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विशेषांक

दलित साहित्य

दलित साहित्य और उसके होने की ज़रूरत
डॉ. शैलजा सक्सेना


दलित साहित्य उस समाज की सच्चाई से भरा साहित्य है जिसे हमारे समाज में अछूत, अस्पृश्य, हरिजन या शेड्यूल कास्ट कहा जाता है। मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने के लिए जिन आवश्यक चीज़ों की ज़रूरत होती है, उनमें सम्मान बहुत महत्वपूर्ण है। यह सम्मान व्यक्ति अर्जित करता है अपने को योग्य बना कर और योग्यता को प्रमाणित करके। पर अगर योग्य बनने के लिए अवसर कम हों, या अवरुद्ध कर दिए जाएँ या इस प्रकार का वातावरण उपस्थित कर दिया जाए जहाँ व्यक्ति का आत्मविश्वास टूटने लगे या टूट जाए तब क्या हो? या अगर वह समस्त विपरीत स्थितियों से संघर्ष करके उनसे बाहर निकल भी आए तो भी छोटी जाति का कह कर उसका निरंतर अपमान होता रहे तब क्या हो? जातिवाद की इस चुभन को जितने तीखेपन से इस युग में, इस साहित्य में देखा गया, पहले नहीं देखा गया था।

दलित साहित्य के चारों ओर चार प्रश्न खड़े रहते हैं: 1) क्या इस तरह अलग से वर्गीकरण और नामकरण किए जाने की आवश्यकता है? 2) क्या इस साहित्य में केवल दलितवर्ग द्वारा लिखा साहित्य मान्य होगा या अ-दलित द्वारा लिखित भी, यानि स्वानुभूति? या सहानुभूति? 3) इस साहित्यिक धारा के प्रतिष्ठित लेखक क्या केवल साहित्यकार कहलाने नहीं चाहिए, उन्हें दलित साहित्यकार ही क्यों कहना चाहिए? इसके साथ ही चौथा मुद्दा दलित स्त्री विमर्श का भी है कि क्या अलग से दलित स्त्री पर बात करना क्यों आवश्यक है। मेरे विचार से प्राय: ये सभी प्रश्न स्त्री विमर्श और प्रवासी साहित्य विमर्श के साथ भी हैं। 

दलित साहित्य के संदर्भ में इन प्रश्नों के उत्तर अनेक विचारकों ने अनेक प्रकार से दिए हैं जिन्हें आप इस अंक के आलेखों में देखेंगे। संक्षेप में कहें तो यह कड़वी सच्चाई है कि दलित समाज हमारे ही भारतीय समाज के कुटुंब में सदियों से प्रताड़ित रहा है अत: उसके संघर्ष को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता है। इस वर्ग को साहित्य में पहले भी प्रस्तुत किया जाता रहा है पर वह प्रस्तुति भोगे हुए यथार्थ से उत्पन्न नहीं थी। बहुत कम साहित्यकार होते हैं जो ’परकाया प्रवेश’ की उदार संवेदना रखते हैं अत: प्राय: जो साहित्य दलित समाज की प्रस्तुति करता भी था उसमें अनुभव की गहनता कम रहती थी। और अगर यह गहनता उनमें है तो भी दलित समाज के भोगे हुए यथार्थ को और अधिक लिखे जाने में समस्या नहीं होनी चाहिए। मेरे विचार से हर विमर्श, समाज के किसी एक वर्ग या समूह विशेष के विशिष्ट संघर्ष और साहस की प्रस्तुति से प्रारंभ होता है, उस समूह विशेष की बात को समाज के सामने तीखे रूप से प्रस्तुत करके, मानवीय चेतना को झकझोरने और अपने लिए समान संवेदना जगाने की चेष्टा करता है पर इन प्रश्नों को कुछ समय बाद हर लेखक/विमर्श व्यापक मानवीय चेतना और सामाजिक संवेदना से जोड़ता भी है। यह किसी भी विचार की स्वाभाविक परिणति भी है जिसमें बिंदु से सिंधु की ओर जाया जाता है। आख़िरकार ये विमर्श, व्यापक सामाजिक संवेदना जगाने के लिए, इस समाज के एटीट्यूड यानि तेवर को बदलने की चेष्टा ही तो कर रहे हैं ताकि असली अर्थों में सब में समानता आए और सब को सम्मान मिल सके चाहें वह दलित पुरुष हो या दलित स्त्री। 

स्वतंत्रता के पहले लगभग १९३० से शुरू हुई दलित चेतना स्वतंत्रता के बाद पूरे भारतीय समाज में एक आंदोलन के रूप में उभरी। बाबा साहब के महाराष्ट्र निवासी होने के कारण शायद वहाँ उसका ज़ोर लोगों को अधिक दिखा होगा पर पूरे भारत में इसका स्वर गूँज रहा था। संवैधानिक समान अधिकार दिलाने में डॉ. अंबेडकर का बहुत हाथ रहा। उन्होंने दलितोद्धार को सामाजिक आंदोलन का रूप दिया। गाँधी-विनोबा के दलितोद्धार का मूल था हृदय परिवर्तन द्वारा, हरिजन को सम्मान दिला कर समाज में समानता की स्थापना जबकि डॉ. अंबेडकर की विचारधारा पूरी तरह सामाजिक संरचना को बदल कर दलित वर्ग को उनके अधिकार और सम्मान दिलाने की रही। इन सामाजिक आंदोलनों के बारे में विस्तार से आप इस अंक के कई लेखों में पढ़ेंगे। डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का लेख, ’दलितों के मसीहा विवेकानंद’ वस्तुत: आँख खोल देने वाला लेख है जिसमें अनेक उद्धरणों के माध्यम से गोयनका जी ने विवेकानंद जी के क्रांतिकारी विचारों को रखा है। विवेकानंद जी सामाजिक संरचना को बिगाड़ने वाले जातिवाद और ब्राह्मणों के पाखंड पर प्रहार करते हुए नीची कही जाने वाली जातियों को ऊपर लाने की बात १८वीं शती के अंत में, गाँधी, विनोबा, डॉ. अंबेडकर सभी से बहुत पहले कर गए हैं। वे तीखे शब्दों में अस्पृश्यता मानने वाले, ’छुओ-मत-वादी’ समाज को आमूल बदलने की बात कहते हैं और सबसे बड़ी बात जो विवेकानंद कहते हैं, वह यह कि कर्ण, नारद, द्रोण, कृप जो निम्न जातियों से ही ऊपर उठे, वे उच्च जातियों में मिल गए, उनके ऊपर उठने का लाभ उनके समाज को क्या मिला? यह एक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण प्रश्न है।

दलित साहित्य की धारा बिल्कुल नई नहीं है। इसका इतिहास १९१४ में ’सरस्वती’ पत्रिका में हीरा डोम  की लिखी, ’अछूत की शिकायत’ और अछूतानंद ’हरिहर’ से प्रारंभ होकर आज तक चल रहा है। ’जय भीम’ का नारा देने वाले बिहारी लाल हरित ने तो १९४० के दशक में अपनी भजन मंडली के साथ मिल कर घर-घर उद्बोधन गीत पहुँचाए। महाशय नत्थु राम ताम्र मेली, ओम प्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चौहान, जयप्रकाश कर्दम, दयानंद बटोही, डॉ. धर्मवीर, रजनी तिलक, सुशीला टाकभौरे, रमणिका गुप्ता, डॉ. श्योराज सिंह आदि इस साहित्य के अनेक बड़े नाम हैं। उनमें से कुछ की रचनाएँ आप यहाँ पढ़ेंगे। अनेक अ-दलित साहित्यकारों ने भी संवेदनात्मक विश्लेषण द्वारा इस साहित्य को चर्चा में लाकर साहित्यिक और सामाजिक जागरूकता में अपना योगदान दिया है, उनके लेख भी इस अंक में हैं। बहुत सी कविताओं, कहानियों, उपन्यास अंश और आत्मकथा अंश को इस अंक में समेटा गया है। दलित साहित्य में आत्मकथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है जिनके कारण यह साहित्य बहुत गंभीरता से लिया जाने लगा साथ ही ये आत्मकथाएँ अन्य लोगों के लिए भी संघर्ष और साहस की प्रेरक विजय गाथा बनीं। इस अंक में सुशीला टाकभौरे जी की आत्मकथा के अंश इस बात के गवाह हैं। साथ ही रजतरानी मीनू, रजनी दिसोदिया, रजनी अनुरागी, पूनम तुषामड़ आदि लेखिकाओं की उपस्थिति दलित स्त्री साहित्य का प्रतिनिधित्व कर रही है। इस साहित्य की सरल और प्रांतीय शब्दों से भरी सरल भाषा भी ध्यान देने योग्य है। संक्षिप्त वाक्य, दो टूक बात, बिना लाग-लपेट या कलात्मक रहस्यवादी आवरण के बात कह देने वाला यह साहित्य एक अलग शैलीगत सौंदर्य पैदा करता है। इनकी शैली की यह संक्षिप्तता मानों जीवन की तीखी नोंक है जहाँ कुछ भी अतिरिक्त नहीं!

हमें विश्वास है कि दलित साहित्य, दलित कहे जाने वाले मनुष्य के संघर्ष और अपार संभावनाओं को न केवल उकेरने बल्कि उन संभावनाओं को उभारने वाला साहित्य बन कर, अपने सशक्त स्वर से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करता रहेगा।

डॉ. शैलजा सक्सेना (विशेषांक संपादक)

साहित्य संरक्षण देता है, वह मनुष्य की चेतना और उसके विवेक को, उसके मानवीय मूल्यों को संरक्षित करता है। इसी से युगों पहले लिखा गया साहित्य भी प्रासंगिक हो जाता है। जब-जब मूल्यों का हनन होता है तब उन मूल्यों के हननकर्ताओं पर साहित्य अपने आक्रोश की तलवार तानता है, अपने साहस की दीवार पर खड़ा होकर उन्हें चुनौती देता है। दलित साहित्य भी युगों से उपेक्षित, प्रताडित, निरंतर दरिद्रता और अपमान में जीने वाले मनुष्य का क्रांति गीत है, साहस की लय पर उठता आशा का नृत्य है, अनेकों वर्षों से घाव खाए हृदय को मान से दिखा कर भी, भविष्य के स्वास्थ्य की सशक्त प्रस्तावना है।

साहित्य आरक्षण नहीं देता और न ही किसी युग या विमर्श को साहित्य में आरक्षण चाहिए। हिन्दी साहित्य के कई युग आए, रहे और फिर नए स्वरों और नए नामों में परिवर्तित हुए। हमें आज के समय में जो अनेक विमर्श दिखाई देते हैं, वे गहरी विश्लेषाणत्मक दृष्टि से उपजे, सामाजिक संतुलन की प्रक्रिया के द्योतक हैं। ये विमर्श साहित्य के खाँचे नहीं हैं बल्कि मुख्य साहित्यिक धारा में बहती अंतर्धाराएँ हैं जिनमें अपने-अपने विशिष्ट विचार-विवेक का रंग और संवेदना का आवेग दोनों हैं। ये मुख्य धारा का हिस्सा ही हैं। संगम पर जैसे नदियों को रंगों से हम पहचानते हैं, ठीक वैसे ही ये साहित्यिक धाराएँ भी अपनी विशिष्टता लिए, साहित्य के मूल स्वर ’बहुजन हिताय’ के भीतर बैठे विभिन्न व्यक्तियों की पीड़ा और प्रसन्नता एवं संघर्ष और जिजीविषा को भिन्न कोणों से देखती हुई, उन्हें अभिव्यक्त करने के उद्देश्य को समर्पित हैं। व्यक्ति, समाज और इतिहास के समीकरण के बीच अपने स्वर ढूँढती और अपना स्थान बनाती इन साहित्यधाराओं को हमें इनकी विशिष्ताओं में ही समझना चाहिए। दलित साहित्य भी अपने लिए किसी आरक्षण की माँग नहीं कर रहा बल्कि इन विमर्शों के साथ बैठा भविष्य का मानचित्र बना रहा है। ठीक वैसे ही जैसे प्रवासी साहित्य की धारा प्रवासी लेखकों के देश से बाहर होने के अनुभव पर आधारित है, ठीक वैसे जैसे स्त्री विमर्श, स्त्री की संवेदनात्मक विशिष्टता को उजागर करने के लिए स्त्री के गहरे अनुभव संसार पर आधारित है ठीक वैसे ही दलित साहित्य, दलित जीवन के कठोर और घोर कष्टकारी अनुभवों के बीच सम्मानित जीवन और उन्नतिमूलक सामाजिक स्थितियाँ पाने के संघर्ष पर आधारित है। 

प्रवासी हिन्दी प्रेमियों के समक्ष दलित चेतना और संवेदना, संघर्ष और सफ़लता के प्रेरक स्वरों से ओत-प्रोत इस विशेषांक को प्रस्तुत करने का यही उद्देश्य है कि हम साहित्य की इस धारा को इसकी समग्रता में समझ सकें। इस अंक के लेख, कहानियाँ, कविताएँ, पारंपरिक सामाजिक संरचना में छटपटाते मनुष्य के मन में उठते आंदोलन के बीच हमें ले जायेंगी और हमारे मन को भी आंदोलित करेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

इस अंक के लिए हम उन सब लेखकों के आभारी हैं जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय निकाल कर हमें अपनी रचनाएँ भेजीं। हमें दलित चेतना के प्रतिष्ठित अग्रज साहित्यकारों जैसे जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, दयानंद बटोही, कावेरी, तेजपाल सिंह तेज, सुशीला टाकभौरे, अजय नावरिया, रतन कुमार साँभरिया आदि का सहयोग मिला। इस अंक में आप रजतरानी मीनू, मुकेश मानस, मुसाफ़िर बैठा, रजनी दिसोदिया, रजनी अनुरागी, डॉ. पूनम तुषामड, टेकचंद जी, नरेश कुमार आदि जैसे अपनी अलग पहचान बनाए लेखकों और अनेक नए लेखकों को भी पढेंगे। साथ ही अनेक विषयों पर सूक्ष्म दृष्टि से गहरी विवेचना करने वाले आदरणीय कमल किशोर गोयनका जी का शोध पत्र, हंसराज कॉलेज की प्राचार्या डॉ. रमा और डॉ. रेखा सेठी के शोध लेख को प्रस्तुत करने का भी हमें सौभाग्य मिला। 


 मैं सभी लेखकों और इस अंक की सहायक संपादिका, अपनी प्रिय मित्र, डॉ. रेखा सेठी की आभारी हूँ जिन्होंने मेरा संपर्क इस साहित्य के प्रतिष्ठित लेखकों से करवाया और अपनी संतुलित वैचारिकी से मुझे निरंतर सहयोग दिया। सुशीला टाकभौरे जी और रजनी अनुरागी जी ने भी इस संपर्क में बहुत मदद की। अनेक लेख अंतिम तिथि के बाद, आज सुबह तक भी आए और उन्हें न छोड़ने की इच्छा में यह अंक अपने नियत दिन से कुछ आगे चला गया। इंटरनेट की सुविधा के चलते हम इस अंक में बाद में आए लेख भी जोड सकेंगे अत: अगर आपके कोई लेखक मित्र इस विशेषांक के लिए अपनी रचना भेजना चाहें तो नि:संकोच भेज सकते हैं। यही इच्छा है कि यह विशेषांक एक दस्तावेज़ के रूप में हर उस साहित्य प्रेमी के लिए बहुत कुछ उपलब्ध करा सके जो दलित साहित्य को जानने की इच्छा करता है। 
 मैं साहित्यकुंज के संपादक श्री सुमन कुमार घई जी की बहुत आभारी हूँ जिन्होंने विशेषांक की इस कड़ी को प्रस्तुत करने की न केवल अनुमति दी बल्कि इसकी प्रस्तुति में हर प्रकार से समय और ऊर्जा देकर बहुत अधिक मदद भी की। 

आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।

सादर
– शैलजा

(विशेषांक सह-संपादक)

सह-संपादकीय

कुछ बातें : कुछ विचार

 

साहित्यकुञ्ज लंबे समय से साहित्य के सार्थक संवाद को पूरी निष्ठा से आगे बढ़ा रहा है। दलित चेतना और साहित्य के प्रति उनकी यह पहल एक महत्वपूर्ण क़दम है। श्री सुमन घई जी और डॉ. शैलजा सक्सेना दोनों को इस कार्य के लिए बहुत बधाई और साधुवाद। शैलजा जी से मेरा संबंध बहुत पुराना है यह संबंध मित्रता का तो है ही, लेकिन उससे ज़्यादा साहित्य संवाद की साझेदारी का है। सात समुंदर पार बैठकर भी शैलजा और मेरे बीच साहित्यिक गतिविधियों तथा नए-नए लेखन को लेकर लगातार संवाद बना रहता है। ऐसी ही एक बातचीत में दलित चेतना पर आधारित इस विशेषांक की योजना बनी। 

दलित साहित्य पर अनेक विशेषांक आए हैं। शैलजा का पूरा आग्रह था कि दलित चेतना पर बातचीत विमर्श के घेरे से बाहर हो। इसलिए उन्होंने सबको ईमेल और मैसेज भेजें कि जो भी इस विषय पर लिखना चाहें उन सबका स्वागत है। यह पद्धति अपने समय के महत्वपूर्ण सवाल पर समावेशी और लोकतान्त्रिक पारदर्शिता लिए हुए इसका उद्देश्य कहीं ना कहीं यह  भी था कि विशेष रूप से कुछ युवा साथी जो इस विषय पर शोध कर रहे हैं, वे इसमें शामिल हों। और वे हुए भी। उनके साथ-साथ कुछ ऐसे लोग भी शामिल हुए जिन्होंने संभवत पहले दलित लेखन या उसकी चिंताओं पर इतने विस्तार से नहीं लिखा था। एक तरह से जो भी लोग इस अंक में शामिल हैं, यह पूरी प्रक्रिया, उन सबके लिए इन सवालों से सीधे रूबरू होने का अवसर प्रदान करती है और यह इसकी उपलब्धि भी है। हो सकता है की अलग-अलग आवाज़ों के आने से कुछ बहसें तीव्र हो जाएँ। कुछ वैचारिक टकराहटें भी हों लेकिन इस सब में शैलजा जी की जो संकल्पना है, उसे विनम्रता पूर्वक आदर के साथ ग्रहण किया जाना चाहिए। 

उन्होंने मुझे इस अंक के लिए सह संपादक के रूप में चुना, उसके लिए उनका हृदय से आभार। लेकिन सही मायने में देखा जाए तो कुछ नाम सुझाने या उनसे मिलवाने के अधिक मैं कुछ भी नहीं कर पाई। सामग्री का संकलन, संयोजन, प्रूफ संशोधन, प्रस्तुति सब में उन्होंने अथक परिश्रम किया है। उनके इस परिश्रम को सलाम करते हुए मैं एक बार फिर सुमन घई जी का भी धन्यवाद करना चाहती हूं जिन्होंने इस अंक का अवसर दिया। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि साहित्यकुञ्ज के माध्यम से चिंता और चिंतन के जो हमारे बिंदु हैं वे अंतरराष्ट्रीय पाठक वर्ग तक पहुँचेंगे।  

हमारे यहाँ समस्या जाति की है और पश्चिमी देशों में नस्ल और रंग-भेद की। इस पर भी विचार होना चाहिए कि असमानता और भेद-भाव की अलग-अलग प्रणालियों में कितना अंतर है तथा उसके सामाजिक-सांस्कृतिक आशय क्या हैं? यहाँ जो रचनाएँ संकलित की गई हैं, उनके पाठ और अंत:पाठ करने की प्रक्रिया में बहुत सी ऐसी बातें सामने आएँगी जिन पर विचार होगा। यदि आप में से कुछ सुधि पाठक इनके अंग्रेज़ी अनुवाद कर इसे ऐसे मंचों पर साझा करें जहाँ black lives matter जैसे आंदोलनों पर चर्चा हो रही है तो इस अंक की अलग ही सार्थकता होगी! 

धन्यवाद 
– रेखा सेठी 
 

इस विशेषांक में

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