अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

जनेऊतोड़ लेखक

जनेऊ-तोड़ लेखक

 

लेखक महोदय बामन हैं
और हो गये हैं बहत्तर के
विप्र कुल में जन्म लेने में
कोई कुसूर नहीं है उनका
वे ख़ुद कहते हैं और हम भी
लेखक ने अपने विप्रपना को
इस बड़ी उम्र में आकर
धोने की एक बड़ी कर्रवाई की है
तोड़ दिया है अपने जनेऊ को
और पोंछ डाला है अपने द्विजपन को
अपने लेखे
कहिये कि जग के लेखे 
बल्कि जग के लेखे ही बावजूद
लोग उन्हें
मान बख़्शते हैं सतत विप्र का ही
सतत घटती इस घटना में भी 
उनका क्या रोल
वे किसको किसको कहाँ कहाँ 
अपने जनेऊ तोड़ लेने का
वास्ता देते फिरे
 
हर एक्सक्ल्यूसिव सवर्ण मंच पर
बदस्तूर अब भी मिल रहा है उन्हें बुलावा
और उनके जनेऊ-तोड़ 
डी-कास्ट होने के करतब को
रखते हैं ठेंगे पर सब अपने पराये
सवर्ण-मान पर ही रखकर
उन्हें हर हमेशा
वे गुरेज़ करें भी तो करें
कैसे
क्यों
मिलते अधिमान को
इन मानों से
जनेऊ तोड़ना आसान है
 
क्योंकि यह टूटता है बाहर बाहर ही
भले ही रहता हो सात बसनों के अन्दर
गोकि
बाहर बाहर टूटकर भी
उसके टूटने का बाहर कोई असर आये ही
क़तई ज़रूरी नहीं
असर के लिए 
पुरअसर पाने के लिए 
धागा के साथ बहुत कुछ तोड़ा जाना ज़रूरी है
दशरथ मांझी सा बाइस बरस लगा
किसी बड़ी कार्रवाई का साथ लगाना ज़रूरी है
जनेऊ द्विजत्व है
दो मनुष्य होना है
एक माता उदर से
दूसरे ख़ुद को अलग से जन्मा
मान लेने से 
जन्म-दर्प का दर्पण है यह
और यह सतत घटित होती एक कार्रवाई है
चाहे यह आपके मन से घटे अथवा मन के विरुद्ध 
बताया पूछा लेखक से
जनेऊ तोड़ा ठीक किया
इसके अलावा अपनी जात-जनेऊ का
क्या क्या तोड़ा
लेखक अभी याद करने में लगा है!

इस विशेषांक में

कहानी

कविता

गीत-नवगीत

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

आत्मकथा

उपन्यास

लघुकथा

सामाजिक आलेख

बात-चीत

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार
  3. फीजी का हिन्दी साहित्य
  4. कैनेडा का हिंदी साहित्य
पीछे जाएं