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जाति और वर्ण, इतिहास पर पर्दा क्यों?

जाति-व्यवस्था और जातीयता के संघर्ष वर्तमान भारत के लिए चुनौती है। इसे लेकर इतिहासकार चाहे पुराणों, स्मृतियों और महाकाव्यों के बारे में कोई भी राय रखें पर भारतीय जनमानस और सत्ता वर्ग आज भी उन्हीं के अनुसार व्यवहार करता दिखाई देता है। समाज में निरन्तर बढ़ती जातीय संघर्ष की घटनाएँ, जाति के आधार पर होने वाला उत्पीड़न इस बात का सबूत हैं। भारत में जाति-व्यवस्था के इतिहास और इसके विकास क्रम को समझना हमारे वर्तमान के लिए बहुत ज़रूरी है वरना हम अपने वर्तमान में बढ़ते इस जातीय संघर्ष को नहीं रोक पाएँगे। यह एक बड़ी चुनौती भी है। इतिहासकारों को इस मुद्दे को अपने हाथ में लेना ही होगा और जाति और वर्ण के वर्तमान और इतिहास को उसके वास्तविक रूप में ढूँढ़ कर निकालना ही होगा। जाति और वर्ण जो प्राय: एक ही अर्थ के द्योतक माने जाते हैं पर ये एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। यहाँ तक कि इनमें कोई रिश्ता भी नहीं है। वर्ण संबंधी नियमों को जातियों पर आरोपित करने के कारण हमारे वर्तमान में जातियों के बीच वैमनस्यपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ है। वर्ण और जाति का आपसी संबंध भारत में जाति के प्रश्न को समझने के लिए बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में पिछले दिनों तीन किताबें मेरे देखने में आईं। पहली प्रसिद्ध समाजशास्त्री भरत झुनझुनवाला की ‘वर्ण व्यवस्था’, दूसरी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई एक फ़्रेंच लेखक एमिली सेनार्ट (Emili Senart) की ‘कास्ट इन इंडिया’, तथा तीसरी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित डॉ. डी.आर गाडगिल  की लिखी पुस्तक  ‘द इंडस्ट्रियल एवोलूशन ऑफ़ इंडिया इन रिसेन्ट टाइमस् (1860-1939)।

भरत झुनझुनवाला अपनी किताब ‘वर्ण व्यवस्था’ में जाति और वर्ण को अलग-अलग रखते हुए कहते तो हैं कि “जाति का संबंध व्यक्ति की जीविका अथवा पेशे से है जबकि वर्ण उसके अंतकरण में स्थित इच्छाओं से निर्धारित होता है।“ (पेज 14) पर किसी व्यक्ति की अंतकरण की उस तथाकथित इच्छा का निर्माण कैसे होता है? उसका आधार क्या है? इस बारे में वे कहते हैं कि “विरासत से व्यक्ति की आंतरिक वासनाएँ निर्धारित हो जाती हैं।“ (पेज 18) और यह विरासत उसके पैतृक व्यवसाय का ही दूसरा नाम है। “दीर्घकाल में पेशों से वासना  (अंतकरण की इच्छा) का निर्धारण होता है... “ (पेज 21) कुल मिलाकर भरत झुनझुनवाला यह कहना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति उसी व्यवसाय को अपनाना चाहिए जिसे उसके पूर्वज परंपरा से करते आ रहे हैं क्योकि उसके भीतर उसी व्यवसाय से संबंधित वासना का निर्माण हो चुका होता है। वे मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था व्यक्ति को पैतृक वासनाओं की सन्तुष्टि में सहायता करती है और नई वासनाओं को अर्जित करने से बचाती है। (वास्तव में रोकती है।) (पेज 17) व्यक्ति को उसके पैतृक पेशे मे लॉक कर देने से उसका विकास अवश्य ही अवरुद्ध हुआ परन्तु सामाजिक स्थिरता बनी रही। यही कारण है कि भारतीय समाज हज़ारों वर्षों तक फलता-फूलता रहा यद्यपि उसमें व्यक्ति को घुटन महसूस होती रही। (वही पेज)  यहाँ भरत झुनझुवाला का मत जानने के बाद यह कहा जा सकता है कि उनके अनुसार जाति और वर्ण अन्योन्याश्रित हैं। वर्ण (अंतकरण की इच्छा) से जाति (पेशा) निर्धारित होता है और जाति (पेशे) से वर्ण (अंतकरण की इच्छा) का निर्माण होता है। यह चक्र तब टूट भी जाता है जब वर्ण और जाति के बाहर वैवाहिक या यौन संबंध होने से जाति और वर्ण की विशेषताएँ दूसरे जाति और वर्ण के व्यक्तियों में चली जाती हैं। इसलिए जाति के बाहर विवाह को वे मना करते हैं। भरत झुनझुनवाला का वर्ण और जाति को लेकर जो मत है वह मूलत: गुजरात की सरज़मीं का मत है जिसे गीता उपदेश के तहत कृष्ण के मुख से भी कहलवाया गया है। यह कृष्ण मथुरा का अहीर बालक नहीं बल्कि गुजरात की द्वारिका का कूटनीतिज्ञ राजनायिक कृष्ण है। यह संपूर्ण भारत का चित्र देने वाला मत नहीं है पर साथ ही यह भी सही है कि हिन्दुत्व का झण्डा इसी सरज़मीं पर गड़ा है। हिन्दुवादी दृष्टि से वर्ण और जाति का ऐसा ही चित्र खींचा जाता रहा है। इसी आधार पर ऐसे सभी उदाहरणों को जहाँ व्यक्ति विशेष ने अपनी तथाकथित जाति विशेष से परे गुणों को धारण किया वहाँ उस व्यक्ति विशेष में वर्ण संकरता के लक्षण देखे गए। कृष्ण, कर्ण, कबीर सभी इसके उदाहरण हैं।

‘कास्ट इन इंडिया’ नामक अपने शोध ग्रंथ मे Emile Senart ने भी वर्ण और जाति के मुद्दे पर काम किया है। यह ग्रन्थ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे लिखा गया। साथ ही एक फ़्रेञ्च स्कॉलर द्वारा लिखा होने के कारण  उसका मत अपेक्षाकृत तटस्थ माना जा सकता है। इस पुस्तक में उन्होंने उस समय के भारत में जाति और वर्ण की स्थिति का चित्र खींचा है और उसके इतिहास को खोजने और जानने का प्रयास भी किया है। लेखक की सबसे महत्वपूर्ण स्थापना यही है कि जाति और वर्ण दो भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएँ हैं जिनका आपस में कोई स्वाभाविक रिश्ता नहीं है। अलग-अलग समाजों की अलग-अलग समय में उपस्थित रही दो भिन्न व्यवस्थाओं को आपस में  जोड़कर देखने या दिखाने से वर्तमान समय का जातीय संकट खड़ा हुआ है। लेखक के अनुसार समाज में वर्ग-विभाजन का वरीयताक्रम विश्व के सभी समाजों में व्यावहारिक रूप से दिखाई देता है पर जाति-विभाजन अपने आप में एक पूर्णत: भिन्न फ़िनोमना है। उनका अनुमान है कि शायद ब्राह्मणवादी महत्वाकांक्षा ने इस वर्ग विभाजन (वर्ण विभाजन) द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उसे जाति पर आरोपित करने की कोशिश की है। जाति व्यवस्था का कोई आवश्यक सैद्धान्तिक दस्तावेज़ हमें पुरातन धार्मिक ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता। जो भी लिखित दस्तावेज़ मिलते हैं वे वर्ण को लेकर हैं जाति को लेकर नहीं। इसिलिए यह बड़ी बात नहीं कि अगर हम इन लिखित दस्तावेज़ों और समाज की वास्तविक स्थितियों के बीच गहरी खाई देखते हैं। इसलिए भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकास को समझने की प्रक्रिया में  हमें इन दोनों (वर्ण और जाति) के बीच अन्तर को सावधानीपूर्वक ध्यान में रखना होगा। साथ ही यह भी देखना होगा कि फिर ये कैसे आपस में जोड़े जाने लगे। अनेक देवी-देवताओं से संबंधित विभिन्न विरोधी कहानियाँ और मान्यताएँ जिन्हें समझना अत्यन्त मुश्किल है वह इसी कारण क्योंकि इस वर्ण और जाति को लेकर गढ़े गए  कृत्रिम स्वरूप ने पीछे छिपे सत्य को ढक लिया है जिसके प्रति हमें सावधान रहना है।1*

आगे इसी मुद्दे को समझाने के लिए लेखक वर्ण और जाति व्यवस्था को लेकर साफ़-साफ़ बात करता है उसके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार अलग जातियों को नहीं बल्कि चार अलग वर्गों  का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस वर्ग विभाजन का इतिहास निश्चित तौर पर प्राचीनकाल तक फैला है। बाद के समय में इनको जाति के ऊपर जबरन आरोपित कर दिया गया। अपनी प्रकृति और उद्भव मे बिल्कुल भिन्न जातियाँ जिस पूर्व व्यवस्था से निकली हैं वह संख्या में बहुत ज़्यादा और विविधतापूर्ण थीं।2*  लेखक वर्ण और जाति को अलग-अलग रखते हुए कहता है कि वर्ण का संबंध वर्ग-विभाजन से है और यह विभाजन कमोबेश आर्य और अनार्य का अन्तर रहा होगा। पहले तीन वर्ण आर्य जाति से रहे जिन्हें जनेऊ पहनने का अधिकार था और चौथा वर्ण शूद्र कहा गया। लेखक लिखता है कि “वर्ण का शब्दश: अर्थ ‘रंग’ है और सामान्यत: इसे संस्कृत में जातिसूचक अर्थ में स्वीकार किया जाता है। जैसा कि पहले संकेत किया गया है, हिन्दू स्रोतों में केवल ये चार जातियाँ ही समायोजित नहीं है बल्कि  उन्हें आर्यन तथा शूद्रों के दो समुदायों में समाहित किया गया है…यह  समझ पाना असम्भव है कि शूद्र के नाम से अभिहित जन-समुदाय मात्र उन मूलनिवासी तत्त्वों से निर्मित था जिनसे आर्यों की मुलाकात पहले पहल उत्तर-पश्चिम से भारत में आप्रवास के समय हुई थी या फिर उनमें विभिन्न तत्त्वों का मिश्रण शामिल है। लेकिन यह मुद्दा गौण महत्त्व का है। आर्यों और शूद्रों के बीच निश्चय ही जातीय-द्वेष का बुनियादी सम्बन्ध था, कमोबेश सम्पूर्ण। (122-23 ) विभिन्न धर्म ग्रन्थों में चौथे वर्ण शूद्र को लेकर जिस तरह की वर्जनाएँ दिखाई देती हैं उनके पीछे भी लेखक को कमोबेश यही कारण  दिखाई देता है। 

लेखक एमिली सेनार्ट ने अपने समय के भारत का अध्ययन करके उस समय के समाज में जाति और वर्ण की वास्तविक उपस्थिति को जाँचने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्होंने 1881 की पहली राष्ट्रीय जनगणना को आधार बनाया। अपने वर्तमान समाज में उनका सामना जाति-व्यवस्था से हुआ।3*  उन्होंने देखा कि इन जातियों की संरचना, उनकी कार्यप्रणाली किसी हिन्दू धार्मिक किताब के आधार पर नहीं बल्कि उनकी अपनी आंतरिक व्यवस्था के आधार पर चलती दिखाई दी।  “हमने देखा कि जाति की प्रतिनिधि पंचायत अथवा सभा कैसे अपने नियुक्त मुखिया के निर्देशों के अधीन अपनी आन्तरिक व्यवस्था और कानून को कायम रखने के लिये आवश्यक बहिष्कार की घोषणा के लिये, या फिर बहिष्कार से बचाव के लिये दाँड़ (दण्ड) भरने की शर्तों के आकलन के लिये अधिकृत होती है इस सन्दर्भ में मनु और याज्ञवल्क्य पवित्र ग्रन्थों में केवल ब्राह्मण सभाओं की बात करते हैं। ब्राह्मण की शक्ति के विस्तार का विचार यहाँ प्रकट दिखाई देता है। (106-07)

सेनार्ट द्वारा बताए गए इस तथ्य की पुष्टि आसानी से हो जाती है क्योंकि आज तक भी हमें भारतीय समाज में विभिन्न जातियों के भीतर इस प्रकार की स्वयं संचालित पंचायतें मिलती हैं। प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा में ‘मुर्दहिया’ में बारह गाँवों की इस प्रकार की पंचायत का ज़िक्र है जिसमें लेखक के सबसे बड़े चाचा (वास्तव में ताऊ) ही पंच चुने गए थे। उनकी न्याय प्रियता की तारीफ़ लेखक ने भी की है। पंच का यह पद वंशानुगत नहीं था क्योंकि उन चाचा की मृत्यु के बाद घर के किसी पुरुष को वह पद नहीं मिला था। प्रो. श्योराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में भी उनके नाना इस प्रकार की पंचायत के मुखिया थे। ये पंचायतें जाति में शादि-ब्याह, मुंडन-छेदन से लेकर मृत्यु संस्कारों के समय सक्रिय रहती थी। इसके अतिरिक्त जाति- के नियमों मान्यताओं की अनदेखी होने पर भी पंचायतें सक्रिय रहती थीं और अन्य जातियों से मतभेद के समय भी ये जातियाँ पूरी शिद्धत से अपनी जाति के हितों की रक्षा करने का प्रयास करती थी। इस प्रक्रिया में खूनी मुठभेड़  भी हो जाती थी। जाति के बाहर और गोत्र के भीतर शादी नहीं होगी, यह तय था। हम आज भी आए दिन अखबारों में ऐसी पंचायतों के बारे में पढ़ते रहते हैं। लेखक सेनार्ट ने भी अपनी किताब में विभिन्न जातियों की पंचायतों और उनके काम करने के तरीकों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।4*

जाति का उद्भव कैसे हुआ और जाति के निर्माण का आधार क्या है? इस मुद्दे पर भी लेखक सेनार्ट ने विस्तारपूर्वक विचार किया है। उनके अनुसार जाति के निर्माण पीछे निश्चित रूप से व्यवसाय की एकता रही होगी, पर किसी एक जाति के सभी सदस्य उस एक व्यवसाय विशेष से ही जुड़े रहे ऐसा नहीं है। वह लिखता है कि “व्यवसाय की समानता जाति के सिद्धान्त की बुनियाद है … बहुत सी जातियाँ अपने व्यवसायों के नाम से जानी जाती हैं – कुम्हार, लोहार, मछुआरा, माली वगैरह। लेकिन दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि उसी जाति के अन्य सदस्य किन्हीं बिल्कुल अलग तरीक़ों से आजीविका का अर्जन कर रहे हों, बहुत से लोग अपनी जाति छोड़े बिना ही अपना व्यवसाय बदल लेते हैं।“ (33)  

अपने समय में ब्राह्मण जाति का वर्णन करते हुए लेखक बताता है कि कैसे स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले लोग, शरीर पर पवित्र धागा (जनेऊ) पहनकर आदर की अपेक्षा करने वाले लोग कितने भिन्न–भिन्न काम करते हुए अपनी आजीविका कमाते थे। 5*  लेखक के समय में जाति-व्यवस्था का जो स्वरूप था वह कोई ऐसा स्थिर रूप नहीं था जिसमें किसी तरह का परिवर्तन या बदलाव न होता रहा हो। न केवल जातियों की सामाजिक हैसियत में परिवर्तन होता रहता था बल्कि समय-समय पर नई जातियों का निर्माण भी होता रहता था। किसी बड़े जाति समूह से निकल कर नई जातिगत संरचनाएँ बन जाती थीं। एक स्थान से उखड़कर कोई समुदाय दूसरे स्थान पर बसकर कोई दूसरा व्यवसाय अपनाकर अपनी जातीय पहचान बदल लेता था। मुस्लिम आक्रमण के समय भारतीय जाति-व्यवस्था में भारी फेर बदल  हुआ। स्वयं को राजपूत कहने वाले विभिन्न जातीय समूहों का उद्भव विभिन्न जनजातियाँ समाजों से इसी समय हुआ। गुर्जरों, जाटों और अहीरों के जाति- समुदायों के रूप में उद्भव को लेखक ने इसी तरह व्याख्यायित किया है। 6*

अपने समय के समाज में विभिन्न जातियों के बीच रोटी-बेटी के संबंध को लेकर भी लेखक ने चर्चा की है। जाति के बाहर और गोत्र के भीतर विवाह लगभग नहीं किये जाते थे। खान-पान को लेकर भी सभी जातियों की अपनी व्यवस्थाएँ थीं। किनके बीच कच्ची रोटी का संबंध हो सकता था और किनके बीच पक्की रोटी का संबंध था, इन सभी व्यवस्थाओं पर विस्तारपूर्वक विचार हुआ है। लेखक कहता है कि ब्राह्मण नाम की कोई एक जाति नहीं थी बल्कि ब्राह्मण एक बड़ा जातीय समूह था जिसे ब्राह्मण जातियाँ कहकर सम्बोधित किया जाए तो सही होगा। इन जातियों के बीच भी रोटी-बेटी का संबंध नहीं होता था। “बंगाल के ब्राह्मण भारत के अन्य भागों की ब्राह्मण जातियों के अलावा स्वयं बंगाल के ब्राह्मणों में भी, राढ़ी ब्राह्मण, वारेन्द्र ब्राह्मणों के यहाँ अथवा वैदिक या दक्षिणात्य ब्राह्मणों के यहाँ विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ते हैं। बल्लासेनी वैद्य जो पूर्व बंगाल में रहते हैं, पश्चिम बंगालवासी लखमनसेनी वैद्यों के यहाँ विवाह नहीं करते हैं और बंगाली कायस्थों की चार जातियाँ कभी एक दूसरे के यहाँ विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़तीं।” ( page 24)

सभी जातीय समुदायों में स्वयं को दूसरे से ऊँचा मानने की प्रवृति पाई जाती थी। इस संदर्भ में एक उदाहरण विशेष देखने लायक है कि कैसे बंगाल का संथाल जनजातीय समाज जिसने खान-पान में छूआछूत के विचार के चलते अकाल के दिनों में भूख से मरना स्वीकार किया बजाए कि ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए भोजन को खाने के। लेखक का निष्कर्ष है कि जिनके बीच वैवाहिक संबंध संभव था, उन्हीं के बीच खान-पान भी संभव था। सार्वजनिक भोज के समय सभी अपनी–अपनी जातीय मर्यादाओं का पालन करते थे।  “चूँकि कई बार खेतों में या फिर जनसभा की जगहों में ऐसा हो सकता है अत: कुछ प्रदेशों में असुविधाजनक भ्रान्तियों के निवारण के लिये पहचान का कोई चिह्न नियत कर दिया जाता है –मुसलमान के लिये नीला टाट, हिन्दू के लिये लाल, चमार के लिये चमड़े का टुकड़ा, भंगी के लिये रस्सा इत्यादि” ( page 47)

इस प्रकार लेखक ने अपने समय में उपस्थित भारतीय समाज की यूनीक व्यवस्था जाति पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। इसके लिए उसने अपने समकालीन और पूर्व इंगलिश और फ़्रेंच लेखकों के शोध पत्रों और सर्वे रिपोर्टस का सहारा भी लिया है। जाति और वर्ण के इतिहास पर बात करता हुआ वह मानता है कि बौद्धों के भारत से परिगमन के पश्चात ब्राह्मण जातियों ने पुराने वैदिक साहित्य तथा अन्य स्मृति साहित्य में आए ‘ब्राह्मण’ शब्द का लाभ उठाते हुए वर्ण-व्यवस्था सबंधी प्रावधानों और नियमों को जाति पर लादने की कोशिश की। उनकी इस कोशिश में उन लड़ाकू जनजातीय समाजों ने उनका साथ दिया जिनको ब्राह्मणों ने न केवल हिन्दू (सभ्य के अर्थ में) मान लिया बल्कि उन्हें क्षत्रिय बताकर उनको कुछ विशेषाधिकार भी दे दिए। प्रमाण के तौर पर लेखक कहता है कि किसी भी पुराने लिखित दस्तावेज़ों में किसी जाति विशेष का नाम उद्धृत नहीं किया गया है।7*  मनु, याज्ञवल्कय और वैदिक पुरुष सूत्र में जिसका उल्लेख है, वह शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, और ब्राह्मण नामक वर्ण हैं। इनमें ब्राह्मण को छोड़कर अन्य किसी को भी जाति के रूप में नहीं जाना जाता। शूद्रों को लेकर जो भी पाबन्दियाँ वहाँ वर्णित हैं, उनका आधुनिक पेशेवर जातियों से कोई लेना-देना नहीं है। फिर क्यों औपनिवेशिक काल के दौरान और उसके बाद तमाम पेशेवर जातियों को शूद्र बताकर उन पर वे ही पाबन्दियाँ लादने की कोशिश की गई जिनका उनके इतिहास से कोई लेना-देना ही नहीं रहा। लुहार, जुलाहा, बढ़ई, सुनार, कहार, चमार, तेली, कुम्हार, और अन्य सेवाएँ देने वाली जातियाँ कब और कैसे शूद्र मान ली गईं जबकि किसी जगह इसके लिखित प्रमाण नहीं मिलते। इन प्रश्नों के उत्तर भी इसी काल के इतिहास में छिपे हैं।  

भारत की ये तमाम जातियाँ इस बात का सबूत हैं कि भारत केवल एक कृषि प्रधान देश नहीं था बल्कि यहाँ कृषि के साथ-साथ जनसंख्या का बहुत बढ़ा हिस्सा कृषि से इतर व्यवसायों में लगा था। इनके द्वारा किया जाने वाला उत्पादन न केवल गाँवों और शहरों के अपने इस्तेमाल के लिए था बल्कि कुछ का तो देश-विदेश में भारी मात्रा में निर्यात भी किया जाता था। सूती कपड़ा, कसीदाकारी, नक्काशी का काम इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय था। अंग्रेज़ों के आने से पूर्व इन सभी पेशेवर जातियों का काम जिन औजारों और उपकरणों की मदद से होता था वे हस्तचालित थे। होने वाले उत्पादन पर उस जाति विशेष का अधिकार था और उसके व्यवसाय की समाज में माँग के आधार पर उसकी सामाजिक हैसियत तय होती थी। जैसे चमड़े की मश्क का पानी ढोने के लिए बहुतायत से इस्तेमाल होता था। सिंचाई के लिए यह एक आवश्यक वस्तु थी इसलिए चमार कृषि का अनिवार्य हिस्सा थे। भारत में अंग्रेज़ों के साथ औद्योगीकरण के आने से इन पेशेवर जातियों के व्यवसायों पर गहरा असर हुआ। 

तीसरी किताब जिसका कि मैंने ज़िक्र किया था ‘द इनडस्ट्रियल इवोल्यूशन ऑफ़ इंडिया इन रिसेन्ट टाइमस् (1860-1939) में इस प्रभाव की गहरी पड़ताल की गई है। ‘द कंटरी आर्टीजन’ नामक पाठ में लेखक  बताता है कि किस प्रकार प्राचीन (भारत में अंग्रेज़ों के आने के समय) भारत में कारीगरों की सामाजिक हैसियत काफ़ी सुदृढ़ थी। यहाँ तक कि 1924 के आस पास तक भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं कारीगरों से निर्मित था। और फिर बीते सालों में उनके कार्यों का पतन हुआ जिससे उनकी पुरानी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में भारी गिरावट आई।8*  इतना ही नहीं इसके बाद लेखक उन तमाम जातियों का क्रमानुसार वर्णन करता है जिनकी सामाजिक और सामाजिक हैसियत में औपनिवेशिक काल में भारी बदलाव हुआ। वह बताता है कि भारतीय गाँवों की संरचना में  सभी कर्मियों की सामाजिक हैसियत स्थिर नहीं थी। वहाँ ग्रामीण सेवक और स्वतन्त्र कारीगर जैसा विभाजन देखने को मिलता था। कुछ जातियाँ स्वतन्त्र पेशों से जुड़ी थीं जिन्हें आर्टीजन (हुनरमन्दों) में स्वीकार किया जाता था। कुम्हार, बढ़ई, जुलाहे, जूते बनाने वाले, इत्यादि।  बाद के सालों में मशीनों से बने सामान के सामने इन दस्तकारों का महीन काम नहीं टिक पाया। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद वहाँ के तैयार माल को यहाँ बेचने के लिए अंग्रेज़ों ने इस तरह की नीतियाँ बनाई कि यहाँ के दस्तकार उजड़ते चले गए। उनके पेशे अब उनको आर्थिक रूप से कमज़ोर बनाने लगे। वे अपने पेशे छोड़-छोड़कर कृषि से जुड़ने लगे। कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढ़ा। कृषि के लिए ज़मीनें तो थीं नहीं अत: ये खेतीहर मजदूर के रूप में काम करने लगे या शहरों में  खुलने वाले कारखानों में मज़दूर बनने लगे। दोनों ही जगह अपना श्रम बेचने की स्थिति में आने के बाद ग़रीबी के दलदल में फँसते चले गए। ‘द कंटरी आर्टीजन’ नामक पाठ में  उक्त पुस्तक के लेखक के इन जातियों के इस पतन पर विस्तार से चर्चा की है। “दोनों ही उन सब मामलों में प्रकट थे जहाँ विदेशी होड़ अथवा अन्य कारणों से उद्योग मन्दी की दशा में था। दस्तकारों-शिल्पियों की दशा यह थी कि वह या तो अपने व्यवसाय से बाहर खदेड़ा जा कर दिहाड़ी-मज़दूर की जमात में शामिल हो जाता या फिर रोज़गार की तलाश में शहरों को प्रस्थान करता…ऐसे भी बहुत से दस्तकार थे जो अपनी दशा में थोड़ा सा सुधार होते ही अपना पारम्परिक व्यवसाय छोड़ कर खेती में लग जाते थे… “    ( 170)

लोहे का काम करने वाली जाति लुहार के बारे में लेखक कहता है कि औपनिवेशिक काल में इस जाति के लिए शहरों में काम के नए मौक़ों का निर्माण हुआ। कटलरी शॉपस् और तकनीक के विकास में लोहे के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल ने उनके लिए शहरों में नए कामों और रोज़गार के अवसरों का निर्माण किया। इस प्रकार  शहरों ने उनकी आर्थिक स्थिति में  सुधार किया।9*  बढ़इयों की बदलती स्थिति के बारे में विचार करता हुआ लेखक बताता है कि गाँवों में खेती के लिए लोहे की मशीनों के आ जाने से खेतों, फसलों, में इस्तेमाल होने वाले लकड़ी के औजारों और उपकरणों में खासी गिरावट आई जिसके कारण गाँवों में बढ़इयों की स्थिति को धक्का पहुँचा। उनके रोज़गार को नुकसान पहुँचा। लेखक ने १९०१ के जनगणना रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया है कि किस प्रकार गाँवों में जिन जातियों के रोज़गार को सबसे ज़्यादा धक्का पहुँचा उनमें बढ़ई जाति भी प्रमुख थी। इसके बावजूद शहरों ने कुछ हद तक उनके लिए नए रोज़गारों का सृजन किया। फ़र्नीचर उद्योग, बिल्डिंग निर्माण और टमटम, ताँगे आदि के बढ़ते प्रचलन ने शहरों में लकड़ी के काम में रोज़गार के नए अवसर पैदा किए।10* कुम्हारों की चर्चा करता हुआ लेखक बताता है कि इस जाति के रोज़गार में भारी गिरावट आई क्योंकि घरेलू  इस्तेमाल के बर्तनों में धातु के बर्तनों का प्रचलन जहाँ इनके रोज़गार को छीन रहा था वहीं शहरों में भी उनके लिए कोई सहारा नहीं था। बढ़ई और लुहारों की तरह शहरों ने इन्हें कोई विकल्प उपलब्ध नहीं कराया परिणास्वरूप यह जाति खेतिहर मजदूर के रूप में बदल गई।11*  लेखक  के अनुसार पुरानी व्यवस्था में  चमड़े के उद्योग से जुड़ी जातियों को इस औपनिवेशिक काल में जितना नुकसान पहुँचा उतना शायद किन्हीं अन्य जातियों को नहीं पहुँचा। इनमें महार, चमार और मदिगा के भिन्न-भिन्न नामों से जानी जाने वाली जातियाँ शामिल हैं। अन्तरष्ट्रीय बाज़ार में चमड़े और कच्चे चमड़े के दामों में जबरदस्त उछाल के कारण उन्हें चमड़ा मिलना मुश्किल हो गया।  इन जातियों का भारी मात्रा में खेतिहर मज़दूर के रूप में रूपान्तरण देखा गया। इन जातियों में बहुत कम लोगों को शहरों का चमड़ा उद्योग रोज़गार दे पाया। लेखक ने इस बात पर विशेष ज़ोर दिया है कि इन जातियों का इस दौरान जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पतन हुआ उसने इनके भविष्य को अंधकारमय कर दिया।12*

इतना ही नहीं लेखक ने जुलाहों, दस्तकारों, तेली, रंगाई का काम करने वाली विभिन्न जाति समुदायों के पेशों का बदलती स्थितियों में चित्रण भी किया है कि किस प्रकार उनके परंपरागत पेशों में परिवर्तन हो रहा था जिसके चलते उनकी पूर्व सामाजिक और आर्थिक स्थिति में भारी फेर-बदल हो रहा था। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि वर्तमान समय में भारतीय जाति व्यवस्था और विभिन्न जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के मूल्यांकन के लिए ज़रूरी है कि न केवल दो सौ तीन सौ सालों के औपनिवेशिक कालीन भारत में विभिन्न जातियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में आए परिवर्तन को जाँचना ज़रूरी है बल्कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौर और उस समय इन तथाकथित निम्न जातियों के अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर लड़ने के इतिहास और उस पर उस समय के भारतीय सत्ता वर्ग की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन भी होना चाहिए। हमें जाति संबंधी लिखित दस्तावेज़ों को खंगालना है न कि वर्ण संबंधी प्रावधानों को जातियों पर थोपना है।

    1. The hierarchic division of the population into classed is practically universal, but the caste-system is a unique phenomenon. That Brahmanic ambition has taken advantage of it in order the more firmly to establish its domination is possible but not obvious. A casted-system is not the necessary basis of a theocracy. If theory has confused the two sets of ideas, this is a fact of secondary importance, as we have actually seen when dealing with tradition. In order to understand the historic development we must distinguish carefully between the two ideas; remembering, however , to investigate how they came to be finally combined. Sacerdotal speculation has obscured the facts by means of an artificial system, and we must be careful not to mistake the curtain which hides them from our view for the facts that are hidden. ( page 153)

    2.   “ Here we put our finger on the true situation; the name of Brahman, Kshatriya, Vaisya and Sudra represent not four ‘caste’ but four ‘classes’. These classes may be exceedingly ancient; it is only the later times that they have been superimposed on the caste. Different by nature and origin, the true caste or the organism from which this sprang were from the beginning more diverse and more numerous.  

    3. “Surveys drawn up on the census returns of 1881 record no less than 855 different castes numbering at least a thousand members or divided amongst several provinces or native states. If we add those which  are less numerous or which exist only in one province or in one state we reach the figure of 1929.”

    4. This council is not necessarily permanent; it can, according to circumstances, be specially right to action it may have or be specially granted in certain cases of marriage and divorce, it seems that its authority is rarely decisive. The last word is with the caste- assemblies. ….. “ It was st purneah; a man of low caste, a dhobi, or washerman, was suspected of having illicit intercourse with one of his aunts. He denied it, but refused to banish from his house the supposed accomplice. He ended by openly marrying her. None of his caste eonsented to be present at the marriage and public feeling ran very high against the couple. Finally all the members of the caste living in the district, several hundred in number, assembled and elected a large jury, which, after careful examination of the facts, brought in a verdict of guilty against the accused parties and ordered their exclusion. A circular duly segned by the judges, and passed from hand to hand, informed every one in the neighboring districts who belonged to the caste that such-and – such a person, having been convected of immoral conduct contrary to hereditary practices, had been deprived of all his rights, and that, in consequence, no one might eat, drink, or smoke with him, under penalty of sharing his fate.  The unhappy victim, having endured the effects of the sentence for wome weeks, soon found life intolerable. After a short time he gave in and separated from his wife. He was obliged, by way of expiation and fine, to ate with him, and from that time onward he was reinstated in his rights.” ( page 61)

    5. It is perhaps among the Brahmans that there occurs the most complicated mixture of occupations and confusion of trades…. Those who have seen Brahmans girded with the sacred thread offering water at India stations to travelers, and who have also seen them drilling among the sepoys of Anglo-Indian Army, are prepared for surprises of this kind. As matter of fact people who proudly bear the title of Brahmans and who everywhere this title assures great respect, may be found engaged in all sorts of tasks; priests and ascetics, learned men and religious beggers, but also cooks and soldiers, scribes and merchants, cultivatiors and shepherds even mason and chair- porters. There are eve more extraordinary facts; the Senauriya Brahmans of bundelkhand have obbery as their hereditary profession. ( page 35-36)

    6. Aboriginal populations still for from civilized gradually become Brahmanized by slow degrees thaey enter the pale of Hinduism ….. whole tribe will inrol themselves under the banner of Hinduism creating there by a new caste. The Minas of central India, the Bagris of the North-west provinces, the khands and santias of Orissa.  Rajput of the Punjab. Tagas in the Punjab are no more than a criminal caste of robbers. (81)

    7. There is no allusion of caste in the vedic hymns; it did not exist therefore at the period when these were composed. Its beginning are shown in the literature of the brahamanas.

    8. “In the old economic structure of India, the position of the country artisan was definitely fixed. Urban handcrafts, though greatly advanced in industrial organization, were numerically unimportant. Thus in old India, the country artisan was numerically by far the most important industrial worker. With the passage of years, this dominant position of the artisan has been lost; but even today (1924), the large bulk of the industrial population of India is formed of country artisans. If the decay in numbers has not been considerable, the loss of status and the old fixed position seems, on the other hand, to have been great, and the rural artisan population today is in a fluid state.” ( 169 )

    9.   in the towns industries requiring the services of a blacksmith were increasing. For example, there was the development of cutlery shops and iron foundries almost all over India…. The blacksmith may be said to have been more or less in a stationary condition throughout the period, except the urban blacksmith, who improved his position.  (page 172- 173)

    10. … Here his position became worse. The introduction of the iron cane- crushing press, for example, undermined very greatly his position in the sugarcane-growing tracts. The same may be said of the introduction of iron plough; …. Thus, the Bengal Census Report for 1901 puts carpenters among the class of rapidly decaying village artisans. If the village carpenter migrated to the towns, his chances were quite good. The general activity in the building trades, in coach and carriage making and in the small furniture industries in the towns was creating quite in brisk demand for carpenters. (174)

    11. The potter was perhaps the poorest of the artisan group…. The substantial cultivator was rapidly giving up the use of earthen vessels for domestic use and taking to brass and copper wares instead. …. For the potter there was no alternative to migration to towns, as there was for the carpenter or blacksmith, and potter thrown out of his hereditary occupation had to take to ordinary agricultural labour. (175)

    12. The village tanner (mahar in Maharashtra, chamar in north India, madigas in Madras presidency) was perhaps the hardest hit of all the village artisans. His position began rapidly to deteriorate after the extraordinary rise in the world prices of raw hides and skins… This great increase in the prices of raw hides and skins reduced the country tanner to a very bad condition, and large numbers of his community were driven to agricultural labour, while a few were absorbed by the urban tanning industry. The decline of the village tanner was perhaps the most remarkable of all. (176)

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