अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आबरू


वह होटल में प्रवेश कर के सीदा मैंनेजेर की कैंबिन में पहुँचा और पूछा- "आपके होटल का एक रूम मिलेगा?"

"जी! ज़रूर मिलेगा। सिंगल हो या डबल?"

"अकेला ही हूँ।"

मैनेजर शरारती हँसी बिखरते हुए कहा- "यहाँ सब अकेले ही आते है और...., ख़ैर कितने दिन रहना है?"

"तीन-चार दिन। रूम चार्ज क्या है?"

"हज़ार रुपये प्रत्येक दिन के।"

"कुछ ज़्यादा नहीं?"

"सर यह होटल इस शहर की प्रसिद्ध होटलों में से एक है, यहाँ आपकों हर सुविधा उपलब्ध करवाई जायेगी, सुबह-शाम के खाने के साथ-साथ दोपहर को नाश्ता भी दिया जायेगा।"

"चलो ठीक है, मुझे तीन-चार दिन ही तो रहना है, कौन सी ज़िन्दगी पार करनी है?"

"सर रात का पैकेज भी चाहिए?" मैनेजर ने सहमते हुए पूछा।

"कैसा पैकेज?"

"शराब-शबाब ....."

"कितना चार्ज होगा?"

"ज़्यादा नहीं, एक रात के हज़ार रुपये।"

वह मन ही मन सोचने लगा- क्या भारतीय नारियाँ इतनी सस्ती हो गई, जो हज़ार रुपये में ही अपनी आबरू..., घोर कलयुग आ गया।

"क्या सोचने लगे सर?" मैनेजर ने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा।

"मुझे नहीं रहना इस नरक में।"

वह इतना कह कर बाहर की ओर चल पड़ा।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

ग़ज़ल

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं