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फीजी के गिरमिट गीत

प्रवासी भारतीयों की संघर्ष कथा के मौखिक दस्तावेज़

 

सन २०१७ गिरमिट प्रथा की समाप्ति की शत वार्षिकी थी। सन १९१७ में संवैधानिक परिधि में गिरमिट प्रथा की समाप्ति हुई थी और विदेश में बसे हुए हज़ारों प्रवासी भारतीय उस प्रवास की नारकीय यातना से मुक्त हुए थे। गिरमिट अनुबंध के अधीन प्रवासी भारतीयों को अपने देश वापस जाने की छूट थी पर जिन भारतीयों ने अपने कठिन परिश्रम से नए देश को रहने योग्य बनाया था, जिसे उन्होंने अपना देश मान लिया था, वहाँ उन्होंने बसने का निर्णय ले लिया था। एक सौ वर्ष तक जिनमें लगभग प्रवासी भारतीयों की तीन पीढ़ियाँ आती हैं, गिरमिट जीवन के अमानवीय अत्याचार सहे, कोलम्बर के द्वारा लांछित और अपमानित हुए पर अपने परिश्रम और निष्ठा से भारतीय आचार-विचार और जीवन मूल्यों में आस्था रखते हुए अपना विकास किया पर पूर्वजों की यातनाओं को भुला नहीं सके। इन यातनाओं की अभिव्यक्ति उनके लोकगीतों में हुई और जो गिरमिट गीत के रूप लोकमानस की अक्षय निधि बन गए। 

गिरमिट शब्द अँग्रेज़ी के ‘एग्रीमेंट’ शब्द का अपभ्रंश रूप है जिसे प्रवासी भारतीय अँग्रेज़ी न जानने के कारण गिरमिट कहते थे। इसी प्रकार ‘कोलम्बर’ शब्द अंग्रेज़ी के ‘कॉल नंबर’ का अपभ्रंश रूप है, सी.एस.आर. कोलोनियल सुगर रिफाइनरी का संक्षिप्त रूप है। ये सारे शब्द गिरमिट गीतों में प्रयुक्त मिलेंगे क्योंकि ये जानमानस के गीत हैं जो सत्ता की भाषा अँग्रेज़ी व डच से अपरिचित थे। इनमें काईबीती – फीजी के मूल निवासियों की भाषा, स्नाग टोंगो, सूरीनाम के मूल निवासियों की भाषा के शब्द मिल गए और हिन्दी के नए भाषा रूपों ने जन्म लिया जिसे फीजी में फीजी बात, सूरीनाम में सरनामी तथा दक्षिण अफ्रीका में नेटाली नाम से जाना गया। इन सभी गिरमिट गीतों में इस नई विकसित हिंदी के सभी रूप मिलेंगे जो उनकी सांस्कृतिक विरासत का आधार बनी। सभी गिरमिट गीत चाहे वे फीजी के हों, सूरीनाम के हों, मॉरीशस या दक्षिण अफ्रीका के हों, सबकी संवेदनाएँ एक ही हैं और सबकी भाषा जनभाषा हिंदी है जो अवधी, भोजपुरी, मैथिली और खड़ीबोली मिश्रित है। ये गिरमिट गीत प्रवासी भारतीयों की सांस्कृतिक विरासत है जो उन्हें अपने पूर्वज भारतीय आजा-आजी से मिली है जिसका वे सम्मान करते हैं, जिससे उन्हें आत्मिक लगाव है और जिसके संरक्षण और जिसकी प्रतिष्ठा के लिए वे सचेष्ट और सजग हैं।

गिरमिट नाम से जाने गए भारतीयों की छवि फीजी की समकालीन वरिष्ठ कवयित्री अमरजीत कौर अपनी एक 'गिरमिट' शीर्षक कविता में किस प्रकार अभिव्यक्त करती हैं, लेखिका की वेदना देखिये –

न हमरा कोई भइया भाभी,
न हमरी कोई बिटिया।
न जर-जोरू, न कोई बहना,
न भेजे कोई चिठिया,
फीजी में जब आये के देखा,
जीवन हो गया मोहरा।
गिर कर भी जो मिटे न लोगो,
उसे कहते हैं गिरमिटिया।
        गिरमिट -अमरजीत कौर 

ये प्रवासी भारतीय जो विदेश में गिरमिट संज्ञा से अभिहित हुए वे छल कपट से ब्रिटिश एजेंट्स द्वारा बहकाकर ले जाए गये थे। देखें एक गिरमिटिया स्त्री अपनी यह भावना किस प्रकार एक लोकगीत में अभिव्यक्त करती है, आरकाटी ने किस प्रकार छलबल से उसे कलकत्ता भेजा, कैसे उससे कागज़ पर अँगूठा लगवाया, कैसे रो-धो कर उसे पाल वाले जहाज़ पर चढ़ा दिया और किस प्रकार वह रोती-धोती स्त्री फीजी पहुँची सबका मार्मिक चित्र एक गिरमिटिया स्त्री खींचती है देखिये - 

भोली हमें देख अरकाटी भरमाया हो,
कलकत्ता पार जाओ पाँच साल रे बिदेसिया।
डीपुआ माँ लाये पकरायो कागदुआ हो,
अंगूठवा लगाए दीना हाय रे बिदेसिया।
पाल के जहाजुआ माँ रोय धोय बैठी हो,
कइसे होई काला पानी पार रे बिदेसिया।
जीउरा डरे घाट क्यों नाहीं आये हो,
बीते दिन कई मास रे बिदेसिया।
आई घाट देखा जब फीजीया के टापुआ हो,
भया मन हमरा उदास रे बिदेसिया॥


सैयां तेरे कारने जल बल हो गई राख,
पत से मैं बेपत भई, पंचन में गई साख।
जो मैं ऐसा जानती फीजी जाए दुःख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती फीजी न जइयो कोय॥

गिरमिट गीत प्रवासी भारतीयों की आशा और निराशा के गीत हैं। इन गीतों में उनके परिश्रम की गन्ध है, इनके संघर्ष का स्वर है और प्रवासी मन की करुण अभिव्यक्ति है। बहुत बड़े-बड़े सपने इन भारतीयों को दिखलाकर बहला-फुसलाकर भारत से हज़ारों मील दूर मारीशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम, गुयाना और फीजी ले जाया गया था किन्तु इतनी मेहनत मज़दूरी के बाद भी आरकाटियों के अमानवीय अत्याचारों से त्रस्त इन प्रवासी भारतीयों का मन कराह उठा। फीजी के एक लोक गीत में अभिव्यक्ति का स्वर देखिये –

खून पसीने से सींचे हम बगिया,
बैठा–बैठा हुकुम चलाए रे बिदेसिया।
फिरंगिया के रजुआ माँ छूटा मोरा देसुवा,
गोरी सरकार चली चाल रे बिदेसिया॥

प्रायः सभी को लगता है कि विदेश तो स्वर्ग है। वहाँ की सुख सुविधाएँ तो हमें अपने देश में मिल ही नहीं सकतीं। ऐसा ही आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले हुआ था जबकि शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार के एजेंट्स भोले-भाले भारतीयों को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाकर इन देशों में लाये थे। भारतीय सदैव से बहुत मेहनती रहे हैं। सबसे पहले ये भारतीय मज़दूर मारीशस ले जाए गए। वहाँ उनकी कार्य कुशलता, कठिन परिश्रम तथा ईमानदारी से प्रभावित होकर और भी मज़दूर भारत से गयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और फीजी भी ले जाए गए। ये भोले- भाले मज़दूर जब इन देशों में पहुँचे तो वहाँ का दृश्य कुछ और ही था। इनको वहाँ पहुँचकर जो पीड़ा हुई, जो निराशा हुई वह लोकगीतों में कितने मार्मिक रूप से व्यक्त हुई है। प्रवासी भारतीयों द्वारा गाये हुए लोकगीत वास्तव में उनके कठिन जीवन के जीवंत इतिहास के प्रामाणिक मौखिक दस्तावेज़ हैं। फीजी में गाये जाने वाले बिदेसिया में इनका दुःख झलकता है।

किसके बताई हम पीर रे बिदेसिया,
काली कोठरिया में बीते नाहीं रतिया
दिन रात बीती हमरी दुःख में उमरिया,
सूखा सब नैनुआ के नीर रे बिदेसिया
किसके बताई हम पीर . . . 

फीजी, मारीशस, सूरीनाम और दक्षिण अफ्रीका आदि सभी देशों में ले जाए गए भारतीय अधिकतर पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के ज़िलों से थे। इसलिए इनके गीत भी मिली-जुली भाषा के गीत हैं अर्थात अवधी, भोजपुरी, बुन्देली और खड़ी बोली आदि का उनमें मिश्रण है। ये भारतीय कितने ही कठिन परिश्रम से थके हुए हों, रात देर तक इकट्ठे होकर अपने देश की छोटी से छोटी वस्तु को भी याद करते और गाते।

लोकगीत मूलतः मानव मन के प्रतिबिम्ब हैं। प्रायः जो बातें कहने में हम संकोच करते हैं या आसानी से कह नहीं पाते वही गीतों में बड़ी सहजता और सुन्दरता से प्रगट हो जाती है। प्रवासी भारतीय अपना सब कुछ छोड़कर स्वर्णिम सुखदायी भविष्य की कामना से विदेशी भूमि पर उतरे और उन्हें वहाँ का जीवन आशा के बिलकुल विपरीत दिखाई दिया तो वे दुखी और निराश हए किन्तु अपनी स्थिति की तुलना उन्होंने राम के वनवास से की। ये भारतीय अपने साथ रामायण की पोथी, कबीर के भजन आदि ले गए थे। गन्ने के खेतों में दिन भर काम करने के बाद थक कर चूर, रात में तारों की छाँव में बैठकर रामायण की कथा करते। सूर, मीरा और कबीर के भजन गाते। भारतीयों की विशेषता रही है कि प्रायः वे हर हाल में रह लेते हैं और हर हाल में जीने का प्रयत्न भी करते हैं। इन प्रवासी भारतीयों को रहने के लिए दी गई कोठरी इतनी छोटी होती थी कि उसमे ठीक से पैर फैलाकर सोना भी कठिन था। वह उनके लिए मात्र रैन बसेरा था। फीजी के एक गिरमिट गीत में इस कोठरी का वर्णन व्यंग्य रूप में उन्हीं के शब्दों में सुनिए–

सब सुख की खान सी.एस.आर. की कोठरिया।
छः फुट चौड़ी आठ फुट लम्बी, 
उसी में धरी है कमाने की कुदरिया।
उसी में सिल और उसी में चूल्हा, 
उसी में धरी है जलाने की लकरिया।
उसी में महल और उसी में दोमहला 
उसी में बनी है सोने की अटरिया॥

प्रवासी भारतीयों ने अपनी निष्ठा और परिश्रम से देश को संपन्न बनाया। इसीलिए जब उन्हें उसी देश में विदेशी कहा जाता है और नीची निगाह से देखा जाता है तो उनका स्वाभिमान जाग उठता है क्योंकि उन्होंने तो इस देश को अपना समझा था इसीलिए वे स्वाभिमानपूर्वक घोषणा करते हैं कि हम यहाँ तीन पीढ़ियों से रह रहे हैं, हमारे पूर्वजों ने खून-पसीना बहाकर इस देश को रहने योग्य बनाया और अब यही हमारा देश है। उनका यह रोष देखिये इस लोकगीत में किस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है। फीजी के राष्ट्रीय कवि पंडित कमला प्रसाद मिश्र देखिये किस प्रकार अपनी मनोवेदना अपनी कविता में प्रगट करते हैं –

धवल सिन्धु तट बैठा मैं अपना मानस बहलाता
फीजी में पैदा होकर भी मैं परदेसी कहलाता
यह है गोरी नीति, मुझे सब भारतीय अब भी कहते
यद्यपि तन-मन-धन से मेरा फीजी से ही है नाता
         क्या मैं परदेसी हूँ -कमला प्रसाद मिश्र

लोकगीतों में व्यक्ति की विभिन्न मानसिक दशाओं का बड़ा सहज और उन्मुक्त चित्रण है। यह चित्रण कहीं हास–परिहास तो कहीं व्यंग्य का रूप ले लेता है। प्रवासी भारतीयों के लोकगीतों में केवल उनकी यातनाओं और वेदनाओं का वर्णन ही नहीं है बल्कि उनमें जीवन के स्वस्थ हास–परिहास का रूप भी देखने को मिलता है। प्रस्तुत गीत में एक भाभी अपनी ननद से मजाक कर रही है। यह गीत फीजी में रचा गया है इसलिए इसमे वहाँ के स्थानीय शब्द काईबीती ऊतो और नंगोना आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है –

ननदी, तुम पानी भरन मत जाना
नदिया किनारे कईबीती दुकनिया, ऊतो दिखाय ननदी लै जइहै,
ननदी तुम पानी भरन मत जाना
नदिया किनारे पंजाबी दुकनिया, नंगोना पियाये,ननदी लै जइहै,
ननदी तुम पानी भरन मत जाना॥

गिरमिट गीतों में मानवीय जनजीवन के प्रायः सभी प्रसंगों को लोकगीत की शैली में व्यक्त किया गया है। जिस प्रकार भारत में होली में फाग, फगुआ, रसिया आदि होते हैं वैसी ही गीत फीजी, मारीशस और सूरीनाम आदि देशों में गाये जाते हैं, केवल वहाँ के कुछ स्थानीय शब्द उसमें जोड़ दिए जाते हैं। इसी प्रकार पारिवारिक संस्कारों के गीत भी समय-समय पर गाये जाते हैं।

भारतीय समाज में नारी उत्पीड़न एक ऐतिहासिक सत्य है। विभिन्न रूपों में नारी को सताना, विवाह के बाद बहू को मैके न भेजना, उसे उसके घर वालों से न मिलने देना यहाँ तक कि पत्र-व्यवहार तक न करने देना आदि ऐसी ही समस्याएँ हैं जो चिरकाल से चली आ रही हैं। यही नहीं संभवतः दहेज़ प्रथा भी उतनी ही प्रचलित रही होगी तभी तो लेन-देन के झगड़े की बात लोकगीतों में दिखती है। नारी की यह स्थिति भी आपको फीजी के गिरमिट गीतों में दिखेगी –

बिटिया जौने दिना से बिदा भई महतारी से,
ना आई ससुरारी से, जी।
घर माँ लेंन - देंन का रगड़ा,
होई गवा दोनों घर माँ झगड़ा।
बिटिया सर दे मारी घर की चार दीवारी से,
ना आई ससुरारी से, जी।

प्रवास विकास की भित्ति है। एक पति अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर रोज़गार की तलाश में गाँव से शहर चला जाता है। उसकी यात्रा रेलगाड़ी से होती है। पत्नी सोचती है कि रेलगाड़ी तो जैसे उसकी सौत हो गई है जो उसे धन का आकर्षण दिखाकर अपने पति से अलग कर देती है। पत्नी मन में सोचती है –

रेलिया होय गई मोर सवतिया, पिया के लाद लेई गई हो।
रेलिया ना बैरी जहजवा ना बैरी, बैरी ऊ पइसवै हो॥

नगर गया पति और भी बड़े अवसरों की खोज में नगर से महानगर चला जाता है। महानगर में रहकर उसे अपना उज्जवल भविष्य विदेश में उपलब्ध रोज़गार के अवसरों में दिखता है। वह प्रयत्न करता है और आकाश की ऊचाइयों को छूने के लिए विदेश चला जाता है। धन, मान, यश और कीर्ति उसे अपना छोटा सा गाँव छोड़कर देश विदेश में भटकाते रहते हैं और वहाँ की संस्कृति और सभ्यता के अनुकूल रमने की कोशिश तो वह करता है किन्तु उसे अपना देश अपने बाल-बच्चों और पत्नी की याद आती है। वह परिवार, परिवेश और देश से ऐसा जुड़ा हुआ है कि विदेश में रहते हुए भी वह भावना के स्तर पर अपने देश से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करता है। वह जब कभी आत्ममंथन करता है तो उसे लगता है –

   रोटी कारन जाल में फँस पखेरू आये,
   रोटी कारन आदमी लाखों कष्ट उठाये।
   रोटी कारन छोड़कर कुटुंब देस परिवार,
   लाख कोस जाकर बसे रोटी ढूँढ़नहार। 

फीजी, सूरीनाम, मारीशस, तथा दक्षिण अफ्रीका के गिरमिट गीत इन देशों में बसे हुए भारतीयों के गिरमिट काल की संघर्ष कथा और शारीरिक तथा मानसिक व्यथा के प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं जिनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व तो है ही, उनका मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय महत्त्व भी है जो गंभीर अध्ययन और अनुसंधान की अपेक्षा रखता है। गिरमिट जीवन की कष्टमय व्यथा की कथा किस रूप में फीजी का लोक गीतकार शब्दबद्ध करता है –

कुदारी, कुराबाल दीना हथुआ माँ हमारे हो
घाम माँ पसीनुआ बहाए रे बिदेसिया।
खेतुआअ माँ तास जब देवे कुलाम्बरा ही
मार मार हुकुम चलाये रे बिदेसिया॥

आप्रवासन के कष्ट और विदेश में प्रवासी भारतीयों ने किस प्रकार अपने जीवन मूल्यों को, भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए देश के नव निर्माण में सहयोग दिया उसके ये गिरमिट गीत निर्मल दर्पण भी हैं।

क्यों टैक्स भरें सरकार को हम सभ्य देश के वासी।
इह सरकार है अत्याचारी करती गोरों की रखवारी॥
झूठे वादों पर हम आये, छोड़ कुटुम्ब परिवार को
हम सभ्य देश के वासी।
भाई फीजी में गम खाना, बा बन गया कोर्ट, लौतोका बन गया थाना
संभल के चलो आजकल, सूवा है जेहलखाना॥

फ़ीजी को जिसे कभी रमणीक द्वीप कहा गया तो सूरीनाम को कभी ‘सिरी राम का देश’ और मारीशस को ‘मारीच देश’ कहा गया, जहाँ सुख, शान्ति और वैभव का सपना दिखाकर ले जाया गया, वही वह नरकतुल्य बना जहाँ से वापस लौटना संभव न था। वह समय कितनी निराशा, व्यथा और संकट का रहा होगा इसका जीवंत स्वरूप केवल गिरमिट गीतों में ही दिखता है।

ये विविध रंगों में रँगे गिरमिट गीत प्रवासी भारतीयों के गिरमिट जीवन की निश्छल अभिव्यक्ति हैं। इनकी खोज और इनका संरक्षण इसलिए आवश्यक है कि ये प्रामाणिक मौखिक दस्तावेज़ हैं उस पुरानी गिरमिट संस्कृति की जिसने सम्पूर्ण विश्व में भारतीयों को पहुँचा दिया और जिन्होंने लगभग एक शताब्दी तक अमानवीय यंत्रणाएँ सहकर भी अपनी संस्कृति, अपनी भाषा अपने आचार-विचार और जीवन मूल्यों को विदेश की कठिन परिस्थितियों में भी सुरक्षित रखा और नए अपनाए हुए देश को अपनाकर उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे आज वे उन देशों के शिक्षित, सम्मानित और समृद्ध नागरिक के रूप में जाने गए।

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