आबरू
कथा साहित्य | लघुकथा अमित राज ‘अमित’27 Jan 2016
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वह होटल में प्रवेश कर के सीदा मैंनेजेर की कैंबिन में पहुँचा और पूछा- "आपके होटल का एक रूम मिलेगा?" "जी! ज़रूर मिलेगा। सिंगल हो या डबल?" "अकेला ही हूँ।" मैनेजर शरारती हँसी बिखरते हुए कहा- "यहाँ सब अकेले ही आते है और...., ख़ैर कितने दिन रहना है?" "तीन-चार दिन। रूम चार्ज क्या है?" "हज़ार रुपये प्रत्येक दिन के।" "कुछ ज़्यादा नहीं?" "सर यह होटल इस शहर की प्रसिद्ध होटलों में से एक है, यहाँ आपकों हर सुविधा उपलब्ध करवाई जायेगी, सुबह-शाम के खाने के साथ-साथ दोपहर को नाश्ता भी दिया जायेगा।" "चलो ठीक है, मुझे तीन-चार दिन ही तो रहना है, कौन सी ज़िन्दगी पार करनी है?" "सर रात का पैकेज भी चाहिए?" मैनेजर ने सहमते हुए पूछा। "कैसा पैकेज?" "शराब-शबाब ....." "कितना चार्ज होगा?" "ज़्यादा नहीं, एक रात के हज़ार रुपये।" वह मन ही मन सोचने लगा- क्या भारतीय नारियाँ इतनी सस्ती हो गई, जो हज़ार रुपये में ही अपनी आबरू..., घोर कलयुग आ गया। "क्या सोचने लगे सर?" मैनेजर ने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा। "मुझे नहीं रहना इस नरक में।" वह इतना कह कर बाहर की ओर चल पड़ा। |
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