अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

04 - कनाडा एयरपोर्ट

10 अप्रैल 2003

कनाडा एयरपोर्ट पर बहू-बेटे दोनों ही लेने आए थे। दिल से तो मैं यही चाहती थी कि बहू शीतल एयरपोर्ट पर न आए क्योंकि उसका प्रसवकाल निकट था। उसे फुर्ती से अपनी ओर आते देखा, लगा तो बहुत अच्छा। गृहस्थी की गाड़ी को खींचने वाले दोनों पहिये समान रूप से सक्रिय नज़र आए। उन्होंने हमारे चरण स्पर्श किए और और सीने से लग गए। तीन वर्ष का वियोग क्षण भर में मिट गया।

सफ़र की सारी थकान हम अपनी मंज़िल पर पहुँचते ही भूल गए। कार में एक दूसरे से नज़र टकराते ही आँखों में चमक आ जाती। मूक होकर भी हज़ार बात कह देते। कार रॉकेट बनी हवा को चीरती चिकनी सड़कों पर सरपट दौड़ रही थी। मेरी समझ में नहीं आया – ठंडे सुहावने मौसम में भी बेटे ने कार के शीशे चढ़ा रखे हैं और एयर कंडीशन चल रहा है।

"यहाँ तो प्रदूषण भी नहीं है। ताज़ी हवा के झोंके आने के लिए खिड़कियों के शीशे नीचे कर दो," मैंने सलाह दी।

उसने हमारी तरफ का शीशा थोड़ा सा हटा दिया। यह क्या! हवा के तीव्र झोंकों से हम आतंकित हो उठे। दूसरे कार की स्पीड भी बहुत तेज़ थी। साँय-साँय की आवाज ऐसी कर्णभेदी हो गई मानो जंगल में हलचल मच गई हो।

"अरे बंद कर शीशा," मैं चिल्ला उठी।

"बंद कर दूँ...," जान कर बेटा ज़ोर से बोला और हँसने लगा। "अब आया समझ में राज़ शीशे बंद रखने का।"

रोज़लोन कोर्ट में घुसते ही उसके बंगले के सामने खड़े हो गए। सीट पर बैठे ही रिमोट कंट्रोल का बटन दबाने से खुल जा समसम की तरह गैराज का शटर ऊपर जाने लगा। लॉन्ड्री रूम, रसोईघर ड्राइंगरूम पार करते हुए ऊपर जाने लगे। बेटा बहुत विनोदी स्वभाव का है सो सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उसका टेप रिकॉर्डर चालू हो गया।

"माँ, सुबह-सुबह ताज़ी हवा खाने के चक्कर में नीचे का दरवाज़ा न खोल देना। अलार्म बज उठा तो पुलिस आन धमकेगी और पकड़कर ले जाएगी।"

"हम क्या चोर है!"

"चोर तो नहीं पर ख़तरे की घंटी तो बज जाएगी। सुबह उठकर एलार्म का गलेटुआ घोंटना पड़ता है।"

"यहाँ भी चोरी होती है क्या? धनी राष्ट्रों में हमारे देश की तरह गरीबी कहाँ!" भार्गव जी बोले।

 "चोरी ग़रीब ही नहीं करता। आदत पड़ने पर अमीर भी चोरी कर सकता है। चोरी भी तो चौसठ कलाओं में से एक है।"

"अरे वाह! पहले से क्यों नहीं बताया माँ। मैंने बेकार आई.आई.टी. में चार साल गँवाए, यही कला सीखता।"

"ओह, तू तो बहुत खिजाता है। बस मेरी बात पकड़ ली।"

शीतल हमारी बातों का आनंद उठा रही थी। व्यवस्थित मास्टर बेडरूम, बेबी रूम, से होते हुए हम अपने शयनागार में पहुँचे। स्वच्छ चादर व फूलदार लिहाफ हमारा इंतज़ार कर रहे थे। शीतल के हाथ का खाना खाकर कुछ ही देर में हम शुभ रात्रि कहते हुए उसमें दुबक गए।

दिल्ली में तो मन में उथल-पुथल मची ही रहती थी कि बच्चे पराई संस्कृति में रह रहे हैं, कहीं बदल न जाएँ। न जाने किस विचारधारा से टकरा कर सुविधा के जाल में फँस जाएँ पर संस्कारों की जड़ें इतनी मज़बूत लगीं कि भटकन की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई दी।

विचारों की घाटियों से गुज़रते 2 बज गए। दिमाग़ ने कहा – सोने की कोशिश तो करनी ही पड़ेगी,कल से नए वातावरण से समझौता करने और उसे समझने का श्री गणेश हो जाएगा। कुछ भी हो हम 8 अप्रैल के चले 10 की रात कनाडा अपने घर तो पहुँच ही गए थे सो चिंतारहित चादर तान सो गए।

क्रमशः-

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

01 - कनाडा सफ़र के अजब अनूठे रंग
|

8 अप्रैल 2003 उसके साथ बिताए पलों को मैंने…

02 - ओ.के. (o.k) की मार
|

10 अप्रैल 2003 अगले दिन सुबह बड़ी रुपहली…

03 - ऊँची दुकान फीका पकवान
|

10 अप्रैल 2003 हीथ्रो एयरपोर्ट पर जैसे ही…

05 - बेबी शॉवर डे
|

12 अप्रैल 2003 कनाडा पहुँचने के दो दिन पहले…

टिप्पणियाँ

डॉ आर बी भण्डारकर 2021/08/14 04:25 PM

आपकी कनाडा डायरी के चार अंक पढ़े,अच्छे लगे।एक दो डायरियों में डायरी विधा और यात्रा संस्मरण का मंजुल समन्वय है।भाषा साहित्यिक और शैली प्रवाह पूर्ण है।देश,धर्म आदि के अंतर के बाद भी मनुष्य की मानवतावादी दृष्टि को आपने बखूबी प्रस्तुत किया है।आपकी इन डायरियों में यह विचार योग्य कथन मिला है कि संस्कार यदि सही ढंग से पड़ें तो देश, काल के बदलाव से भी उनपर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है।अच्छी डायरी के लिए बधाई हो सुधा जी।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

डायरी

लोक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं