हरिजन ज़हर
कविता | प्रीति गोविंदराजगाँव में क़स्बे वही थे, पृथक स्कूल नये थे
ठाकुर, पंडित के हम पर प्रभाव बड़े थे,
उनकी घृणित अधिकार दृष्टि से झुलस कर
उनके खेत में श्रम दे, भिक्षा भर खाते थे।
मैं उन अनपढ़ आँखों का अक्षर बन
अपने वर्ग के आत्मसम्मान के लिए
सरकारी विद्यालय में तत्पर व आशान्वित
ज्ञान का स्वप्न, पीयूष-पौध मन में लिए!
शिक्षा-दीप हाथ में, मशाल मन में
दौड़ से पहले चलना सीखना था,
संस्कार में थीं, दासता की बेड़ियाँ
सदियों का अदृश्य मूक भेद था।
अध्यापक ने कक्षा में साथ दिया
अवर्ण-सवर्ण का नया मेल दिखाया,
मैं तुम्हारे पास ही बैठ, बंधु बना
तुम संग, संशय अपना पिघलता पाया।
मैं दीर्घ यात्रा का पूर्वाभास लेकर
लिख रहा था नव-कथा धाराओं पर
सौम्य, अडिग, बिना हताशा के
धैर्य नदी बन कठोर चट्टानों पर!
शिक्षा मुकुट शीश पर सजा
एक दिन लगन, नगर तक ले चला
नयी थी आबो-हवा, बहने लगा
उचित, सहज सब लगने लगा।
फिर नगर से महानगर पहुँचा
वातावरण परिष्कृत, सभ्य शिक्षित
अधिकार मानो जन्म से मेरा ही था
तिरस्कार कैसा, निर्वाह था प्रतिष्ठित!
अकस्मात विदेश का मिला न्यौता
जिज्ञासावश, पुनः मैं गतिशील
कण-कण में दिखा मानवाधिकार
श्रम, स्वच्छता सर्वत्र गौरवशील!
यहाँ भारतीय संस्कृति विराजी थी
कुछ वासुदेव कुटुंब का रखते विचार
मंदिरों में वेद-पुराण का ज्ञान,
कुछ संस्थाएँ जिनका जाति थी आधार!
अब तक की असमान सतह को
धीरे-धीरे मैंने ने समतल था किया
आप इतने दूर, पर पास रूढ़ियों के
इस निष्ठुरता को कैसे बचा लिया?
नयी पीढ़ी के बच्चे हमारे,
ये भेद संभव है, कभी माने न,
किन्तु शिक्षा ने सबको समता
के पाठ, हृदय में उतरवाये न!
श्वेत-अश्वेत का अंतर
आँखों को देता तो है दिखायी,
विदेशी समझ क्या पाएँगे
एक-से दिखने वालों में
किसने ये ज़हर मिलाया?
इस विशेषांक में
कहानी
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