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60 साल का नौजवान

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने जन्म भर सरकारी नौकरी इसी उत्साह के साथ की कि जिस दिन रिटायर हो जाऊँगा, चैन की साँस लूँगा और अपनी पेंशन से एक ऐशोआराम की ज़िंदगी जीऊँगा। अरे भई, सरकारी नौकरी करने वालों के लिए ऐशोआराम के मायने थोड़े अलग होते हैं। मेरे बच्चों की तरह लाखों का पैकेज नहीं हुआ करता। जिस दिन से नौकरी की शुरूआत होती है, सरकार अच्छा-ख़ासा बचत कराना सिखा देती है। सारा पैसा काटने की एक लंबी सी फेहरिस्त के बाद बचे-खुचे में ही दिल को दिलासा देना होता है, सो वही किया जीवन भर। अब जा के तमन्नायें जागी हैं। घर और बच्चों की ज़िम्मेदारियों से लगभग निवृत्त हो ही चुका हूँ। बच्चे अपने परिवार के साथ विदेश में नौकरी कर रह रहे हैं, उनका भी टेन्शन नहीं अब। इच्छा है कि घर में एक "विंडो एसी" तो लगवा ही लूँ। सब तरफ़ झुलसा देने वाली गर्म हवा है, अब ये हवाएँ सहन नहीं होतीं। ये बात अलग है कि "जब जेबें गर्म होती हैं तो इंसान की सहनशक्ति ठंडी पड़ने लगती है"। सारा जीवन तो एक कूलर और दो पंखों में गुज़ार दिया।

ख़ैर, एक और इच्छा जागृत हो रही है कि ज़रा कहीं बर्फ़ की वादियों में घूमकर आया जाए। भई कब बुलावा आ जाए, किसे पता? अपनी इच्छाओं का दमन भी क्यों करूँ? सही भी है, ज़िंदगी ज़िम्मेदारियों से जब मुक्त हो जाती है तब ऐसे ख़्यालात आना लाज़िमी ही है। और मैं कोई हवा में तो बात कर नहीं रहा हूँ। मेहनत की पूँजी का कुछ हिस्सा ख़ुद पर ख़र्च करने का हक़ है मुझे।

श्रीमती जी के साथ सारी गुफ़्तगू होने के बाद लगा कि यात्रा तो अब शानदार होनी ही चाहिये इसलिए एसी के ट्रेन के टिकट बुक कराना और रुकने के लिए होटल भी एसी होना अनिवार्य ही हो गया था। फिर लगा कि बर्फ़ से लौटकर आने के बाद इस बेजान कूलर में तो हम अपनी जान नहीं फूँक सकेंगे, सो मन बना लिया कि जाने के पहले ही एसी ख़रीदा जाए। ठीक है! अब हमारे अन्दर उतनी सहनशक्ति जो नहीं बची थी। भई, बुढ़ापे के पहले पायदान पर क़दम रख चुके थे।

इन सबमें मैंने एक बात जान ली थी कि जीवन भर की पहाड़ तोड़ने जैसी मशक़्क़त पर, पल भर का लुत्फ़ भी सहनशक्ति को कमज़ोर कर देता है। इसे ही तो आजकल "स्टैंडर्ड" कहते हैं। सारे पैसों की व्यवस्था हो गई थी। एटीएम कार्ड ने एक काम तो कम कर ही दिया था, बैंक की लंबी क़तारों से बच गए थे। अन्दर ही अन्दर मेरा उत्साह मुझे जेठ में ही पौष का एहसास करा रहा था, और मन तो सावन के झूलों पर हिचकोले ले रहा था।

इस हसीन पल को साझा करने रामवतार के पास भरी दोपहरी ही चल पड़ा, अपना छाता लेकर। मेरा सुख-दुःख का साथी जो ठहरा। कुछ बात हो और उसे ना बताऊँ तो मेरे पेट में पानी तक हज़म नहीं होगा। शाम का इंतज़ार कौन करता। रामवतार खेतों में था तो मैं भी उधर ही पहुँच गया। चिलचिलाती धूप, गर्म हवा के थपेड़े मुझे झुलसा रहे थे। ऊपर से उम्र का तकाज़ा, पर ये क्या? उसी गर्मी में रामवतार पूरी लगन से कम कर रहा था। बस।। सिर पर एक कपडा धूप से बचने के लिए, कच्छा और बनियान, और कुछ नहीं। उसकी नज़र मेरी ओर जैसे ही पड़ी वैसे ही भाग कर मेरे पास आया, बोला साहबजी‌‌ ‌- "इतनी गर्मी में यहाँ पर? मुझे बुला लिया होता।"

मैंने कहा, "तो क्या रामवतार तुम्हें धूप नहीं लगती?"

"नहीं साहबजी, किसान का घर तो खेत में ही होता है और जब उसकी नज़रें अपनी खेती पर होती हैं तो लू भी सावन सी लगती है। गर्मी, ठंडी, बारिश तो आनी ही है। मेहनत-मज़दूरी नहीं करूँगा तो अपने परिवार की ज़रूरत कैसे पूरी करूँगा? कैसे अपने बच्चों के सपने पूरे कर सकूँगा, साहबजी?"

मैँ उसे बग़ैर कुछ कहे ही वहाँ से चला आया। उसकी इन बातों ने मुझे अन्दर तक झकझोर कर रख दिया। पूरे रास्ते यही सोचता रहा कि यदि रामवतार भी मेरे जैसी ऐशोआराम की ज़िंदगी जीने की सोचने लगेगा तो मैँ तो भूखा ही रह जाऊँगा। उस दिन के बाद से मैंने भगवान और किसान दोनों को ही अन्नदाता मान लिया। मेरे मन में रामवतार के प्रति सम्मान और भी बढ़ गया था। एक क्षण सोचने लगा कि क्या किसान हमेशा ही नौजवान रहता है? फिर मुझे ही क्यों बार-बार उम्र का एहसास हो रहा है!

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