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सवेरा बुनती स्त्रियाँ

स्त्रियाँ उलझनों में अपना सवेरा बुन रही हैं
रुलाई की सिलाइयों को मज़बूती से पकड़े हुए
चढ़ाती हैं संघर्ष के फन्दों को बड़ी तैयारी से 
नाउम्मीदी के दौर में भी डालती हैं 
उम्मीदों से भरा एक नया डिज़ाइन
उनकी उँगलियों  पर कितने ही घाव हैं
दुखते हाथों से वो कोई सपना बुन रही हैं
पहनाकर किसी को तैयार स्वेटर 
वो किसी का जाड़ा चुन रही हैं
वो ख़ुश होती हैं देकर नींद 
सुबह का उजाला बुन रही हैं।
 
उनके चारों तरफ़ गहराने लगी है रात 
वो भरी आँखों से कोई आस बुन रही हैं
आग पर पका रही हैं आदिम भूख
वो डाल रही हैं उफनते दूध से पौरुष पर
अपने सपनों का पानी
चक्की में पीस देना चाहती हैं दुख
सुख के आटे की रोटियाँ बेल रही हैं
वो प्यासी ही कोसों चलकर ला रही हैं पानी
और पानी है कि रिस रहा है उनके पैरों के छालों से
वो प्यास बुझा रही हैं अपनी आदिम प्यास लिए
पथरीली ज़मीन पर आहत हैं उनके तन उनके मन
उनके शरीर से बह रहा है नमकीन पसीना
उनके नमक से गल रहा है धरती का खारापन
वो लगातार उस सफ़र में हैं जो उनसे छूट रहा है
वो दुख को भूलते हुए कोई सुख चुन रही हैं।
 
स्त्रियाँ उलझनों में अपना सवेरा बुन रही हैं॥

इस विशेषांक में

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