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सुरंग 

मैं जानता हूँ, मुझे बराबर उलाहना-परतरा लोग देते रहे हैं, गोया कि आदमी न होकर अन्य जीव हूँ। फिर भी मैं हार नहीं माना हूँ, नहीं मान रहा हूँ क्योंकि मुझे मालूम है तनिक सा परिश्रम मुझे अभी नहीं करना है। अभी तो ढेर सारे संघर्ष मुझे करने हैं। मुझे क़तई दुख नहीं कि पीएचडी-रिसर्च मुझे करने नहीं दिया गया। मुझे बराबर जाति-पांति के पचड़े के कारण टकराना पड़ा है। अच्छा भी है। एक दूसरे को जब तक नहीं जानते तब तक ख़ूब गोल-गोल बातें होती हैं लेकिन ज्यों ही जाति की गंध लोगों को मिलती है लोग मुँह सूअर जैसा निपोरने लगते हैं। जाति की गंध टाइटिल से मिलती है। यदि टाइटिल नहीं है तो रंग, पहनावा पर धावा बोलते हैं। मेरे शरीर में ज़हर फैल जाता है जाति के ठेकेदारों द्वारा जाति पूछे जाने पर।

इस समय मैं अपने को अकेला समझ रहा हूँ, फिर भी दम नहीं तोड़ा हूँ। तोडूँ भी कैसे? डॉ. विष्णु ने जब पूछा, आपका एम.ए. का नम्बर कैसा है, तब बिना झिझक के झट कह दिया, नंबर तो अच्छा नहीं है। उनकी नाक-भौंह में कोई बदलाव नहीं आ रहा है, देख रहा हूँ। सिर्फ लिज-लिज ताक रहे हैं। साक्षात्कार सात बजे सुबह से चल रहा है। इस समय दस बजकर बीस मिनट हुए हैं। मुझसे पहले कई लड़के-लड़कियों का इंटरव्यू हो चुका है। मुझसे दूसरा प्रश्न पूछते हैं, आप कुछ लिखते भी हैं? लिखता तो हूँ, मैं कहकर उहापोह में न पड़कर प्रेमचंद, मुक्तिबोध, डॉ. अम्बेडकर, गाँधी, बुद्ध के चित्रों पर आँखें गड़ा देता हूँ।

"ठीक है," डॉ. पासवान ने कहा, "इनकी कई रचनाओं को पढ़ा हूँ, देखा हूँ। छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में अच्छा लिखते हैं।" डॉ. विष्णु ने इतना अधिक नमक, मिर्च मेरे कान में डाल दिया कि मैं बहरा सा हो गया, "लिखते हैं तो क्या हुआ, आखिर हरिजन ही तो हैं!" 
मेरी नसों में दर्द के कीड़े कुलबुलाने लगे। डॉ. सुखदेव अपनी टोपी टेढ़ी करते हुए कहते हैं- "हरिजन हैं आप?"

"जी हाँ," मैं कह देता हूँ- "आप लोगों को क्या लग रहा है?" चुटकी ली मैंने, हालाँकि रिसर्च के लिए इंटरव्यू बोर्ड के सामने बैठा हूँ। 

डॉ. पासवान ने अँगुली दिखाते हुए कहा- "हरिजन रहे या दुर्जन, समाज के लोगों ने बहुत धोखा दिया है आज तक।" डॉक्टर विष्णु सर हिलाते हुए कहते हैं- "कोई हो, सरकार ने भले ही कानून बना दिया हो, घोड़े की रस्सी तो हमी-आपके हाथ में है। आपका रिसर्च में नहीं होगा।" मेरी ओर देखकर कहा था। लगा कि मुझे ज़िंदा जला देना चाहते हैं। मेरा सोया हुआ दर्द पिघलने लगा है और दर्द की बेचैनी में संतुलित रहना वश की बात नहीं। मैंने भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया, देना मुनासिब समझा- "डॉक्टर साहब, आप भूल जाएँ कि मैं हरिजन हूँ, गुलाम हूँ। मगर, पराधीनता की जंजीर टूटनी है। आज तक आप जैसे तानाशाह ने अंधेरे में हम लोगों को रखा है। अब मैं पूछता हूँ, आप क्यों रिसर्च नहीं करने देंगे?"

उन्होंने हाँफना शुरू किया था। थूक फेंकने के बदले घोंट लिए और कहा- "क्योंकि आपका एम.ए. का नंबर अच्छा नहीं है, क्लास द्वितीय है।"

"द्वितीय क्लास आपलोगों ने रखा ही क्यों है?"

"मैंने थोड़े ही रखा है।"

"ठीक है आप नहीं, आप जैसे लोगों ने तो रखा है!"

बात बढ़नी स्वाभाविक है क्योंकि खौलती कड़ाही में एक बैंगन को डाला जा रहा है, मैं अंतर्मन को महसूस कर रहा हूँ। टेबल पर हाथ पटकते हुए कहता हूँ- "डॉक्टर साहब, आप भूल जाएँ कि आप लोग अंधेरे के बीच कुतर-कुतर कर हम दलितों को खाते-डकारते रहे हैं, अब पचेगा ही नहीं आपको!

"शटअप!" विष्णु चिल्लाते हुए चश्मा उतारने लगे हैं। टाई ठीक कर रहे हैं, चेहरा काँप रहा है, सुर्ख हो गया है।

मैं इत्मीनान होकर पूछता हूँ- "व्हाई? व्हाई डिड यू हर्ट मी...?" 

उनके चेहरा पर पसीने की बूंदें पपड़िया रही हैं। मुझे लगता है, अब इनका दिल पसीज रहा है लेकिन तुरंत ख़ामोशी को तोड़ते सुखदेव भी हाँ में हाँ मिला रहे हैं- "आप वाइस चांसलर के यहाँ जाइए।"

"क्यों जाऊँ?"

"क्योंकि आप सेकेंड क्लास एम.ए. हैं, मार्क्स कम है, रिसर्च नहीं कर सकते।"

"केवल मैं या कोई और भी! सभी डिपार्टमेंट में थर्ड क्लास वाले रिसर्च कर रहे हैं, केमिस्ट्री, फिजिक्स, हिस्ट्री, इकोनॉमिक्स में, मेरा तो सेकेंड क्लास है।"

विष्णु हाँफ रहे हैं, ऐसा मैं महसूस कर रहा हूँ। वह भी भावावेश में आ गए हैं, कहते हैं, "हाँ हाँ, वैसा तो डॉ. रूपेन सक्सेना, डॉ. गजेंद्र, डॉ. फगुनी सिंह, थर्ड क्लास एम.एस-सी. हैं, एम.ए. हैं किंतु वे तो ऊँचे परिवार के हैं।" अब उन्हें लगा, अधिक कुछ कहना उनका भंडाफोड़ करना है। वह हाँफ रहे हैं। 

मुझे लगा, वाइस चांसलर के पास जाने से पहले अपने अंदर खौलते खून को उगल दूँ तब ठीक होगा। मैंने टेबल पर ज़ोर से मुक्का मारा। वे लोग घबड़ा रहे हैं लेकिन कुटिल हँसी हँस रहे हैं। 

"डॉक्टर साहब यह भूल जाइए कि आपसे दया की भीख माँग रहा हूँ। मैं पूछता हूँ, आप लोग हरिजन कल्याण का ढिंढोरा क्यों पीटते हैं, आरक्षण कहाँ दे रहे हैं? जब लोग अच्छा कर रहे हैं तो आप कल्याण क्या करेंगे? चौदह प्रतिशत सुरक्षित का फतवा क्यों देते हैं? सरकार की तथा मानवता की आँख में धूल झोंक रहे हैं। मुझे आप रिसर्च नहीं करने दें कोई बात नहीं, लेकिन कोटा आपको पूरा करना है।" मेरे जेहन में ख़ून तेज़ हो गया है। विभागाध्यक्ष जम्हाई ले रहे हैं। पट-पट अपनी अँगुलियों को तोड़ते हैं और कहते हैं, "मुझसे नहीं, वाइस चांसलर से पूछिए।" 

"ठीक है," कहकर मैं कुर्सी को धकेलता चला आया।

वाइस चांसलर का दरवाज़ा बंद है। और मैं पीतल के चमकते प्लेट पर पढ़ रहा हूँ- "आउट"! "आउट" शब्द से मेरे अंदर चिंगारी फैल रही है। विश्वविद्यालय के तमाम तनावों को झेलता हुआ मैं छात्रावास थका-थका आ गया हूँ। मैं सोचता हूँ, नब्बे प्रतिशत लोग इसी तरह दबाए जाते रहे हैं, कि तभी रसोइया अयोध्या पंडित आकर हाथ जोड़ देता है- "बाऊजी! खाना संझा के खाइब कि नाहीं, पैसा कुछ देब?" 

मैं पसीना में भीग जाता हूँ। पैसे तो परसों ही समाप्त हो गए थे। घर में पिताजी भी बीमारी से लड़ रहे हैं। माँ भी आजकल दिन गिन रही है। पत्नी उलाहना देती है कि दो बच्चों का बाप होकर भी पढ़ रहे हैं। मैं पुनः सोचने लगता हूँ, आख़िर, अंधेरी सुरंग में हम लोग कब तक रहेंगे? हाथी और हाथी की सूँड़, दोनों को सुई के छिद्र से निकालना चाहते हैं!

लोग कहते हैं, 20 वर्षों से सुविधा दी जा रही है। जब कई सौ वर्षों तक अंधेरे में रखा गया है, चाहते हैं लोग तुरंत दौड़ने लगे। संस्कार तो धीरे-धीरे ही बदला होगा इन लोगों का भी। ये लोग भी तो कभी अछूत थे, आज बड़े तेज़ हैं। कितने आईसीएस होते थे इन लोगों में से? हुंह! आज हरिजन दुर्जन!

मुझे लगा अन्दर ज़हर फैल रहा है। मैंने रसोइया पंडित को कुछ नहीं कहा तो भी वह भाँप जाता है। 

मैंने साफ़ कहा, "भाई, पैसे नहीं हैं, खाना नहीं खाऊँगा।" 

"पैसे नहीं हैं?"

वह जोड़ दिया, "सरकार भूखे रहि ही? खाना तो खाए के पड़ी।" 

मैं बिना खाना खाए रात में यूँ ही सो जाता हूँ। तमाम चिंताएँ हा-हू कर रही हैं। सोने में भी शांति कहाँ, सिर्फ़ दुश्चिंताएँ!

सुबह हार्वर्ड हाल से जयशंकर के साथ मैं गेट के बाहर आ गया था कि इत्तिफ़ाक़ से नगेंद्र वर्मा मिला। हाथ में चुनाव का पम्फलेट लिए था। हम लोग ताड़ गये, कन्वेसिंग करने आया है। मेरे साथ बात नहीं के बराबर हुई। 

"ठीक! जीत होगी आपकी! पहले एक काम कराइए तब तो पूरा हार्वर्ड हॉल आप को वोट देगा।" जयशंकर की बातों से वाकिफ़ होना लाज़िमी समझ उसने पूछा, "कौन सा काम है?" 

"ये हरिजन हैं, इन्हें रिसर्च नहीं करने दिया जा रहा है, जबकि हम सभ्य कहलाने वालों के परिवार के थर्ड क्लास लड़के-लड़कियों को रिसर्च करने दिया जा रहा है। यूनियन के अध्यक्ष रघुनाथ की बहन थर्ड क्लास आई है, उसे हिंदी में रिसर्च करने दिया जा रहा है जबकि ये हरिजन सेकेण्ड क्लास के हैं तथा हिंदी की प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ, कविताएँ, साहित्यिक निबंध चाव से लोग पढ़ते हैं। आख़िर, प्रथम श्रेणी कितने हैं? और कितने को अच्छा अंक आता है? मापदंड क्या है, विष्णु जी को पता नहीं चलता। भाई! सरकार की आरक्षण नीति को तो वे हमेशा टालते रहे हैं।" उसने भी हरिजन जानकर कतराना चाहा, मगर जयशंकर ने साफ़ कहा, "भाई, काम पर ही जीत-हार है। जन्म से तो हरिजन कोई नहीं।"

हम तीनों विश्वविद्यालय के अहाते में हैं। और वाइस चांसलर की गाड़ी लगी है। वाइस चांसलर  मिश्रा कुछ लिख रहे हैं।

"क्या हम लोग आ सकते हैं?," हम में से किसी ने कहा। 

"हाँ हाँ आइए, कहिये?"

"बात है, हम लोग जानने आए हैं। हरिजनों को सुविधा सिर्फ़ काग़ज़ पर है या व्यवहार में?" 

मिश्रा जी ग़ौर फ़रमाते हुए कहते हैं- "साफ़-साफ़ कहिए!" 

"सर ये ग़रीब हरिजन जाति के हैं। हिंदी में सेकेंड क्लास एम.ए. पास हैं। विभागाध्यक्ष रिसर्च करने नहीं दे रहे जबकि अन्य लोग (हरिजन छोड़कर) हिंदी के अलावा विज्ञान में जो थर्ड  क्लास हैं रिसर्च कर रहे हैं।" 

मिश्रा ने कहा- "क्या इसमें भी थर्ड क्लास कर रहे हैं?" 

"जी हाँ, लीना, नरोत्तम सिंह थर्ड क्लास हैं, रिसर्च कर रहे हैं। सेकेण्ड क्लास तो कई हैं, इनसे कम अंक वाले।" 

वाइस चांसलर मिश्रा ने न चाहते हुए भी लिखा- "हेड, प्लीज़ कंसीडर द केस।"

 

विभागाध्यक्ष के सामने जब मैंने काग़ज़ पेश किया तब उनकी नानी मरने लगी। उनके चेहरे पर अजीब दहशत छा गयी। पढ़ने के बाद पूरा सन्नाटा छाया रहा। फिर कहाँ– क्या कंसीडर करें? अभी भी उनका राक्षस हृदय नहीं पिघल रहा था। बहुत कहासुनी के बाद मुझे बुलाया और 8 दिन के बाद मुझे लाइब्रेरी कार्ड के लिए अनुमति दी। मैंने ज़्यादा हो-हा नहीं किया, ऐसी बात नहीं। मुझसे जब विश्वविद्यालय का यूनियन का सेक्रेटरी मिला तो उसने कहा– "रिसर्च में करा देंगे लेकिन विष्णु कहते हैं, अधिकार की माँग क्यों करता है? वह तो हरिजन होकर पढ़े-लिखे जैसी बात करता है। भंडाफोड़ कर रहा है आरक्षण नहीं लागू करने का।" 

मुझे इस बात से दुख होता है कि द्रोणाचार्य की परंपरा कब तक जारी रखेंगे ये लोग, और मैं चला आता हूँ। 

घर से चिट्ठी आई है– अकाल में हालत खराब है। सभी बंधुआ मजदूर गाँव छोड़कर शहर भाग रहे हैं। मैं खर्च कहाँ से भेजूँ? कोई कर्ज नहीं देता। सभी कहते हैं, हरिजन होकर इतना पढ़ा दिया। मैं अपने गाँव वापस आ जाता हूँ।

पुनः जब जनवरी में गया और मैंने कहा– "अब इनरोल कर दिया जाए।" तो उन्हें ज़हर फैलने लगा और और झट कह दिया, जुलाई में आइये। मैंने अब अधिक टालमटोल को बेकार समझा और कहा– "आप भी मनु जैसा कान में शीशा उड़ेलना चाहते हैं, द्रोणाचार्य जैसा अँगूठा का दान लेना चाहते हैं? मगर याद रखिए, अंधेरे का सैलाब फाड़ कर अपना हक़ लेंगे। आप जैसे कुटिल लोगों ने ही तो हरिजन-दुर्जन का भेद बनाने में सहयोग दिया है। आपका हम घेराव करेंगे।" 

उन्होंने ताव से कहा–- "जो चाहो करो। जब तक हूँ, हरिजनों को रिसर्च नहीं करने दूँगा।" 

मुझे लगा यह शख़्स बहुत काइयाँ है और मैंने तुरंत यूनियन में आकर बातचीत करना मुनासिब समझा, क्योंकि अब तो प्रेसिडेंट, सेक्रेटरी बन गए थे और उस संस्कार से मुक्त थे। लेकिन उन लोगों ने भी मुकरना चाहा। तभी गंगा झा ने कहा– "नहीं, यह तो हम लोग जात-पांत के नाम पर अन्याय कर रहे हैं। साहब, ये हरिजन हैं तो क्या हुआ, हम भी तो हरि-जन हैं? इन्हें अभी मौक़ा मिलना चाहिए। लोगों ने हमें मौक़ा दिया तभी तो आज हम तेज़ भी हैं, सभ्य भी। पहले हम कितने तेज़ और सभ्य थे, सबको मालूम है!" 

"ठीक है भाई झा जी, लड़कों से घेराव के लिए कहिए, यह मानवता के ख़िलाफ़, नियम के ख़िलाफ़, कानून के ख़िलाफ़ काम दही का रखवाला बिलाड़ विष्णु कर रहे हैं। हिंदी क्या, सभी विभागों में थर्ड क्लास कर रहे हैं, सिर्फ़ गाइड तैयार हो और फिर गाइड तो इनके लिए डॉ. अवस्थी तैयार ही हैं।"

देखते-देखते भीड़ उमड़ने लगी। पूरा विश्वविद्यालय शोरगुल से गूँजने लगा। डॉ. विष्णु पखाना के बहाने कमरे में बंद हुए सो सात बजे निकले और माफ़ी माँगते हुए दाँत निपोरते हुए कहने लगे- "आप लोग घेराव क्यों कर रहे हैं? आख़िर, आप सब हरिजन तो नहीं हैं? आप इनका साथ क्यों दे रहे हैं?"

आवाज़ें गूँज गयीं– "हम सब मानवतावादी हैं। अब पुराना ढोंग नहीं चलेगा। हम सब एक हैं।" एक छात्र ने गरजते हुए कहा– "दही का रखवाला बिलाड़! हरिजन होना गुनाह नहीं है। गुनाह तो आप कर रहे हैं पूरी मानवता के साथ।"

दूसरा स्वर उभरा– "आप अपने विभाग में थर्ड क्लास को रिसर्च करा रहे हैं मगर, हरिजन सेकेण्ड क्लास भी रास नहीं आया? रामनगीना की पत्नी, सुरेश की बहन कौन क्लास एम.ए. में लाई है?" 

अब पूरा शोर तैरने लगा– "मुर्दाबाद! मानवता ज़िंदाबाद! हम सब एक हैं।" 

उन्हें लगा, यदि वे अब नहीं झुकते हैं तो पूरे माँस-हड्डियाँ ये लोग चपर-चपर चबा जाएँगे। उन्होंने नहीं सोचा था कि आज एकलव्य पूरी बात को जान गया है और मन ही मन कुछ सोचा। फिर बत्तीसी निपोरी, जिसमें खैनी और पान का मिश्रित टुकड़ा अपनी गंध तथा उपस्थिति दे रहा था। कहा– "भाई, मैं तो सरकार की आरक्षण नीति को लागू करना चाहता हूँ। अभी तक तो वास्तव में एक भी हरिजन छात्र रिसर्च नहीं कर सका है। मैं तो चाहता हूँ, सभी जातियों के लोग तरक्की करें। आप तो जानते ही हैं, मैं गाँधीवादी हूँ। गाँधी के आश्रम में कुछ दिन रह चुका हूँ।" 

तभी दूसरा स्वर रघुनाथ सिंह का उभरा– "बस, बस, रहने दीजिए अपनी फिलॉसफी, अनुमति देते हैं या जाऊँ?" उन्हें लगा, अब लोग पूरा वाकिफ़ हो गए हैं और फिर टालने पर कुछ भी हो सकता है। धीरे से कहा– "ठीक है, इन्हें रिसर्च करने की अनुमति देता हूँ। लाइए एप्लीकेशन।" और कुछ ही क्षणों में भीड़ इधर से उधर होने लगी। 

दूसरे रोज़ मुझे रिसर्च के लिए एनरोल्ड होने की अनुमति मिल गई। रिसर्च के लिए विषय मैंने चुना था– "हिंदी साहित्य में अछूत साहित्यकारों का योगदान"।  बीच-बीच में बहुत बाधाएँ आईं। और अंत में, डॉ. विष्णु को एक लड़की के साथ पकड़ा गया और उन्हें सज़ा हो गई। 

मैं सोचता हूँ, वह सफ़ेद होकर भी कितना काला था लेकिन दूसरों को साफ़ रखने की सीख देता था। मेरी पुस्तक "सुरंग" उनके यहाँ समीक्षार्थ गई थी। उन्होंने काफ़ी साफ़गोई के साथ समीक्षा की है। ऐसा लगता है, अब वे मुझे नहीं पहचानते, नहीं जानते। पीएच.डी. की डिग्री लेकर अब मैं व्याख्याता हूँ। साक्षात्कार के लिए विश्वविद्यालय में आया हूँ। मुझे 45 मिनट तक साहित्य के विभिन्न विषयों पर पूछा गया है। डॉ. सुखदेव झेंपकर भी संतुष्ट हैं, ऐसा लग रहा है।

इस विशेषांक में

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