुवा: कॉपीराइट सुब्रमनी-2018.
  31. Simpson, S., August 2019. Fiji's awakening by a reclusive, literary giant : Professor Subramani.Fiji Plus.Suva, fiji: Julian Moti Qc

इस विशेषांक में

बात-चीत

साहित्यिक आलेख

कविता

शोध निबन्ध

पुस्तक चर्चा

पुस्तक समीक्षा

स्मृति लेख

ऐतिहासिक

कहानी

लघुकथा

विडिओ

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार
  3. दलित साहित्य
  4. कैनेडा का हिंदी साहित्य
पीछे जाएं