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आधुनिक नारी की दशा 

‘नारीत्व और अभिशाप’ में महादेवी जी दो पौराणिक प्रसंग देती हैं। न माता का वध करते हुए परशुराम का हृदय पिघला और न सीता को धरती में समाहित होते देख राम का हृदय विदीर्ण हुआ। 

दुनिया में सब जीव-जंतुओं को अपनी माँ बहुत पसंद है। देश और देश में बहने वाली नदियों को माँ की रूप में पूजा करते हैं। साहित्य में भी नारी को महत्व दिया गया है पर वास्तविक स्थिति क्या है? हमारे देश में असल में नारियों की स्थिति अच्छी है क्या? दुर्भाग्य से हमारे देश में नारी को पुरुष की अपेक्षा सब प्रकार से हीन और उसके आश्रित मान लिया गया है। हमारे समाज में जो पुरुष चाहता है वही नारी को करना चाहिए, वह पिता हो या पति, भैया हो या बेटा कोई फ़र्क़ नहीं है। पुरुष तो पुरुष ही है। हमारे समाज में पहले से ही घर में बेटी और बेटे में अंतर दिखाया जाता है। बेटी को तू लड़की, तुमको यह करने का अधिकार नहीं है और यह काम करने के लिए तू लायक़ नहीं है ऐसे कहकर ही पालन किया जाता है। हमारे शास्त्र में कहा गया है कि “पुरुष में ज्ञान, बल, तेजी की शक्तियाँ हैं और नारी में श्रद्धा,भक्ति, सेवा की शक्तियाँ ही प्रदान होता है”। पुरुष बुद्धि पर बल देता है, भावनाओं पर नहीं। स्त्री भावनानों की भंडार है। 
प्रस्तुत नाटक “रक्तबीज” में भी डॉ. शंकर शेष ने कुछ नारी समस्याओं को दर्शाया है, वह आज भी समाज में मौजूद है। “रक्तबीज” नाटक में डॉ. शंकर शेष ने पौराणिक ऐतिहासिक मिथक का सहारा लिया है। प्राचीन काल में रक्तबीज नाम का एक राक्षस था। रक्तबीज राक्षस की रक्त की बूँदों से अन्य अनेकों रक्तबीज बन जाते थे और उसे समाप्त करना मुश्किल है। इसी कथा को नाटककार ने वर्तमान समय की समस्या से जोड़ा है। आज हमारे आस- पास इतने रक्तबीज हैं जिनकी पहचान करनी मुश्किल है। इस नाटक में इन्हीं रक्तबीज चरित्र की पहचान कराई गई है। “रक्तबीज” नाटक का उद्देश्य यह है कि महानगरीय संस्कृति में रहने वाले उच्च-मध्यवर्गीय लोगों की मनोवृति का चित्रण करना। रक्तबीज नाटक दो भागों में पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध में विभाजित किया है। पूर्वार्द्ध में एक अलग कथा और उत्तरार्ध में अलग कथा का आयोजन किया गया है। अलग-अलग कथा होने पर भी कथाओं का मूल महत्वाकांक्षाओं के कारण पारस्परिक संबंधों की समस्याएँ हैं। 

नाटक के पूर्वार्द्ध में शर्मा नाटक की नायिका सुजाता का पति और उसका बॉस माथुर दोनों सुजाता को इस्तेमाल करते हैं। शर्मा अपने विलासिता जीवन के लिए अपनी पत्नी को अपने बॉस के साथ एडजस्ट करने के लिए आग्रह करता है और माथुर सुजाता को पाने के लिए उसके कार्यालय में शर्मा को पदोन्नति करता है। इन दोनों की करतूतों से तंग होकर सुजाता आत्महत्या कर लेती है। 

हिंदू धर्म में पत्नी को पति की वामांगी कहा गया है, यानी कि पति के शरीर का बायाँ हिस्सा। इसके अलावा पत्नी को पति की अर्ध्दांगिनी भी कहा गया है, जिसका अर्थ है पत्नी, पति के शरीर का आधा अंग होती है। दोनों शब्दों का सार एक ही है, जिसके अनुसार पत्नी के बिना एक पति अधूरा है। विवाह के बाद एक स्त्री न केवल एक पुरुष की पत्नी बनकर नए घर में प्रवेश करती है, वह अपना सर्वस्व अपने पति को समर्पित करती है। पतिव्रता नारी के तेज के सामने कामी और अत्याचारी निर्बल हो जाता है। वह ऊपर से कितने ही ताक़तवर दिखाई दे लेकिन अंदर से खोखला होता है। यही कारण रहा कि अशोक वाटिका में सीता को बंधक बनाकर रखने के पश्चात भी रावण इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि वह अपने मन की बात सीधे-सीधे माता सीता को कह पाता। राक्षसों के नाना प्रकार के डरावने मंज़र दिखाने के बाद भी सीता के आत्मविश्वास को नहीं डिगा सका। पतिव्रता नारी के सतीत्व को कोई नहीं डिगा सकता। इस प्रकार हमारे देश की नारियाँ अपने सतीत्व को अपने प्राण जैसे समझती हैं। तस्लीमा नसरीन ने लिखा है “धर्म और समाज जो चीज़ सबसे ज़्यादा सँभाल कर रखना सिखाता है वह सतीत्व इसे सँभाले रखने पर ही लड़कियों का समाज में सबसे ज़्यादा मूल्य होता है। मूल्य इस हिसाब से कि उसे लोग अपांक्तेय या अछूत घोषित नहीं करेंगे। दुनिया में प्रचलित सभी धर्मों में लड़कियों के सतीत्व को सबसे ज़्यादा महत्व दिया गया है। लेकिन किसी भी धर्म में पुरुष के लिए किसी तरह के सतीत्व का विधान नहीं है।”1 

प्रस्तुत नाटक में शर्मा अपनी पत्नी सुजाता का इस्तेमाल करके पैसा ऐंठना चाहता है। शर्मा और माथुर एक औरत के सतीत्व का अपमान करते हैं। माथुर की कमज़ोरी से शर्मा फ़ायदा उठाना चाहता है, इसलिए वह अपनी पत्नी को सज-धज कर अपने बॉस के सामने लेकर जाता है, उसके साथ शराब पीने का आग्रह करता है। माथुर सुजाता को पाना चाहता था, वह अपने प्रयत्न में सफलता भी पाता है। सतीश प्रशांत का विचार इस प्रकार है कि “समाज में आज भी ऐसे पुरुषों की कमी नहीं है जो घर में वैध पत्नी के होते हुए भी या तो चोरी-छिपे पर स्त्री से अपने अवैध संबंध जोड़ सकते हैं अथवा अपनी वैध पत्नी तथा कानूनों को धोखा देकर दूसरा विवाह कर लेते हैं।”2 आज के समाज में भी इस तरह के बहुत विषयों को हम अख़बारों में पढ़ते हैं और हमारे आसपास भी देखते हैं। 

प्रस्तुत नाटक रक्तबीज की सुजाता को उसका पति अपने विलासिता जीवन के लिए इस्तेमाल करता है। सुजाता को शर्मा की बॉस अपने कार्यालय में टाइपिस्ट बना कर रखता है, शर्मा को असिस्टेंट मैनेजर बनाता है। शर्मा सुख सुविधा से पूर्ण जीवन जीना शुरू करता है, लेकिन सुजाता अपने सतीत्व बचा के रखने के लिए इतना संघर्ष करती है फिर भी वह हार जाती है। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के बारे में गाँधीजी अपने विचार इस प्रकार व्यक्त करते हैं “आज के दौर में कुछ कामकाजी महिलाओं को सम्मुख सबसे बड़ी समस्या होती है कार्यस्थल पर उसका यौन उत्पीड़न जो कि चिंताजनक विषय है।”3 बॉस सुजाता को विदेश लेकर जाता है तब भी सुजाता जाने के लिए मना करती हैं, लेकिन शर्मा जाने के लिए प्रेरित करता है। सुजाता अपने आप में सोचती है– “मेरा पति घटिया और नामर्द! उस पर दया आती है मानस, और सच कहूँ तो उससे पहले दया आती है मुझे अपने आप पर। घटिया तो मैं भी हूँ। जब उसने मिनी ब्लाउज का प्रस्ताव रखा तो नोच लेना चाहिए था उसका चेहरा, फिर देखती दुबारा कैसे कहता वह।”4 विदेश जाने के पहले भी वह शर्मा से अनुरोध करती है। वह कहती है “परिणामों को जानते हुए भी तुम चाहते हो कि मैं जाऊँ।”5 तब सुजाता बॉस के कारण माँ बन जाती, वह बच्चा चाहती है लेकिन शर्मा को वह अनचाहा बच्चा नहीं चाहिए। दुर्घटना से गर्भपात हो जाता है। सुजाता अपने दुख को सहन नहीं पाती। वह बॉस को भी माफ़ करती, लेकिन पति को नहीं। वह पति के बारे में ऐसा सोचती है “एक रास्ते की तरह इस्तेमाल किया उसने मेरा”6 अंत में मानसिक द्वंद्व के कारण आत्महत्या कर लेती हैं।  नाटक की नायिका सुजाता नाटक के शुरुआत से अंत तक मानसिक द्वंद्व में रहती है। गाँधी जी ने नारी के बारे में कहा है “नारी पुरुष की सहचारी है। उसकी मानसिक शक्तियाँ पुरुष से ज़रा भी कम नहीं है। उसे पुरुष के छोटे से छोटे कार्यों में हाथ बाँटने का,आज़ादी का उतना ही अधिकार है, जितना पुरुष को।”7
आज स्त्रियाँ पढ़-लिखकर हर क्षेत्र में पुरुषों के क़दम से क़दम मिलाकर चल रही हैं। उच्च पदों पर आसीन हो रही हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियों को सँभाल रही हैं, सेना में भी भर्ती होकर देश रक्षा में सक्रिय योगदान दे रही हैं।  अफ़सोस की बात यह है कि आज की नारी की यह अभूतपूर्व सफलताएँ भी भारतीय पुरुषों की नारी संबंधित परंपरागत सोच को बदल नहीं पाई है। जानी-मानी मनोचिकित्सक अरुणा ब्रूटा कि कहना है “पुरुष सफल औरतों को सशक्त होकर देखते हैं। ... पुरुष एक ख़ूबसूरत गुड़िया चाहता है जो हर निर्णय में उस पर निर्भर करे। वह दिखाना चाहता है कि बागडोर उसी के हाथ में है।”8

प्रस्तुत नाटक के उत्तरार्ध, शांतनु और उसकी पत्नी ललिता की कथा है। उत्तरार्ध में भी शांतनु अपनी पत्नी को इस्तेमाल करता है।  शांतनु मेहनती और प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक है। वह अपने एंबिशन के लिए बच्चा भी नहीं होने देता। उसकी पत्नी ललिता औरत होने के कारण उसके बारे में बहुत सोचती है। नाटक में एक बार शांतनु बच्चों के बारे में इस प्रकार कहता है “ललिता दिखाती नहीं ऊपर से, लेकिन औरत है ना, कभी-कभी बहुत सोचती है उसके बारे में, अब उसकी समस्या हल कर दूँगा।”9

इस नाटक की नायिका सुजाता और ललिता दोनों माँ बनना चाहती हैं, बहुत तड़पती हैं। सुजाता को पहले से ही बच्चा ना होने का दुख है। माथुर के कारण वह गर्भवती होती है, लेकिन उसके पति को यह पसंद नहीं, इसलिए उसे गर्भपात करने के लिए कहता है। बाथरूम में गिर जाने के कारण उसका गर्भपात होता है, दुख के कारण आत्महत्या कर लेती है। अंतिम समय में मानस सुजाता से कहता है “हाँ छीन लिया तुम्हारा बच्चा उसने, इतनी बड़ी क़ीमत देकर ख़रीदा हुआ स्वप्न भी गया। सचमुच उससे इस हद तक जाने की उम्मीद नहीं थी।”10 दूसरी तरफ़ ललिता अपने पति की लक्ष्य प्राप्ति के लिए माँ नहीं बन पाती है, फिर भी अपने सब भावों को छुपाकर, पति की लक्ष्य प्राप्ति में साथ देती है। एक बार कीर्ति कहती है “एम्बीशन भी साली बड़ी क्रुएल होती है ग्यारह साल। लेकिन बच्चा नहीं होने दिया तुमने। होता तो चौबीस घंटे तुम्हारी हाज़िरी में तुम्हें वाइफ़ कहाँ से मिलती।”11 इस प्रकार ललिता ग्यारह वर्ष तक बच्चा होने से वंचित रह जाती है। 

नाटक में नायिका सुजाता और ललिता दोनों को अपने मनचाहे जीने पर भी अधिकार नहीं है। सुजाता पहले तो लालच के कारण शर्मा की बात मानती है, लेकिन वह हमेशा बेचेन रहती है, इसलिए वह शर्मा से सब कुछ छोड़ने के लिए कहती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि आज भी नारियों की दशा में कोई बदलाव नहीं आया है। पुरुष युगों से नारी के हर त्याग को अपना अधिकार और उसके हर बलिदान को उसकी दुर्बलता मानता आया है। पुरुष उसे कभी भी सहयोगिनी नहीं माना है। समाज में फैले हुए रूढ़ियाँ और संकीर्ण भावनाओं को छोड़कर हमारे संकुचित मानसिकता से बाहर आना चाहिए। बचपन से ही लड़कों के मन में लड़कियों को सम्मान और आदर करने का भाव उत्पन्न करने पर आने वाले पीढ़ियों में नर और नारी दोनों में कोई अंतर नहीं रहेगा। शोषण, बलात्कार, दहेज़ प्रथा आदि समस्याओं का हल होगा। नर-नारी की समानता से ही देश की उन्नति भी होगी। नर–नारी हैं समान, एक के बिना दूसरों को न मिलेगा सम्मान। 

संदर्भ:

  1.  नारी चेतना और कृष्ण सोबती के उपन्यास, डॉ. गीता सोलंगी, पृ.सं. -149

  2. परीक्षा मंथन (भाग -7), सतीश प्रशांत, पृ.सं. -34

  3. स्त्रियों के दर्जे के संबंध में, ‘बंबई मगिनी समाज’ में 20.02.1918को, पृ.सं. -321

  4. शंकर शेष : समग्र नाटक (2), रक्तबीज, पृ.सं. -263

  5. शंकर शेष : समग्र नाटक (2), रक्तबीज, पृ.सं. -268 

  6. शंकर शेष : समग्र नाटक (2), रक्तबीज, पृ.सं. -271

  7. स्त्रियों के दर्जे के संबंध में, ‘बंबई मगिनी समाज’ में 20.02.1918को, पृ.सं. -321

  8. नारी चेतना और कृष्ण सोबती के उपन्यास, डॉ. गीता सोलंगी, पृ.सं. -140

  9. शंकर शेष : समग्र नाटक (2), रक्तबीज, पृ.सं. -275

  10. शंकर शेष : समग्र नाटक (2), रक्तबीज, पृ.सं. -271

  11. शंकर शेष : समग्र नाटक (2), रक्तबीज, पृ.सं. -275


डॉ. के .महालक्ष्मी
चेन्नई-10

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