अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आधुनिक हिन्दी कविता में मानवाधिकार की संकल्पना: मानव-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में

शोध सारांश-

मानव-मूल्यों व मानवाधिकारों का आपसी घनिष्ठ सबंध है। मानवाधिकार संविधान देता है और उनका संरक्षण मानव-मूल्य करते हैं। वर्तमान समय में मानवाधिकार साहित्य चिन्तन का प्रमुख विषय है। आधुनिक हिन्दी कविता मानव को मूल्य बोध करवाते हुए, भारतीय संस्कृति के साथ जीवन यापन का संदेश देती है। कविता मानव-मूल्यों के संरक्षण के माध्यम से मानवाधिकारों की सुरक्षा व संरक्षण के दायित्व का निर्वाह करती है। कविता का धरातल मानवीय है, जिसका ध्येय सत्य, अंहिसा, करुणा, मैत्री और विश्व-बंधुत्व के साथ ही मानवाधिकार के महामंत्र-स्वतंत्रता, समता और न्याय का आह्वान है। भारतीय जीवन-मूल्यों से ओतप्रोत हिन्दी कविता मानव को समरसता, समानता के मार्ग पर प्रशस्त करती है। प्रस्तुत शोध आलेख आधुनिक हिन्दी कविता में मानवाधिकारों व मानव-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में चिन्तन करने का एक प्रयास है।

बीज शब्द-

मानवाधिकार, मानव-मूल्य, भारतीय संस्कृति व संविधान

इक्कीसवीं सदी में मानवाधिकार साहित्य चिन्तन का प्रमुख विषय है जिसका केन्द्र बिन्दु मानव-मूल्य है। मानवाधिकार से अभिप्राय मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता से है, जिसके हक़दार सभी मानव है। मानवाधिकार की संकल्पना प्राचीन है जो मानव जीवन को विविध रूपों से संरक्षण प्रदान करती है। आधुनिक युग में 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा पत्र स्वीकार किया जिसमें नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, धर्म आदि के आधार पर भेद समाप्त कर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक अधिकार प्रदान किये गये। स्वतंत्रता पश्चात भारत ने भी अपने संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में मानवाधिकारों को शामिल किया। भारतीय संविधान में सभी व्यक्तियों को विभिन्न जाति, धर्म, लिंग, वर्ण तथा रंग के बावजूद समान माना गया तथा सभी व्यक्तियों को सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अधिकार प्रदान किये गये। डॉ. जयराम उपाध्याय के अनुसार- “मानव अधिकार वे न्यूनतम अधिकार है जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होना चाहिए क्योंकि वह मानव परिवार का सदस्य है।”1 संविधान प्रदत्त अधिकारो का संरक्षण भी संविधान करता है और मानव उसकी पालना करके समाज में परस्पर समता, प्रेम, सहयोग की भावना से आगे बढ़ता है।

मानव-मूल्यों व मानवाधिकारों का आपसी घनिष्ठ सबंध है। मानवाधिकार संविधान देता है और उनका संरक्षण मानव-मूल्य करते हैं। मानवाधिकारों के उद्भव का इतिहास वैदिक संस्कृति से रहा है। वैदिक वाड्.मय में ऋषियों ने धर्मयुक्त कर्त्तव्य पालन के निर्देश देकर, कर्म सिद्धांत की स्थापना की थी, जिससे मानव अधिकारों की सुरक्षा होती थी। इसी परम्परा में भारतीय वाड्.मय का सृजन हुआ है। आधुनिक हिन्दी कविता भी वैश्विक एकता, समानता, शिक्षा, स्वतंत्रता और विश्व बधुत्व की भावना को साथ लेकर चलती है। सत्य, अहिंसा, प्रेम दया क्षमा, धृति, करुणा, त्याग इत्यादि मानव-मूल्यों को मानवधिकारों के परिप्रेक्ष्य में संपोषण तत्व के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि मूल्यों के बिना अधिकारों की बात उठाना स्वभाविक नहीं है। मूल्य और अधिकार एक दूसरे के पूरक है। मानव-मूल्य मानव के आत्मत्व है और मानवाधिकार बाह्य तत्व, मानवाधिकारों की संकल्पना में आत्मतत्वों भी महत्ती भूमिका रहती है क्योंकि इन्हीं मानव-मूल्यों से विश्व में मानव सत्ता का आपसी सामंजस्य, भातृत्व व सहयोग रहता है। साहित्य समाज तथा युग की परिस्थितियों का स्पष्ट प्रतिबिम्ब होता है। साहित्यकार युगीन परिस्थितियों से नितांत निरपेक्ष होकर साहित्य सर्जन नहीं कर सकता है। इसी दृष्टि से आधुनिक कवि और उनकी कविता समता सहयोग और समभाव के मापदण्डों पर आधारित है। उसमें शक्ति, ओज, औदार्य, अध्यात्म, राष्ट्रीयता, मंगलाषा, त्याग करुणा, दया, प्रेम आदि मूल्यों की चेतना है।

भारतीय समाज में पूँजीपति ज़मींदार शक्तिशाली लोग कमज़ोर तथा ग़रीब लोगों का शोषण करते हैं उनसे दुर्व्यापार करते हैं। आर्थिक कुचक्र ने समाज को बुरी तरह कुचल दिया है। स्त्री, औरत व बच्चों को दलित द्राक्षा की तरह चूस कर, समाज के किनारे पर रख कर, उनके अधिकारों का सरेआम हनन हो रहा है। कवि प्रशन उठाता है कि रोटी की तलाश करता भूख से व्याकुल पेट कहाँ अधिकारों की बात करेगा-

“औरतें बांधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही हैं पत्थर की पीठ
लाल मिट्टी लकड़ी लालछोर
दांत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा है बाप
खा रहा है उसको चुपचाप”
2

संविधान प्रदत्त ‘शोषण के विरुद्ध मानवाधिकार’ बलात् श्रम व बेगार को रोकता है। आधुनिक हिन्दी कविता जाति धर्म की जंजीरों को तोड़कर समता की बात करती है। यह समता तभी सम्भव है जब सब मिलकर जाति-पाँति की दीवारों को तोड़कर एक हो जाये अर्थात् सम्पूर्ण मानवता एक हो जाये। कविता शोषक और शोषितों का यथार्थ चित्रण कर शोषण के विरुद्ध अधिकार को बढ़ावा देती है। इसलिए कवि आह्वान करता है-

“जातिधर्म की तोड़ शृंखला खुली हवा में आओ
दुनिया के शोषित मिलकर अब एक सभी हो जाओ
पूंजीवाद मिटा दो समता तभी विश्व में होगी
मनुष्यवाद मिटा दो दुनिया से तो मानवता पनपेगी”3

सामाजिक असमानता के शिकार, शोषित कमज़ोर वर्ग के लिए मानवाधिकार की माँग करते हुए, कविता एक ऐसे समाज की रचना चाहती है जो भेदभाव से मुक्त, समता पर आधारित हो। सभी मानवों का अपना जीवन है। उन्हें जीवन जीने की स्वतंत्रता मिले, विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिले, आर्थिक स्वतंत्रता मिले जिससे सभी मानव समाज की मुख्य धारा में आ सके। अपने धरातल को पहचान कर, सुनिश्चित व सुनियोजित तरीक़े से स्वयं का विकास कर सके। अपने परिवार व बच्चों का भविष्य सुरक्षित करते हुए, एक स्वस्थ सामाजिक परम्परा युक्त समाज का निर्माण कर सके। इसी विचारधारा का निर्वाह करते हुए; स्वतंत्रता की चाह, जीवन की आस्था और विवेक के मूल्यों के साथ कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना कवि दायित्व सम्भालते हैं- “कलम उठाते ही/हमें मासूम बच्चे/निरीट औरते/मेहनतकश भोले ग़रीब इन्सान/सब हमसाया नजर आते हैं/उनकी दहशत/हमारी दहशत होती है/उनकी मौत/हमारी मौत/चाहे वे शत्रु देश के ही क्यों न हों/हर बेकसूर आदमी की लाश/हमारी कलम की स्याही में/उतर आती है/और हम सिर झुका/उस अन्नत प्रार्थना में डूब जाते हैं।/जो इन्सान के लिए अक्ल की भीख माँगती है।”4

हिन्दी कविता स्वतंत्रता समता और बधुत्व की भावना से युक्त मानवीय गुणों को संरक्षण प्रदान करते हुए “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की कामना करती है। मानव कल्याण की चिन्ता कवियों को है। वे ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ ऊँच-नीच के भेदभाव ना हो और न ही जाति व वर्ग हो, सभी स्वतंत्रता का उपभोग करे और सुखी हो। कवि भूपेन्द्र नाथ शुक्ल स्वतंत्रता के नव निर्माण और विषमता को दूर करने के लिए ही “जियो और जीने दो” के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं-

“खुद जियो और जीने दो का
सिद्धांत मानवीय चित्र बने।
मानव-मानव ही धरती पर
बस यहाँ बसे या वहाँ बसे।“
5

मानवीय समानता में सभी मनुष्य समान हैं उनमें न कोई छोटा है और न कोई बड़ा सभी भातृभाव को धारण करते हुए उन्नति के लिए मिलकर कर्म करते आगे बढ़ते हैं। जब सब समान हैं तो भेदभाव कैसा। आधुनिक हिन्दी कविता कामना करती हैं कि सबका हृदय सदा प्रेम सहित और विरोध रहित होकर एक समान हों। मन एक समान हों। जिससे बल सामर्थ्य एक-दूसरे की सहायता से खूब बढ़े। वस्तुतः मानव-मानव की धरती, मानव के बीच की दीवारों की तोड़कर विश्व की सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधकर एक ऐसे विश्व का निर्माण चाहती है जो अन्याय से मुक्त हो। अन्याय से मुक्ति मानव को न्याय का मानवाधिकार दिलाती है। इसी विश्व-बंधुत्व का कवि नगार्जुन संदेश देते हैं-“विषमता के प्रति घृणा का अनोखा उपहार लो/विश्व मानव के लिए मनुहार लो।”6 महाप्राण कवि निराला भी मानव मात्र को पंथ, वर्ण-जाति लिंग आदि के संकुचित घेरे से बाहर निकलकर समानता की अकांक्षा करते हैं और मानव को नैतिक मूल्य प्रदान करते हैं-

“दूर हो अभिमान, संशय
वर्ण-आश्रम-गत महामय
जाते-जीवन हो निरामय
वह सदाशयता प्रखर दो”
7

इक्कीसवीं सदी वैश्वीकरण व भूमंडलीकरण की है। सम्पूर्ण विश्व एक घर बन गया है। वैश्वीकरण के इस युग में निजीकरण एवं उदारीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे मानवाधिकारों का हनन विविध रूपों में सामने आ रहा है। विश्व में उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं बाज़ारवाद के माध्यम से अधिक से अधिक आर्थिक विकास के प्रयास किये जा रहे हैं। सांस्कृतिक मूल्यों के विघटन व परिवर्तन के कारण परिस्थितियाँ विषम होती जा रही है। अधिकारों की आड़ में मानव-मूल्यों का ह्रास हो रहा है। अर्थप्रधान संस्कृति में मानव मशीनी-सा जीवन जी रहा हैं। जिसके सामने संवेदना, सहयोग व सद्भावना कमज़ोर पड़ रही है। यह अंधेरा ईर्ष्या, द्वेष, जलन, घुटन, कुण्ठा, पीड़ा के धुएं का है। प्रसिद्ध साहित्यकार एवं कवि धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद मिश्र, प्रसाद, पंत, निराला, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, रामदरश मिश्र, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, कुंवर नारायण, शमशेर बहादुर सिंह, ऋतुराज, चन्द्रकांत देवताले, नरेश मेहता, विजयदेव नारायण साही जैसे अनेक साहित्यकारों ने अपनी कलम से मानव-मूल्यों का संरक्षण करते हुए, उग्र स्वरों में काव्य सृजना की हैं। रामदरश मिश्र मानव-मूल्यों की पुनर्स्थापना मानवहृदय में कर मानवाधिकारों के सरंक्षण की दिशा दी है-

“ऐसे कब तक चलते रहेंगे?
धुआँ फेंकते हुए
अलग-अलग कब तक जलते रहेंगे?
आओ अपनी-अपनी आँच को जोड़कर
एक बड़ी सी मशाल जला लें”
8

दरअसल अलग-अलग जलना टूटने का संकेत है। मशाल की कल्पना एकता का संकेत है। जो मानव को जीवन बोध कराते हुए उसको एक नई दिशा देती है। सुख-दुख, ताप, अनुभूति, प्रेम, साहस, आस्था, विवेक, निष्ठा आदि आत्मरस हैं। जिन्हें कवि विविध रूप देकर मानव हृदय में स्थापित करने का प्रयास करता है। इन्हीं के पोषण से हृदय को समरसता की ओर ले जाना हिन्दी कविता का दायित्व हैं। रघुवीर सहाय का काव्य-संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ मानव-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में मानवधिकारों का घोषणा पत्र कहा जा सकता है। कवि स्पष्ट शब्दों में कहता है कि आज का मानव केवल स्वार्थी ही नहीं है स्वार्थांध भी है। दूसरों के प्रति उसकी आत्मीयता शून्य हो गयी है। मानव आत्मकेन्द्री बनकर ‘मैं’ में लिप्त हो रहा है। कवि-हृदय त्रासद होकर बोल उठता है-

“अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है,
अब न तो किसी का खाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टांगे
और न ढला हुआ सूर्यहीन कंधा
देखता है, हर आदमी सिर्फ
अपना धंधा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है।”
9

आधुनिक हिन्दी कविता जन-जीवन की पीड़ा को मुख्य स्वर देती हैं, अन्याय का विरोध कर न्याय का पक्ष लेती है और शोषित-पीड़ित मानव को न्याय दिलाने के लिए कविता प्रतिबद्ध है। कवि नागार्जुन ‘प्रतिबद्ध हूँ’ कविता में मानव को न्याय मानवाधिकार दिलाने के पक्ष में खड़ें है-

“प्रतिबद्ध हूँ,जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ-
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ...................
अविवेकी भीड़ की। ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ.....................
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए.............
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारम्बार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!”
10

आज के जीवन में बढ़ती हुयी व्यावसायिक प्रवृत्ति का सामाजिक सम्बन्धों पर बहुत दुष्प्रभाव पड़ा है। कम समय में अधिक से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने की होड़, स्वार्थपरता, भोगपरक जीवन शैली, अनाचार, अत्याचार व अन्याय को बढ़ावा दे रहे हैं। इन सब दुष्परिणामों से बचने के लिए हमें पुनः संस्कृति के अमृत तत्व को आधार मानकर उस पर चलना श्रेयस्कर है। अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का एक अहिंसक साधन सत्याग्रह है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये उसका सफल प्रयोग भी किया गया है। यह अहिंसा भारतीय मूल्य का अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए विनियोजन करने का सुन्दर उदाहरण है। रामधारी सिंह दिनकर अपनी काव्य-कृति कुरुक्षेत्र में मनुज के समता विधायक की माँग उठाते हैं-

“श्रेय होगा मनुज का समता विधायक ज्ञान।
स्नेह सिंचित न्याय पर नव विश्व का निर्माण”
11

समकालीन परिवेश में मानव के व्यक्त्वि निर्माण, स्वतंत्रता के सम्मान और मानवधिकारों की भावना को प्रबल करने में शिक्षा का विशेष योगदान है। मानवीय जीवन से जुड़े हर पहलू को उजागर करके सामाजिक न्याय और उत्तम सामाजिक व्यवस्था को प्रभाव में लाने में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा धार्मिक विरोध समाप्त कर, अंधविश्वास, कुरीतियों का खण्डन कर मानव को सही दिशा देती है। शान्ति, सद्भावना और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाती हैं। संविधान के अनुसार शिक्षा को प्रत्येक बालक के लिए अधिकार का रूप दे दिया गया हैं। हिन्दी कविता मानव-जीवन में शिक्षा को विशेष स्थान देती हैं। ग्रामीण क्षेत्र में कृषक, मज़दूर, घुमक्कड़ प्रवृत्ति के लोगों को भी शिक्षित करने के लिए युवकों को प्रेरणा देती है। शिक्षा ही एक ऐसी जागृति है, जो सभी मानवाधिकारों का सरंक्षण करती जान पड़ती है।

निष्कर्षतः

आधुनिक हिन्दी कविता मानव-मूल्यों के संरक्षण के माध्यम से मानवाधिकारों की सुरक्षा व संरक्षण के दायित्व का निर्वाह करती है। कविता का धरातल मानवीय है, जिसका ध्येय सत्य, अंहिसा, करुणा, मैत्री, और विश्व-बंधुत्व के साथ ही मानवाधिकार के महामंत्र-स्वतंत्रता, समता और न्याय का आह्वान है। भारतीय जीवन-मूल्यों से ओतप्रोत हिन्दी कविता मानव को समरसता, समानता के मार्ग पर प्रशस्त करती है। संविधान प्रदत्त मानवाधिकारों की पालना में मानव मन की समरसता एक शक्ति के रूप में कार्य करती है जो बिना किसी बल, दण्ड और शक्ति के मानवाधिकारों को बराबर समाज में, काल-समय के सापेक्ष में, जाति-धर्म के विभेद में और लिंग-रंग-वर्ण के भेद में, स्वतंत्रता तथा नैतिकता के साथ पालना करवाती है। यथार्थ है कि आधुनिक हिन्दी कविता ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को ‘देहो देवाल्यो’ नाम प्रदान करती है।

संदर्भ-

1. उपाध्याय, जयराम, मानवाधिकार, पृ. 16
2. सहाय, रघुवीर, आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 33
3. लक्ष्मीनारायण, उत्पीड़न की यात्रा, पृ. 61
4. सक्सेना, सर्वेश्वरदयाल, कुआनो नदी, पृ. 84-85
5. शुक्ल, भूपेन्द्र, माधवी, पृ. 119
6. नागार्जुन, पुरानी जुतियों का कोरस, पृ. 30
7. निराला, सूर्यकान्त त्रिपाठी, अणिमा, पृ. 08
8. मिश्र, रामदरश, मिश्र, स्मिता, रामदरश मिश्र रचनावली, खण्ड-एक, जुलूस कहाँ जा रहा है, पृ. 34
9. सहाय, रघुवीर, सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 83
10. पांडेय, सं. मैनेजर, नागार्जुन चयनित कविताएं, पृ. 01
11. दिनकर, रामधारी सिंह, कुरुक्षेत्र, पृ. 118

डॉ. दयाराम
व्याख्याता (हिन्दी)
राजकीय आदर्श उच्च माध्यमिक विद्यालय, गोलूवाला
जिला-हनुमानगढ़ (राजस्थान) पिन-335802
मो. न.-09462205441, 09649247309
ई मेल- dayaramnetwork@gmail.com

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं