प्रमथ्यु जाग रहा है
कविता | दयानन्द बटोहीवर्ण व्यवस्था के पृष्ठपोषक हैं द्युपितर1
श्रमिक हैं प्रमथ्यु2 यहाँ
युगों से अंधविश्वास, अशिक्षा और सुरक्षा के बीच
हम प्रमथ्यु को भूलते देखते रहे
उफ़ तक नहीं किया
अब प्रमथ्यु जाग गया है
जाग गई है मानवता
लोग पोंगा स्वर में अलापते हैं
पहले ही अच्छी थी व्यवस्था
पहले जो द्युपितर कहता था
लोग सहर्ष स्वीकारते थे
अब प्रमथ्यु जन-जन को जगा रहा है
जगा रहा है सोए क़बीले को
मुसहर, डोम, ढाढ़ी को
युगों से सफ़ेद स्वच्छ कपड़े
द्युपितर के अलावा हम नहीं पहन सकते थे
नहीं रह सकते थे अच्छे मकान में
नहीं खा सकते थे
अच्छा, स्वादिष्ट, स्वच्छ, ताज़ा भोजन
अब सब कुछ नकारने के लिए
प्रमथ्यु जाग रहा है, जाग रहा है।
1. मिथकीय मनुवादी सवर्ण राजा
2. मिथकीय दलित श्रमिक,
इस विशेषांक में
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