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युद्धबंदी सैनिकों के स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम की अनूठी कहानी : "द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई"

यूरोप का युद्ध साहित्य, विश्व कथा साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। विश्वयुद्धों के विध्वंस पर रचित कथा साहित्य को विध्वंस-कथा साहित्य (हॉलोकॉस्ट लिटरचर) की संज्ञा दी गई है। अंग्रेज़ी और यूरोप की अन्य भाषाओं में युद्ध-साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जिसे अंग्रेज़ी में लोकप्रिय साहित्य (पॉपुलर लिटरेचर) के नाम से जाना जाता है। अंग्रेज़ी का लोकप्रिय साहित्य, विक्टोरियन युग से लेकर आधुनिक युग के राजवंशों की प्रेमकथाओं, अभिजात वर्ग के सामाजिक और राजनीतिक प्रसंगों, आपराधिक जासूसी कथाओं, अंतराष्ट्रीय गुप्तचरी और राजनीतिक हत्याओं जैसे विषयों पर केन्द्रित रहा है। अंग्रेज़ी के लोकप्रिय कथा साहित्य का बाज़ार विश्वव्यापी और विस्तृत है। लोकप्रिय कथा-साहित्य के अध्ययन के लिए पृथक समाजशास्त्र की परिकल्पना भी की गई है। साहित्य के परंपरावादी शास्त्रीय विचारक क्लासिकल साहित्य की तुलना में लोकप्रिय साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य मानते हैं। किन्तु क्लासिकल साहित्य की तुलना में लोकप्रिय कथा साहित्य के पाठकों की संख्या अत्यधिक है। अंग्रेज़ी का लोकप्रिय कथा-साहित्य अनुवाद के माध्यम से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है जिसका पाठक वर्ग बहुत बड़ा है। अंग्रेज़ी में लोकप्रिय कथा-साहित्य के रचनाकारों में इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन आदि देशों के लेखक शामिल हैं। इरविंग वैलेस, इरविंग स्टोन, लियोन यूरिस, एलिस्टर मैकलीन, सिडनी शेल्डन, रॉबर्ट लुडलम, जैक हिग्गिंस, जेफ्री आर्चर, जॉन ग्रीशम, रॉबिन कुक, एडगर वैलेस, अगाथा क्रिस्टी, विक्टोरिया होल्ट, बार्बरा टेलर ब्रेडफर्ड, ऐन रेंड आदि अंग्रेज़ी के लोकप्रिय उपन्यासों के रचनाकार हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध पर आधारित अधिकांश कथा साहित्य, हिटलर के यूरोपीय देशों पर किए गए आतंकी हमलों, जर्मन फौजों के विध्वंस, यहूदी समुदायों के नरमेध जैसी घटनाओं पर केन्द्रित रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध काल में यूरोप में फैली राजनीतिक अस्थिरता, विध्वंस और अराजकता को कथाकारों और फ़िल्मकारों ने रोमाँचक ढंग से प्रस्तुत किया है। दोनों विश्वयुद्धों में तत्कालीन राष्ट्राध्यक्षों के रणकौशल और उनकी राजनयिक पैंतरेबाज़ी को कथा-साहित्य और फिल्मों का मुख्य विषय बनाया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के इतिहास को फ़िल्में भी प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं।

"द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" पीयर बाऊल नामक एक फ्रांसीसी लेखक द्वारा फ्रेंच भाषा में (ले पोंट डि ला रिवीरे क्वाई) सन् 1952 में रचा गया लोकप्रिय उपन्यास है। द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में ही इस उपन्यास की संकल्पना की गई। इस उपन्यास को हॉलीवुड के फ़िल्म निर्माताओं ने सन् 1957 में "द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" नाम से एक रोचक ऐतिहासिक फ़िल्म के रूप में प्रस्तुत किया। फ्रेंच भाषा में रचित इस उपन्यास का सन् 1954 में स्ज़ान फील्डिंग ने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया और विश्व भर में लोकप्रिय उपन्यास के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।

यह उपन्यास द्वितीय विश्वयुद्ध में दक्षिण एशिया के जंगलों में जापान द्वारा ब्रिटिश, अमेरिकी एवं इतर देशों के युद्धबंदियों (POW) पर किए गए अत्याचारों को उद्घाटित करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध ने दक्षिण एशिया के देशों को भी अपनी चपेट में ले लिया था, जिनमें प्रमुख थे जापान, बर्मा और थाईलैंड। दक्षिण एशिया में जापान एक महाशक्ति के रूप में अपना दबदबा क़ायम कर चुका था और उसने अमेरिका (हवाई द्वीप समूह) के पर्ल हार्बर पर आक्रमण कर अमेरिका को द्वितीय विश्वयुद्ध में घसीट लिया था।

"द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" उपन्यास 1942-43 में बर्मा (म्यांमार) के जंगलों में ब्रिटिश युद्धबंदियों के द्वारा "क्वाई" नदी पर रेल लाईन के लिए एक लकड़ी के पुल के निर्माण से जुड़ी संघर्ष, विरोध और बहादुरी की कहानी है। उपन्यास की विषय वस्तु कल्पित कथा पर आधारित है किन्तु कहानी में वर्णित स्थान और परिवेश वास्तविक हैं। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार 1942 में बर्मा और स्याम (थाईलैंड) के बीच जापानी सेना को अपनी सैनिक गतिविधियों एवं ब्रिटिश फौजों को उस क्षेत्र में पराजित करने के लिए एक रेल लाईन की आवश्यकता थी। वह मार्ग घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ियों के मध्य बहने वाली नदियों से भरा पड़ा था। बर्मा के इन्हीं जंगलों में जापानी सेना ने एक कुख्यात ख़ुफ़िया युद्धबंदी शिविर बना रखा था जिसमें उस इलाक़े में पकड़े गए ब्रिटिश और अमरीकी सैनिक युद्धबंदी के रूप में बंधक बनाकर रखे जाते थे। इस शिविर में युद्धबंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। भयानक गर्मी, उमस और लगातार होने वाली बारिश के बीच जंगली जानवरों, विषैले साँपों और ज़हरीले कीड़े मकोड़ों भरे शिविर में रोगग्रस्त युद्धबंदी इलाज के अभाव में नारकीय जीवन बिताने के लिए अभिशप्त थे।

उपन्यास में यह कुख्यात युद्धबंदी शिविर संख्या 16 के नाम से उल्लखित है जिसका कमांडर कर्नल सैटो नामक एक ज़िद्दी, घमंडी और अत्याचारी जापानी है। उपन्यास और फ़िल्म में कहानी का आरंभ में एक ब्रिटिश अफ़सर लेफ़्टिनेंट कर्नल निकलसन अपने नेतृत्व में थके-हारे, घायल युद्धबंदी दस्ते के साथ कर्नल सैटो के युद्धबंदी शिविर में प्रवेश करता है। इसी शिविर के निकट घने जंगल में क्वाई नदी पर एक रेल-पुल के निर्माण का काम युद्ध बंदियों के द्वारा कर्नल सैटो करवा रहा था, जिसके लिए उसे अधिक से अधिक युद्ध कैदियों की आवश्यकता थी। ब्रिटिश कर्नल निकलसन के दस्ते के आते ही वह निकलसन और उसके सभी युद्धबंदियों को क्वाई नदी पर पुल बनाने के काम पर जाने का आदेश देता है। ब्रिटिश युद्धबंदी दस्ते का नायक लेफ्टिनेंट कर्नल निकलसन युद्ध बंदियों के अधिकार संबंधी जिनेवा कन्वेन्शन के नियमों का हवाला देकर कर्नल सैटो को सेना के उच्च अफ़सरों को शारीरिक श्रम से छूट देने की माँग करता है। साथ ही वह उस शिविर में अपने सैनिकों के नायकत्व के अधिकार की माँग भी करता है। निकलसन की इन माँगों से खीझकर कर्नल सैटो जिनेवा कन्वेन्शन के दस्तावेज़ को फाड़कर निकलसन के मुँह और तमाचा जड़ देता है। सैटो निकलसन के व्यवहार से बौखलाकर चिलचिलाती धूम में खड़े युद्धबंदियों को गोलियों से भून डालने का फ़रमान ज़ारी कर देता है। ठीक समय पर शिविर के डॉक्टर मेजर क्लिप्टन के बीच-बचाव से दुर्घटना टल जाती है। सैटो के आज्ञा के उल्लंघन के लिए कर्नल निकलसन को सज़ा के तौर पर धूप में तपते लोहे के सन्दूक में क़ैद कर दिया जाता है। शेष युद्धबंदियों की टुकड़ी को वह चिलचिलाती धूम में दिन भर खड़े रहने की सज़ा दे देता है। शाम तक कई बंदी सैनिक बेहोश होकर गिर पड़ते हैं जिन्हें शिविर के अस्पताल में डाल दिया जाता है। इस प्रकरण के मध्य शिविर के अस्पताल से तीन युद्धबंदी निकल भागते हैं। इनमें से दो को पहरेदार मार गिराते हैं। तीसरा युद्धबंदी अमेरिकी नौसेना का कमांडर शीयर्स था जो किसी तरह दुरूह जंगल के रास्ते से जापानी पहरेदारों की गिरफ़्त से छूट जाने में क़ामयाब हो जाता है।

जापानी सेना ने कर्नल सैटो को युद्धबंदियों से क्वाई नदी पर रेल लाईन के लिए पुल बनवाने का काम सौंपा था। इसलिए वह किसी भी कीमत पर युद्धबंदियों से पुल निर्माण का कार्य करवाने की कोशिश करता है। लेकिन निकलसन के दल के ब्रिटिश सैनिक सैटो के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलकर वे आंदोलन पर उतर आते हैं। उधर पुल निर्माण की गति धीमी पड़ जाती है, ब्रिटिश युद्धबंदी पुल निर्माण के हर काम में बाधा उत्पन्न कर उसे पूरा नहीं होने देते। सैटो के लिए पुल को पूरा करने का दायित्व चुनौती बन जाता है। आख़िर वह अपने अहंकार को छोड़कर कर्नल निकलसन को मुक्त करता है और उससे मित्रता करने के लिए तैयार हो जाता है। वह निकलसन की सारी शर्तों को मान लेता है और उससे क्वाई नदी पर पुल बनाने में उसकी सहायता की याचना करता है। निकलसन अपनी शर्तों के अनुसार अपने सभी बंदी अफ़सरों को उनके पदों के अनुरूप नायकत्व का काम सौंपता है। वे सभी आपसी सलाह मशविरे के उपरांत क्वाई नदी पर पुल-निर्माण कार्य को एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर उसे पूरा करने का संकल्प करते हैं। बंधक के रूप में भी वे अपने देश के गौरव और स्वाभिमान के लिए एक ऐसे पुल के निर्माण की कल्पना करते हैं जो दुनिया भर में एक मिसाल बन जाएगा। इस दायित्व को वे राष्ट्र गौरव और स्वाभिमान के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। निकलसन को जापानी सेना द्वारा बनाया गया पुल का नक़्शा व डिज़ाइन सही नहीं लगता। उसे पुल बनाने के लिए चुनी गई जगह नदी में उपयुक्त नहीं लगती। वह सैटो की सहमति से अपनी सेना के कैप्टेन रीव्स और मेजर ह्यूज़ को पुल के लिए नया नक़्शा बनाने का का कार्य सौंपता है। नए नक़्शे और डिज़ाइन के अनुसार क्वाई नदी पर रेल-पुल बनाने के लिए पुरानी जगह से कुछ दूरी पर पुल के लिए उचित स्थान चुना जाता है। निकलसन के नेतृत्व में सारे ब्रिटिश युद्धबंदी दिन-रात काम में जुट जाते हैं।

उपन्यास के परवर्ती भाग में कहानी एक नया मोड ले लेती है। जापानी युद्धबंदी शिविर से लापता कमांडर शीयर्स किसी तरह सिलोन (श्रीलंका) पहुँचकर वहाँ के सैन्य अस्पताल में अपने ज़ख़्मों का इलाज करवाता हुआ सुखी जीवन बिताता रहता है। यहाँ उसकी भेंट ब्रिटिश सेना के मेजर वार्डन से होती है। मेजर वार्डन के पास क्वाई नदी पर बन रहे पुल की ख़ुफ़िया जानकारी पहले से मौजूद रहती है। क्वाई नदी पर पुल के बन जाने से दक्षिण एशिया में जापानी सैन्य शक्ति के एकाएक बढ़ जाने का ख़तरा था। इसके साथ ही युद्ध में ब्रिटेन के पराजय की भी संभावनाएँ दिखने लगी थीं। इसलिए क्वाई नदी पर बन रहे उस सामरिक महत्त्व के पुल को पूरा होने से पहले ध्वस्त करना ब्रिटिश सेना के लिए आवश्यक था। यह काम ब्रिटिश सेना की ओर से सिलोन में स्थित मेजर वार्डन को सौंपा जाता है। मेजर वार्डन को मालूम था कि कमांडर शीयर्स उसी युद्धबंदी शिविर से भाग आया है जहाँ क्वाई नदी पर पुल का निर्माण हो रहा है। मेजर वार्डन, शीयर्स को उस पुल को ध्वस्त करने के लिए कमांडो सैनिकों को लेकर पुन: जंगल में जाने के लिए राज़ी कर लेता है। युद्ध की रणनीति की दृष्टि से क्वाई नदी पर बनने वाला यह पुल जापानी सेना के लिए लाभकारी था और ब्रिटिश एवं अमेरिकी संयुक्त सेनाओं के लिए घातक था। इस कारण इस पुल के निर्माण को रोकना आवश्यक था।

इधर निकलसन के अधीन ब्रिटिश युद्धबंदी उत्साह से एक महान लक्ष्य की प्राप्त के लिए, नया इतिहास रचने की दिशा में शिविर के यातनामय जीवन और प्रतिकूल मौसम की परवाह किए बिना पुल को बनाने में लगे हुए थे। ब्रिटिश युद्धबंदी चाहते थे कि उनके इस काम को आने वाली पीढ़ियाँ याद करें। ब्रिटिश युद्धबंदियों की कर्मठता से प्रभावित पहरेदार जापानी सैनिक भी उत्साह से पुल को पूरा करने में उनका साथ देते हैं। कर्नल सैटो अब ब्रिटिश कर्नल निकलसन पर भरोसा करने लगा था।

दूसरी ओर सिलोन से मेजर वार्डन, शीयर्स और एक कमांडो दल लड़ाकू विमान से पैराशूट के ज़रिए उन घने जंगलों में कूद पड़ते हैं। मेजर वार्डन और शीयर्स का कमांडो दस्ता क्वाई नदी पर तैयार होते हुए उस पुल को ध्वस्त करना था। बीहड़ जंगलों, छोटे–बड़े पहाड़ों और नदी-नालों में से गुज़रते हुए मेजर वार्डन जापानी पहरेदारों की गोली से घायल हो जाता है। उस घने जंगल में वार्डन और शीयर्स कुछ भरोसेमंद स्थानीय सियामी महिलाओं को गोला-बारूद ढोने और क्वाई नदी का रास्ता दिखाने के लिए साथ ले लेते हैं। जब यह दस्ता क्वाई नदी के निकट पहुँचता तो है पर तब तक पल का निर्माण पूरा हो चुका होता है और अगले दिन ही प्रात: जापानी सैनिकों की टुकड़ियों को लिए पहली रेल उस पल पर से गुज़रने वाली होती है। कर्नल सैटो और निकलसन के सिपाही पुल के उद्घाटन की तैयारी पूरी कर उस रात जश्न में डूब जाते हैं। लेकिन कर्नल निकलसन को नींद नहीं आती। वह रात को भी पुल पर चढ़कर पुल का मुआयना करता हुआ भावुक हो उठता है। उसके लिए इस पुल का निर्माण एक परीक्षा थी, उसके चरित्र और स्वाभिमान की। पुल के उस नायाब नमूने को देखकर वह गर्व से भर उठता है। निश्चित ही उसने युद्धबंदी होकर भी अपने देश के गौरव और आत्मसम्मान के लिए एक असाधारण कार्य संपन्न किया था, वह स्वाभिमान के लिए दुश्मनों के आगे नहीं झुका, बल्कि उसने कर्नल सैटो जैसे क्रूर, दंभी और ज़िद्दी दुश्मन को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था। यह उसी की जीत थी।

उस रात के अँधेरे में क्वाई नदी पर तैयार पुल के नीचे ही पानी के भीतर से शीयर और वार्डन के कमांडो पुल को बारूद (डाइनामाईट) से उड़ाने के लिए तार बिछा रहे थे। रात के अँधेरे में पुल के इर्द-गिर्द गश्ती के सैनिकों से बचते हुए शीयर्स के आदमी यह काम पूरा कर सुबह का इंतज़ार करने लगते हैं जब कि उस पुल से जापानी सैनिकों समेत रेलगाड़ी गुज़रेगी।

सुबह होती है, कर्नल निकलसन फिर पुल पर बने रेल लाईन पर पैदल चलता हुआ चारों और नज़रें घुमाता है। अचानक उसे नीचे नदी का जलस्तर घटा हुआ लगता है। जलस्तर के घाट जाने से नदी की रेत उभर आती है जिसमें से एक तार बहुत दूर तक जाती हुई उसे दिखाई दे जाती है। वह चौंक कर दौड़ता हुआ पुल के नीचे पहुँचता है और रेत में दबे हुए उस तार को खींचता चला जाता है। ठीक उसी समय दूर से रेलगाड़ी के निकट आने की आवाज़ सुनाई देती है। कुछ ही देर में वह रेलगाड़ी उस नदी के नवनिर्मित पुल के ऊपर से गुज़रने वाली थी। जैसे ही वह बारूद के उन तारों को खोज निकालता है उस पर शीयर्स के कमांडो गोली चला देते हैं। शीयर्स का एक कमांडो कर्नल सैटो को छुरा घोंपकर मार डालता है। इधर पुल पर तैनात जापानी पहरेदारों और पुल के नीचे तैनात कमांडो के बीच गोलियाँ चलती हैं। शीयर्स, निकलसन को रोकने के लिए उसकी ओर बढ़ता है किन्तु वह मारा जाता है। वार्डन, निकलसन पर गोली चला देता है। निकलसन गोली खाकर सीधे बारूद को उड़ाने के लिए रखे हुए डेटोनेटर पर ही गिर पड़ता है जिससे नदी के पुल के नीचे बिछे हुए सारे बारूद एक साथ फट पड़ते हैं और सारा पुल बारूदों के धमाकों के बीच टूटकर जापानी सैनिकों से खचाखच भरी रेलगाड़ी समेत क्वाई नदी में गिर जाता है। मेजर वार्डन अपने मिशन में क़ामयाब हो जाता है। ब्रिटिश सैनिकों की सारी मेहनत क्वाई नदी की जलधारा में बह जाती है।

"द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" उपन्यास में पुल का निर्माण, एक उच्च कोटि के युद्धबंदी सैनिक अफ़सर "कर्नल निकलसन" की अपने निर्णय के प्रति कटिबद्धता, कार्यदीक्षा और पेशेवराना अंदाज़ का प्रतीक है। इस अफ़सर का स्वाभिमान और उसका अपने देश के प्रति गर्व उसके चरित्र को स्थिरता प्रदान करता है। वह एक आदर्शवादी रणनीतिकार था, जो हर कर्तव्य को पूर्णता के साथ संपन्न करने का अभ्यस्त था। कुछ समीक्षकों की दृष्टि में कर्नल निकलसन विकृत कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर दुश्मन की मदद करता है, जो कि सैन्य सिद्धांतों के अनुसार अमान्य है। जब एक ओर संयुक्त सैन्य बल पुल को ध्वस्त करने के लिए बढ़ रहे थे तब निकलसन के सामने यह दुविधा सामने आती है कि उसे किस भावना को बलिवेदी पर चढ़ाना चाहिए – अपने स्वाभिमान को या देशभक्ति को! उपन्यास में लेखक पीयर बाऊल की ब्रिटिश सैनिक अफ़सरों के प्रति दृष्टि व्यंग्यात्मक है। उसकी दृष्टि में कर्नल निकलसन एक "घोर परंपरावादी मिथ्याभिमानी नायक" का प्रतीक है। "बाऊल" ने उपन्यास में निकलसन और अर्थात बंधक और विजेता के संबंधों की जाँच गहराई से की है।

उपन्यास में वर्णित घटनाएँ काल्पनिक हैं, वन्य प्रांत की जिस भयावहता का चित्रण किया गया है, यथार्थ धरातल पर परिस्थितियाँ कहीं ज़्यादा डरावनी और घातक हैं। वास्तव में पीयर बाऊल स्वयं द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान थाईलैंड में एक युद्धबंदी था। पीयर बाऊल ने बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में इस तथ्य को उजागर किया कि उसने उन्हीं दिनों युद्ध में कर्नल निकलसन के पात्र की परिकल्पना की थी। अन्य समीक्षकों का विचार है कि निकलसन जैसा अफ़सर युद्धबंदी के रूप में यदि दुश्मनों के हित लिए ऐसे पुल के निर्माण की योजना बनाता तो उसके साथी ही चुपचाप उसका ख़ात्मा कर देते।

इस फ़िल्म का निर्माण काल हॉलीवुड में द्वितीय विश्वयुद्ध के रोचक प्रसंगों पर फ़िल्में बनाने की परंपरा का काल था। उन दिनों ऐसी फ़िल्में बहुत धन कमा रही थीं और लोकप्रिय हो रही थीं। निश्चित रूप से हॉलीवुड के निर्माताओं को "द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" उपन्यास ने आकर्षित किया। सन् 1957 में हॉलीवुड के सुविख्यात निर्देशक डेविड लीन (डॉ. ज़िवागो, लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया) के निर्देशन में यह उपन्यास "द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" के नाम से अंग्रेज़ी में द्वितीय विश्वयुद्ध की एपिक फ़िल्म के रूप में पर्दे पर अवतरित हुई। इस फ़िल्म ने उपन्यास को बहुचर्चित और लोकप्रिय बनाया। यह फ़िल्म उपन्यास पर ही पूर्णत: आधारित है। इसकी कथावस्तु को सन् 1942-43 में बर्मा रेलवे के निर्माण से जोड़ा गया है। इस फ़िल्म की पटकथा कार्ल फोरमेन और माइकेल विलसन ने मिलकर तैयार की थी, लेकिन कुछ समय बाद केवल विलसन ही फ़िल्म निर्माण के अंत जुड़े रहे। उपन्यास में पुल बारूद से नहीं टूटता है, बल्कि उस पर से गुज़रती हुई रेलगाड़ी पुल से गिरकर नीचे नदी के प्रवाह में बह जाती है। लेकिन फ़िल्म में पुल को बारूद के धमाके से उड़ा दिया जाता है, समूचा पुल और उसके साथ जापानी सेना सहित पूरी रेलगाड़ी ध्वस्त होकर नदी में गिर पड़ती है। लेखक पीयर बाऊल को फ़िल्म का अंत ही उपन्यास के अंत से अधिक पसंद आया।

यह ग़ौरतलब है कि यह फ़िल्म ब्रिटेन और अमेरिका की फ़िल्म कंपनियों के द्वारा सहनिर्मित है। उपन्यास की कथावस्तु थाईलैंड में घटित होती है किन्तु इसे सिलोन (श्रीलंका) के "किटुलगला" इलाक़े में फ़िल्माया गया। इसके कुछ हिस्से इंगलैंड में भी फ़िल्माए गए। श्रीलंका के जंगलों में बहती हुई एक नदी पर उपन्यास में वर्णित लकड़ी के पुल का निर्माण केवल फ़िल्म के लिए किया गया। क्वाई नदी का यह पुल फ़िल्म में आकर्षक और सुंदर दिखाई देता है। नदी के दोनों छोरों पर पुल दो षट्कोणात्मक हिस्सों में लकड़ी के आड़े तिरछे टुकड़ों से निर्मित की गई। इस फ़िल्म ने सात ऑस्कर पुरस्कार जीते। जिसमें वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ऑस्कर भी शामिल है।

इसके अतिरिक्त इस फ़िल्म को बाफ्टा, गोल्डन ग्लोब जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया, जो एक कीर्तिमान है। दो घंटे और चालीस मिनट की अवधि की यह फ़िल्म आद्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इस फ़िल्म को सन् 1985 और 2010 में क्रमश: कोलम्बिया पिक्चर्स (अमेरिका) ने डिजिटल तकनीक से पुन: नवीनता प्रदान की और सम्पूर्ण नई तकनीक के साथ इसे नई पीढ़ी के दर्शकों के लिए उपलब्ध कराया। 1997 में इसे ऐतिहासिकता, सांस्कृतिकता और सौंदर्यपरकता के लिए अमेरिका के राष्ट्रीय फ़िल्म अभिलेखागार में सुरक्षित रखने के लिए अमेरिकन लाइब्रेरी कांग्रेस द्वारा चयनित किया गया। इसे सिनेमा के इतिहास में एक महान फ़िल्म के रूप में स्वीकार किया गया। फ़िल्म में अभिनय के लिए हॉलीवुड के महान अभिनेताओं को विभिन्न पात्रों के लिए चुना गया। कर्नल निकलसन की भूमिका में "सर" एलेक गिनिस, विलियम होल्डन - कमांडर शीयर्स की भूमिका में, जैक हाकिन्स- मेजर वार्डन, सेस्यू हायाकावा – कर्नल सैटो आदि ने अपने अभिनय कौशल से इस फ़िल्म को अमरता प्रदान की। इस फ़िल्म ने बर्मा के जंगलों की भयावहता और उसमें जापानी युद्धबंदी शिविरों में होने वाले अमानवीय हिंसा को उद्घाटित किया। इस फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी सराहनीय है। यह फ़िल्म रंगीन प्रारूप में वन्य परिवेश को सहज और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करती है। चूँकि यह युद्ध परिवेश को दर्शाने वाली फ़िल्म है इसलिए फ़िल्म में घटनाओं की पृष्ठभूमि और परिवेश भी उसी प्रकार रोमांच पैदा करने वाले दीखते हैं। फ़िल्म के प्रारम्भ में निकलसन थके हारे, भूख से व्याकुल अपने युद्धबंदी अफ़सरों और जवानों के साथ "मार्च" करता हुआ शिविर में प्रवेश करता है। इस दृश्य में निकलसन की यह फौजी टुकड़ी अपने चाल से दर्शकों का मन मोह लेती है। ब्रिटिश युद्धबंदी मार्च करते हुए सीटी से एक ख़ास धुन गाते हुए एक लय में चलते हैं। यह सीटी की धुन "कर्नल बूगी" के नाम से मशहूर हुई थी। यह धुन फ़िल्म की पहचान बन गई। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार फ़िल्म में वर्णित पुल का निर्माण ही नहीं हुआ था बल्कि उसी के निकट एक दूसरी नदी पर ऐसे दो पुल बनाए गए थे, जिसमें से एक अस्थाई पुल लकड़ी का और दूसरा स्थाई पुल इस्पात का बनाया गया था। लकड़ी का पुल युद्ध के दौरान बमबारी में ध्वस्त हो गया किन्तु दूसरा पुल मरम्मत के बाद आज भी उपयोग में लाया जा रहा है।

फ़िल्म के अंत में कर्नल निकलसन के पुल को उनके ही पक्ष के कमांडो दस्ते द्वारा बम से उड़ा देने के लिए किया गया प्रत्याक्रमण फ़िल्म का चरमोत्कर्ष (क्लाईमेक्स) है और पुल का ढह जाना प्रतिकर्ष (एँटीक्लीमेक्स)।

इस फ़िल्म के प्रति जापानियों की प्रतिक्रिया तीखी थी। फ़िल्म में ब्रिटिश युद्धबंदियों को जापानी सैनिकों से श्रेष्ठतर प्रदर्शित किए जाने को लेकर जापानियों ने आपत्ति व्यक्त की थी। उन्होंने पश्चिमी संस्कृति को उनसे बेहतर सिद्ध करने के दुष्प्रचार का तीव्र विरोध किया। जापानियों ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उनके इंजीनियरों का निर्माण कौशल अंग्रेज़ों से कहीं अधिक सक्षम और अनुशासनयुक्त है। फ़िल्म में जिस तरह से पुल बनाने के लिए जापानियों की अक्षमता और ब्रिटिश युद्धबंदियों की विशेष क्षमता को महिमामंडित किया गया, उसके प्रति जापानियों ने अपनी नाराज़गी व्यक्त की थी।

"द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई" एक महान फ़िल्म के रूप में सिनेमा के इतिहास में अपना विशेष स्थान बना चुकी है। हर पीढ़ी के सिनेमा प्रेमियों ने इस फ़िल्म को देखा और सराहा है। आज भी यह फ़िल्म दर्शकों की पहली पसंद है।

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