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फीजी में रामायण का सांस्कृतिक प्रभाव

विदेशों में भारतवंशियों की प्रवासन की प्रक्रिया के कारण आज रामायण महाकाव्य का सांस्कृतिक महत्व और प्रभाव विश्व में विभिन्न कथाओं के माध्यम से फैला हुआ है। प्रवासी भारतीयों ने एक ओर जहाँ विदेश को अपनी कर्मभूमि बनाया तो वहीं हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति की ध्वजा भी लहराई। भारत से इतर देश जैसे फीजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, कैनाडा आदि में अपनी-अपनी रामायण है, अपनी-अपनी कथाएँ हैं और अपने-अपने राम भी हैं। यह लेख फीजी में गोस्वामी तुलसीदास जी की रामायण का सांस्कृतिक प्रभाव और परंपरा पर आधारित है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बिछड़े इन गिरमिटिया मजदूरों ने अपना देश तो त्यागा परन्तु अपनी भाषिक परंपरा और सांस्कृतिक संपत्ति को कठिन काल में भी कायम रखा। भारतीय संस्कृति के ये महान साधक अपने स्वदेश की मिट्टी की महक और उर्जा अभी भी अपने माथे पर संजोए हुए हैं, और विदेशी परिवेश में राम नाम की माला जप रहे हैं।

रामायण तो सम्पूर्ण जगत में मानवीय जीवन को लय देने वाली शब्द गंगा है। यह मानव जीवन में मर्यादित आदर्शों को रोपने वाला आधार ग्रंथ है। स्वयं गोस्वामी तुलसीदास काव्य प्रयोजन के संबंध में कहते हैं:- “कीरति भनति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।” आज तुलसी कृत रामचरितमानस, रामायण का पर्याय बन गई है और हितकारक रचना होने के कारण विश्व प्रसिद्ध भी हुई है। गोस्वामी तुलसीदास ने न केवल राम भक्ति को ही अपनी कविता का उद्देश्य बनाया अपितु समसामायिक राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के अनुरूप श्री राम के आदर्शों को दर्शाया।

फीजी में तुलसी की ‘रामचरितमानस’ भारतीय संस्कृति का परम द्योतक है। यहाँ बड़े आदर और श्रद्धा से रामकथा पढ़ी जाती है और तुलसी के कवित्व का आनन्द उठाया जाता है। भारत में आध्यात्मिक समृद्धि के लिए इसका पठन होता है पर फीजी में इसका प्रयोग मान, सम्मान, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक जीवन के आधार स्वरूप होता है। यहाँ के लोगों के लिए मानस, कुरान, बाइबल की तरह है जो उनके सामाजिक जीवन का आधार है। मानस के द्वारा वे नियम, कानून, मर्यादाएँ, मूल्य, रीति-रिवाज़ को मानते हैं। इतना ही नहीं फीजी में अंतरर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन का आयोजन हुआ। अयोध्या से राम-लीला के दल को बुलाया गया, जिसे देखने हज़ारों लोग आए। हिन्दी भारतीय एकता का सूत्रधार है लेकिन फीजी में भी हिन्दी जीवन्त भाषा के रूप में प्रयोग की जाती है। यहाँ के गाँवों, बाज़ारों में हिन्दी का बोलबाला है। इनकी हिन्दी में रुचि का एकमात्र कारण ‘रामायण’ है। यहाँ के लोग आरती के रूप में ’ओम जय जगदीश हरे’ नहीं बल्कि रामायण की आरती गाते हैं इतना ही नहीं, कोर्ट में शपथ के लिए हिन्दू रामायण का उपयोग करते हैं। वर्ष 2000 में फीजी के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री महेन्द्र चौधरी जी ने रामायण पर हाथ रखकर प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इस प्रकार फीजी की रामायण के प्रति आस्था को देख पता चल जाता है कि यह विश्व का सबसे लोकप्रिय काव्य है। भारत की भाँति विदेशों में मानस को बाँचा और उस पर आस्था रखी जाती है। यह इस बात का संकेत है कि विदेशों में भी मानस लोकमंगल की कामना से उपयुक्त की जाती है। महाभारत और रामायण भारतीय संस्कारों, मान्यताओं का मार्गदर्शक है ।

फीजी द्वीप ऑस्ट्रेलिया के पूर्व में और न्यूज़ीलैण्ड के उत्तर में स्थित है। उल्लेख करने योग्य यह बात भी है कि फीजी ही वह देश है जहाँ सूरज की पहली किरण पड़ती है क्योंकि इंटरनेशनल डेटलाइन फीजी के तवयूनी द्वीप से होकर गुजरती है। विद्वानों का यह भी मानना है कि फीजी ही वह रमणीक द्वीप है जहाँ श्री कृष्ण ने कालिया नाग को भेजा था। शर्तबंदी प्रथा के आरंभिक काल में अधिकांश गिरमिटिया मजदूर बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की ओर से कठिन परिस्थितियों में आए थे। किंतु, इनमें से कुछ मजदूर अपनी पोटली में बाँधकर तुलसी की रामायण, सूर के पद, कबीर के भजन, आल्हा की तान के साथ फीजी पहुँचे। इन पुस्तकों के पहुँचने से भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि राम, कृष्ण की स्मृति इन मजदूरों के संस्कारों में बँधी थी। जिसके फलस्वरूप पुस्तकों के अभाव होते हुए भी स्मृति के सहारे इन महान ग्रंथों और उनके महानायकों ने उन्हें संकट के समय में अटूट धैर्य, विश्वास और संघर्ष करने की सतत प्रेरणा प्रदान की। गिरमिट काल में पराजय और निराशा की चरम स्थितियों में साहस और संतावना देने के अलावा “गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस भाषा, धर्म, संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करने वाली प्रहरी है।” यहाँ सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा ऑफ फीजी के मार्गदर्शन में 2000 से अधिक रामायण मण्डलियाँ हैं, जिनके माध्यम से रामकथा तथा पारंपरिक त्योहार जैसे होली, राम नवमी , महा-शिवरात्रि, नवरात्रि, दीपावली आदि पर्वों को उत्साह के साथ मनाया जाता है।

सालों से फीजी में हर मंगलवार को रामायण मण्डलियों द्वारा नियमित रूप से रामायण पाठ करने की परंपरा चली आ रही है। श्री विश्वास सपकल, भूतपूर्व भारतीय उच्चायुक्त –फीजी, रामायण परंपरा पर अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-“साप्ताहिक रूप से हजारों स्थानों पर रामायण का पाठ होता है। ऐसी जीवंत परंपरा किसी भी देश में नहीं मिलेगी ...। यहाँ लगभग 2000 से अधिक रामायण मंडलियाँ हैं, प्रारम्भ में स्कूल और शिक्षा संस्थाओं की स्थापना इन्हीं मंडलियों के माध्यम से हुई हैं।” तुलसीदास की रामचरित मानस का गायन-पठन, भजन-कीर्तन, ढोलक, झांझ, मंजीरे के साथ होता है जो विशेषतः लोक रीतियों को पुष्ट करता हुआ उनका संरक्षण और संवर्धन करता आ रहा है। 

धार्मिक पर्वों और उत्सवों की अभिवृद्धि के साथ-साथ, फीजी के अनेक इलाकों में रामलीला का भी आयोजन किया जाता है। फीजी का लम्बासा शहर रामलीला मंचन के लिए प्रसिद्ध है। लम्बासा शहर में ‘बुलिलेका रामलीला मंदिर’ पिछले 116 वर्षों से रामलीला का मंचन मंदिर के मैदान में करता आ रहा है। श्री राम के प्रति अटूट श्रद्धा के कारण फीजी के अन्य शहरों से लोग आकर दस दिनों के इस उत्सव में भाग लेते हैं और रामायण की कथा, चौपाइयाँ, नाट्य कला, गीत-संगीत, अभिनय आदि का भरपूर आनंद उठाते हैं। रामायण के मंचन के दौरान दर्शक कलाकारों में अपने राम-सीता के चहरे को श्रद्धा और आस्था से निहारते हैं, और अपने जीवन में उनके आदर्शों को ढ़ालने का प्रयास करते हैं। इस परंपरा को बल देने के लिए 2016 में अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मलेन का सफल आयोजन आई.सी.सी.आर द्वारा फीजी की राजधानी सूवा में किया गया।

गिरमिटिया देश जैसे फीजी में रामायण केवल धर्म भीरू लोगों की आस्था का ग्रंथ नहीं रहा है, बल्कि गुलामी से लड़ने का अस्त्र भी बना है।“दिनभर गोरे ओवरसियर कोलम्बरों, सरदारों के कोड़ो और गालियों की बौछारों के नीचे ये गिरमिटिया मज़दूर कठिन परिश्रम करते थे और रात में अपनी कुली लेन के आसपास इकट्ठे होकर रामायण की चौपाइयाँ गाकर दिनभर की थकान उतारते थे।” गिरमिटकाल का समय इन मज़दूरों के लिए राम वनवास जैसा ही था। वस्तुतः राम का वनवास उनके लिए कथा प्रसंग न होकर यथार्थ प्रतीत होता था। राम के वनवास के पीछे पिता की आज्ञा और रघुकुल की रीत का गौरवशाली पक्ष था लेकिन इन मज़दूरों के वनवास के पीछे विवशता, संघर्ष और गरीबी थी जो इन्हें सात समुद्र पार एक अनजान देश फीजी ले आई थी। वतन से छूटे और तन से टूटे हुए इन लोगों का मन नहीं टूट सका तो केवल तुलसी रामायण के प्रताप से।‘रामायण सुर तरु की छायाः दुख भय दूर निकट जो आया’- यह चौपाई सुनकर वे अपने दुखों को भूलकर रामायण महारानी की कथाओं में डूब जाते। 

कहा जाता है कि शब्द ब्रह्म होता है, जिसे कवि श्रेष्ठ गोस्वामी तुलसीदास ने सिद्ध कर दिया। तुलसीदास ने जो लिखा वह ब्रह्मस्वरूप हो गया और जिस कागज पर लिखा वह पूज्यणीय हो गया। रामायण महारानी की जय-जयकार गिरमिटकाल से चली आ रही है। यह उतनी ही पू्ज्यणीय है जितने उनके आराध्य राम। फीजी के राष्टकवि पं. कमला प्रसाद की कविता का यह अंश गिरमिटिया मजदूरों की आस्था को दर्शाता है- “कोई रामायण बाँच रहा, कोई लेकर सत्यनारायण आया। खूब किया सम्मान कोई अनजान जो आँगन आया।।” कवि राघवानंद शर्मा भी रामायण के महत्व को इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करते हैं –

 “हर गाँव में रामायण की गूँज सुनाना                           
घर-घर पे हनुमान के झंडे फहराना                               
 भारतीयों का शान से भारतीय कहना                                 
 फख़र से हर कौम में अपने सर को उठाना                        
शायद हमारे नसीब में ये न होते                                           
अगर जड़ मजबूती से जमाए न होते॥”

 वहीं फीजी के हिन्दी कवि जोगिंद्र सिंह केवल कविता में पौराणिक संदर्भ प्रयुक्त करते हैं। इससे वर्तमान स्थितियों को नई चमक मिला दी गई है। यथा कवि जोगिंदर सिंह केवल अपनी एक लम्बी कविता में लिखते हैं:

"आ तुलसीदास तू, छेड़ अनोखा गायन
इन रामों की आज फिर, लिख नई रामायण
तेरे राम को मिला था, चौदह वर्ष वनवास
रामचरित मानस लिख दिया, बन कर उनका दास
अपने रामों को बीत गए, सौ से ऊपर साल
फिर भी भटकन भाग्य में, कैसी समय की चाल....."

मेरा भी बचपन रामचरितमानस की छवनी के नीचे गुजरा। मैं फीजी के नांदी शहर में तोगो गाँव की रहने वाली हूँ। कई वर्षों से तोगो भारतीय प्राइमरी स्कूल में तुलसी की रामायण पाठ की अटूट परंपरा चली आ रही है। हम कक्षा छ: से कक्षा आठ के बच्चे हर मंगलवार की सुबह आठ बजे से लेकर नौ बजे तक सुमिरन, रामायण की एक चौपाई, विसर्जन तथा भजन-कीर्तन, ढोल, झांझ, मंजीरे के साथ गाते थे। इसका मूल लक्ष्य था, युवाओं को अपनी सांस्कृतिक पहचान और मातृभाषा हिंदी भाषा को कायम रखने के काबिल बनाना तथा खुद को राम जैसा बनाना। भविष्य में यही बच्चे गाँव की रामायण मंडलियों के सदस्य बनकर रामायण की परंपरा को आगे बढ़ाएँगे। इसके अतिरिक्त हमारे परिवार की भी एक छोटी सी रामायण मंडली थी, जिसका नाम ‘दीपक सत्संग रामायण मंडली’ थी। हमारा पूरा परिवार, मेरे दादा, काका, पिता, भाई-बहन सक्रिय रूप से इसका संचालन करते थे। नियमित रूप से हर मंगलवार की रात रामायण पाठ और कीर्तन के बाद, दादी के हाथों का हलवा-पंजरी सभी को पसन्द था। इस प्रकार रामायण हमारे परिवार को एक दूसरे के नज़दीक लाने का सेतु भी बना। पारिवारिक संगठन, एकता और प्रेम की भावना ने हम भारतीयों को एक दूसरे से जोड़ रखा है। आज परिवार के सदस्य एक दूसरे से दूर भले हैं पर प्यार और सम्मान अभी भी बना हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास बालकांड में कहते हैं:-“बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।। सतसंगत मृद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला।।” अर्थात् सत्संग बिना विवेक नहीं होता और राम की कृपा बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। फीजी के शहरों और गाँवों में राम के नाम पर कई सत्संग होते हैं जिनके द्वारा मानव जीनव की सौन्दर्य शक्ति, सत्य आदि विषयों पर दार्शनिक विचार-विमर्श किए जाते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने संस्कृत का मोह त्यागकर जनभाषा में ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य की रचना की क्योंकि उनका प्रयोजन जनहित था। उन्होंने ऐसे काव्य का संकल्प लिया जिसमें ‘सुरसरि सम सब कहँ हित होई’ लोकमंगल की भावना निहित है तथा भाषा के संबंध में बहुत ही व्यापक और उदार दृष्टिकोण अपनाया है। ब्रज, अवधी आदि प्रमुख बोलियों में काव्य रचना उनकी लोकहितैषणा का प्रमाण है और विभिन्न बोलियों के अतिरिक्त अरबी, फारसी आदि विदेशी शब्दों का ग्रहण उनकी प्रगतिशीलता का परिचायक है। गोस्वामी तुलसीदास के भाषा संबंधी विचारों का प्रभाव सुब्रमनी जी के उपन्यास ‘डउका पुरान’ में परिलक्षित हुए हैं। ‘डउका पुरान’ में सुब्रमनी जी ने फीजी के भारतवंशियों की जनभाषा ‘फीजी हिंदी’ को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। भाषा के साथ ही सुब्रमनी जी ने उपन्यास के शिल्पविधान में भी गोस्वामी तुलसीदास जी की ‘रामचरित मानस’ का समन्वय किया है। जिस प्रकार ‘रामचरित मानस’ की कथा सात कांडों में विभाजित है, उसी प्रकार ‘डउका पुरान’ की कथावस्तु को सुब्रमनी जी ने सात अध्यायों में विभक्त किया है। भाषा और संस्कृति का गहरा सम्बन्ध है। रामचरित मानस हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य की एक अमूल्य निधि है। भारत से लगभग 12 हजार किलोमीटर की दूरी पर स्थित फीजी में हिंदी को विकसित करने में तुलसी की धार्मिक सांस्कृतिक ग्रन्थ रामचरित मानस ने अहम् भूमिका निभाई है। 

रामचरित मानस के प्रभाव के कारण फीजी में पूरे गिरमिट काल से अब तक हिंदी भाषा साँस ले रही है और अब तक प्रवाहित है। तुलसी की रामचरितमानस का प्रभाव फीजी हिंदी भाषा पर पूर्ण रूप से देखा जा सकता है। जिस प्रकार तुलसी के काव्य में जगह-जगह पर अवधी और ब्रजभाषा का अनूठा मिश्रण है उसी तरह फीजी हिंदी में प्रचुर मात्रा में अवधी शब्द मिलते हैं। फीजी हिंदी भाषा न तो पूर्णत: अवधी है और न ही भोजपुरी। यह मुख्य रूप से अवधी और हिन्दी की अन्य बोलियों से व्युत्पन्न है, जिसमें अन्य भारतीय भाषाओं का भी समावेश है। ‘डउका पुरान’ फीजी हिन्दी साहित्य की एक ऐतिहासिक तथा महत्वपूर्ण कृति है जिसका प्रकाशन स्टार पब्लिकेशन, नई दिल्ली द्वारा सन् 2001 में हुआ। इस सृजनात्मक रचना के लिए प्रो. सुबमनी को सन् 2003 में सूरीनाम में हुए सातवें विश्व हिन्दी सम्मलेन के अंतर्गत सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इस उपन्यास में लेखक ने अपने पूर्वजों की भाषा, जो उनकी भी मातृभाषा है, उसे ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया क्योंकि इसपर उनका पूर्ण अधिकार रहा है। प्रो. सुब्रमनी तुलसी की रामचरित मानस को अपनी सृजन स्त्रोत और राम को अपने प्रथम नायक मानते हैं। वे फीजी को ‘रामचरित मानस का देश’ कहकर संबोधित करते हैं और अपने धाम लम्बासा को अयोध्या मानते हैं। ऐसे ही भारतीय समाज की प्रेरणा व सृजन शक्ति का स्त्रोत तुलसी की रामचरितमानस बनी हुई है।

संस्कृति एक ऐसी जटिल सम्पूर्णता है जिसके अंतर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, रीति-रिवाज और मनुष्य की वे अन्य सब क्षमताएँ सम्मिलित होती हैं जिन्हें उसने समाज के सदस्य के रूप में प्राप्त किया है। रामचरित मानस का भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान है। रामचरित मानस में नायक राम मर्यादा पुरुषोत्तम तथा एक महाशक्ति के रूप में दर्शाये गए हैं। रामचरित मानस एक चरित्र-काव्य है, जिसमें राम का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। राम किसी के लिए भगवान है तो किसी के लिए आदर्श शासक, आदर्श मित्र, आदर्श भाई, आदर्श मानव है। इस तरह राम वह मापन है जिससे फीजी के लोग खुद का मूल्यांकन करते हुए अपने जीवन के दोषों को मिटाते हैं और खुद को समाज में रहने योग्य बनाते हैं। शादी-विवाह के अवसर पर वर-वधु को राम-सीता की उपमा दी जाती है और उन्हें राम-सीता की तरह मर्यादित जीवन व्यतीत करने की सीख दी जाती है। 

21 वीं सदी के वर्तमान समय के बदलते पारिवारिक, सामाजिक, परिवेश में रामचरित मानस का महत्व और भी अधिक हो गया है। आध्यात्मिक चिंतन के इस गूढ़ रहस्य से शायद सभी लोग परिचित न हो परन्तु धार्मिक एकता के द्वारा ‘वसुधैव कुटम्बकम’ की छाप फीजी के गाँवों और शहर की गलियों में दिखाई देती है। भले ही रस्मों-रिवाजों में कुछ भिन्नता है परन्तु संस्कृति एक है, और वह है भारतीय संस्कृत। अतः राम के नाम ने फीजी के प्रवासी भारतीयों को रामायण मंडलियों के माध्यम से जोड़ा है । हमारी भारतीय संस्कृति यही सिखलाती है कि पूरा विश्व एक परिवार है और हम सब में एकता होनी चाहिए। यही कारण है कि फीजी सही मायने में बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक देश कहलाता है क्योंकि यहाँ फीजीयन और भारतीय संस्कृति का अद्भुत संगम है। 

आज मानव तेज़ी से आधुनिक आकर्षण की ओर खिंच रहा है और अपनी सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों से दूर हो रहा है तो वहीं फीजी के प्रवासी भारतीय अपनी सांस्कृतिक पहचान और हिंदी भाषा की सुरक्षा तथा सम्मान के लिए सजग हैं। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि फीजी में हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति प्रगति के पथ पर अग्रसर है जिसका मूल कारण रामचरित मानस है। तुलसी की रामायण की परंपरा का बीज जो हमारे पूर्वजों ने बोया था वह अब एक विशाल वृक्ष बन गया है, जिसकी छाया में भारतीय संस्कृति समृद्धि पा रही है तथा भावी पीढ़ी में भारतीयता झलक रही है। विश्व के अन्य देशों की भाँति यहाँ भी तुलसी की रामायण का अंतरर्राष्ट्रीय महत्व हैं और चारों तरफ भारतीय संस्कृति की ध्वजा लहरा रही है।

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