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आग की प्यास - के संदर्भ में लोक संस्कृति

लोक साहित्य हमारी संस्कृति एवं वांग्मय की मुख्यधारा का साहित्य है। इसके निर्माण में समाज एक विशाल पृष्ठभूमि का कार्य करता है। समाज के प्रांगण में प्रफुल्लित विकसित सम्पूर्ण मानवीय भावनाएँ, विश्वास, मान्यताएँ और रीतियाँ लोकसाहित्य की प्रेरक स्थितियाँ हैं। भारतीय समाज की रचना धर्म के मूलभूत तत्व पर आधारित है। "यूनान, मिश्र, रोम और चीन की प्राचीन संस्कृतियाँ लुप्त प्राय हो गई हैं, किंतु हमारी भारतीय संस्कृतियाँ अपनी सत्ता ज्यों की त्यों सुरक्षित बनाये हुए हैं। इसलिए कि भारतीय संस्कृति की आत्मा लोक संस्कृति है। यही इसका वैशिष्टय है।"1 ‘आग की प्यास’ कथाकार रांगेय राघव का एक चर्चित उपन्यास है, जिसमें प्रमुख रूप से ग्रामीण परिवेश के दृश्यों को दर्शाया गया है। ग्रामीण लोक संस्कृति का वर्णन सटीक रूप में किया गया है।

इस लोक संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को जो सबसे महत्वपूर्ण दान दिया है, वह है ‘आत्मीयता’ अर्थात अपने समान सभी को समझना। यह भाव भारत के अतिरिक्त किसी भी देश की संस्कृति में नहीं है। ‘आग की प्यास’ उपन्यास में रांगेय राघव ने प्रमुख रूप से संकली गाँव एवं उसके परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं को आधार बनाया है। कथा का प्रारंभ नागल के बौहरा से होता है, जो जीवन पर्यन्त विवाह नहीं करता। साथ मन में यह इच्छा अवश्य रखता है कि वह अपने गुरु की बेटी नारायनी को कभी न कभी प्राप्त कर लेगा। यह जानते हुए भी कि नारायनी का विवाह माधोलाल से हो गया है और उसके दो बच्चे हैं उसके मन में यह इच्छा रहती है। बौहरा छात्र जीवन से ही नारायनी पर आसक्त था। लेकिन उसकी ग़रीबी को देखते हुए उसके गुरु ने अपनी बेटी का हाथ उसे न देकर माधोलाल को सौंप दिया। इस ग़रीबी से चिढ़कर बौहरा ने धन एकत्रित करने का निश्चय किया। चाहे वह मार्ग उचित हो या अनुचित किसी भी तरह खूब धन कमाना उसका लक्ष्य बना। उसने धीरे से सबको ब्याज में ऋण देना प्रारंभ किया। एक समय था जब नारायनी के पति माधोलाल के पास सब कुछ था लेकिन एक समय आया जब सरकार सरकार उनकी ज़मीन को अपने कार्यों के लिए विलय कर लिया, जिससे माधो की स्थिति दिनों-दिन कमज़ोर होती चली गई। माधो ने बौहरा से कर्ज़ लिया है, जिसे वह चुका नहीं पाया और समय बढ़ने के साथ ही कर्ज़ के बोझ में दबता चला गया। कर्ज़ वसूलने के बहाने नागल का बौहरा नारायणी के घर बार-बार जाने लगा। रामदास और बौहरा दोनों गुरु भाई थे। लेकिन बौहरा धन कमाने के चक्कर में उसका भी अपमान करने से नहीं चूकता। उसने मास्टर रामदास को बछड़े की मृत्यु के आरोप में फँसा दिया, जिससे रामदास का हुक्का-पानी पूरे गाँव से बंद कर दिया गया। गाँव में गंदगी अधिक होने के कारण भयानक बीमारी फैल गयी। जिसमें प्रत्येक घर में मृत्यु होने लगी, लाशें निकलने लगी। लाशों को दफ़नाने वाला भी नहीं बचा था। पूरा संकली गाँव सड़ांध से भर गया। इन सब बातों का फ़ायदा उठाते हुए बौहरा ने माधो को कर्ज़ से छुटकारा दिलाने का लालच देकर चोरी करने पर मजबूर कर दिया। जिस भी घर में लाश पड़ी होती, वहाँ ये दोनों तलाशी करके धन इकट्ठा करने लगे।

नारायन सिंह के खज़ाने के विषय में सुनने के बाद बौहरा और माधो, नारायन सिंह की बातों को ध्यान से सुनने लगा। नारायन सिंह के मर जाने के बाद इन्होंने उस स्थान की खुदाई की तो खजाना मिल गया लेकिन धन के बँटवारे को लेकर दोनों में विवाद हुआ, जिसमें माधो का खून हो गया। इसी बीच नारायनी वहाँ पहुँच गयी। उसे आया देखकर बौहरा ने उसे अपने धन का लालच देकर अपने साथ रहने को कहा, पर इन सब बातों को सुनकर नारायनी का क्रोध बढ़ जाता है और उसने तलवार से अपने ऊपर ही वार किया, लेकिन बौहरा ने रोका। इस पर नारायनी, बौहरा को तलवार लेकर मारने दौड़ी, वह उसे मार तो नहीं पायी, पर उसने साज़िश के तहत नारायनी को माधो की हत्या के आरोप में जेल में बंद करवा दिया। जेल में नारायनी को कई तरह से सताया गया। जिससे नारायनी अंततः टूट गयी और उसने बौहरा की बात को स्वीकार कर लिया। इन सब बातों से नारायनी की बेटी शकुंतला पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, उसने प्रतिशोध की भावना से बौहरा की हत्या गोद-गोदकर कर डाली। और उसकी लाश नाले में फेंक दी। बौहरा की लाश देखकर गाँव में खलबली मच गयी। पुलिस को ख़बर हुई। पुलिस वालों ने गाँव वालों को सताना प्रारंभ कर दिया व एक-एक व्यक्ति को पकड़-पकड़कर पीटने लगे, जो भी बौहरा के विषय में बात करता, उसे ही पकड़ लेते। इसी क्रम में मास्टर रामदास को भी गिरफ़्तार कर थाने ले जाकर बहुत पिटाई की गयी। गाँव वालों के मन में पुलिस के प्रति आक्रोश पैदा हुआ और उन लोगों ने थाने का घेराव कर, पुलिस के ख़िलाफ़ नारे लगाकर रामदास को छोड़ने के लिए कहा, रामदास को देखना चाहते कि वह ठीक है या नहीं। मास्टर रामदास को गाँव वालों के सामने पेश किया गया। वहाँ असमंजस भरा वातावरण था कि शकुंतला ने स्वीकार किया अपने पिता के हत्यारे को मैंने मारा है। यह सुनकर पुलिस और गाँव वाले जब उसकी ओर आगे बढ़े तो शकुंतला पीछे हटती हुई नदी में गिर गयी। उसका कुछ पता नहीं चला है। यहीं पर उपन्यास समाप्त हुआ।

जिस भाँति माँ के मुँह से सुनी हुई कहानियाँ भुलाये नहीं भूलतीं, सुनने वाले बालक के मस्तिष्क में रच-बस जाती हैं, वैसे ही समूची लोक-संस्कृति हमारे मस्तिष्क में, हमारी भावनाओं में, हमारे सौंदर्य बोध में बस जाती है। किसी भी भाषा की अभिव्यंजना शक्ति पर विचार करते समय हमारा ध्यान उसकी लोकोक्तियों और मुहावरों पर जाता है। उनका सहज प्रयोग किसी भी भाषा को जीवंत बना देता है। जिस प्रकार लोक साहित्य में लोक बोलता है, उसमें लोक का प्रतिबिंब दिखाई देता है, उसी प्रकार लोकोक्तियों और मुहावरों में लोकमानस का सजीव चित्र दिखाई पड़ता है। उस चित्र में लोक हृदय की धड़कन होती है, माटी की महक का अनुभव होता है। लोक के जीवन की अनुभूति और अनुभव का संगीत सुनाई देता है, संस्कारों की गूँज होती है, जो "आग की प्यास" उपन्यास में स्पष्ट चित्रित हुई है, यथा-

"हौले-हौले दे दूँगा।" - पृष्ठ 12
"छक्के छूट जाएँगे।" - पृष्ठ 13
"उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे।" - पृष्ठ 45
"मुँह पर तमाचे पड़ गए।" - पृष्ठ 50
"वे दिन-रात देही खटाएँ, मैं खाट पर पड़ी-पड़ी चरूँ।" - पृष्ठ 66
"हल्दी की गाँठ मिल गई तो मूसा पंसारी बन बैठा।" - पृष्ठ 109"2

आग की प्यास में लोक में प्रचलित कई तरह की परम्परायें दृष्टव्य होती हैं, जिनमें लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं- "परंपरा अपने को ही काटकर, तोड़कर आगे बढ़ती है इसलिए कि वह निरंतर मनुष्यों को अनुशासित रखते हुये भी स्वाधीनता के नए-नए आयामों में प्रतिष्ठित करती चलती हैं। परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं सब के लिए मुक्ति) निरंतर तलाश है।।"3 जैसे निम्नलिखित उद्धरण में-

गाँवों में यह बात सहज ही सब लोग मानते हैं कि जिसका पिता या माँ का स्वर्गवास हो तो उसके बेटे के द्वारा ही चिता को अग्नि दी जाती है।

"तेरा बेटा तुझे दाग दे।"4

"बौहरे ने उठकर सूखी धोती उतारी और अपनी गीली काछ ली, डंडा संभाला और डंडा-छाता लेकर मजबूर सा माधोलाल भी आ गया। नारायनी कुछ भी नहीं कह सकी।"5

लोक में कई प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित रहती हैं, जिनमें लोक संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। ‘आग की प्यास’ में ग्राम्य जीवन की कई मान्यताएँ सच्चे रूप में व्यक्त हुई हैं, जैसे-
"आते-जाते भेंट-भेंटावन नहीं उगाही।"6

कर्ज़दार व्यक्ति जिससे कर्ज़ लिये रहता है, उसको खुष रखने के लिए कर्ज़ के अलावा भी कई तरह से भेंट करते है। ग्राम्य जीवन में अक्सर यह देखा जाता है कि लोग कई तरह की रहस्यमय खज़ाने की भी चर्चा करते हैं। ‘आग की प्यास’ में इस तरह की मान्यताएँ भी मुँह उठाये खड़ी दिखाई देती हैं जब बौहरा एवं माधोलाल नारायन सिंह के खज़ाने को हथियाना चाहता है।

प्रस्तुत उपन्यास में प्रमुख रूप से ग्रामीण परिवेश को ही आधार बनाया है जिसे लोक संस्कृति की रीढ़ कह सकते हैं। ग्राम्य जीवन में किसी गाय या बछड़े को मारना अत्यंत पाप माना जाता है। लेकिन ‘आग की प्यास’ में बौहरा माधोलाल के बछडे़ को मारकर उसका आरोप मास्टर रामदास पर साबित करता है, जिससे पूरा गाँव से रामदास का हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता है।

गाँवों में गंदगी इस तरह फैल जाती है, जिससे कई भयानक बिमारी का उद्भव होता है-

"उसके शरीर पर कै जम गई थी। मक्खियाँ इस कदर थीं कि देखते ही मिचली आती थी।"7

ग्रामीण परिवेश की प्रमुख विशेषता यह भी दिखाई देती है कि लोग कर्ज़, बैंक से लेने के बजाए गाँव में ही किसी व्यक्ति से ले लेते हैं जो मनचाहा ब्याज वसूल करता है, साथ ही अपनी दादागिरी भी दिखाता है।

"एक पुराने कागज पर कच्ची-सी रसीद लिख दो कि माधो मकान मेरे पास रेहन रखता है।"8

लोक साहित्य भारतीय समाज की सामुदायिक जीवन शैली का अप्रतिम दर्पण है। समाज का वास्तविक प्रतिबिंब लोक साहित्य के मायने में ही प्रतिबिंबित होता है। आज लोक जीवन में गहराई से विचार वाले विद्वान लोकगीतों को भी अपौरुषेय कहते हैं। पूरे समाज का अनुभव जन्म ज्ञान और उसकी रचनाशीलता का बल उन लोकगीतों में समाहित होता है। प्रसिद्ध लोकगीत संग्राह्क देवेन्द्र सत्यार्थी के शब्दों में- "जिस प्रकार फल की उत्पत्ति से पहले फूल अपनी बहार दिखाता है, उसी प्रकार बड़े-बड़े प्रतिभाशाली साहित्य सेवियों तथा कलाकारों के आने से पहले ग्रामीण भाट और कथक्कड़ गीत गाकर ग्राम साहित्य की नींव डालते हैं। साहित्य के इस बाल्यकाल में घटना और कल्पना में सगी बहनों का-सा सम्बन्ध रहता है सुख-दुख की कितनी ही समस्याएँ भोले-भाले ग्रामवासियों को अपने साथ हँसाकर या रुलाकर साहित्य निर्माण के लिए सामग्री प्रदान करती है।"9

लोक कला और लोक संगीत का उदाहरण ‘आग की प्यास’ में स्पष्ट परिलक्षित होता है।

"जो अधिक मीठा होता है वह अधिक सताया जाता है। देखो तो मीठे गन्ने को कोल्हू में पेला जाता है।"10

गाँवों में इस तरह के गाने आज भी लोगों के द्वारा गुनगुनाये जाते हैं-

"हुक्का हर का लाडला देख्या ही जीया।
कौड़ी खर्जन गाँठ की मांग्या ही पाया।"11

इस उपन्यास के पात्र नागल का बौहरा अपने मन ही मन यह गा उठता है कि जिसको भी काम पड़ेगा वह अंत में मेरा ही नाम लेता है-

"ओ-आवै अंत काम, सो ही मेरा नाम।"12

लोककला एवं लोक संगीत आज भी चलन में है।

‘आग की प्यास’ में रांगेय राघव ने लोक संस्कृति की विभिन्न छटाओं को बिखेरने में किसी प्रकार की कोर कसर नहीं छोड़ी है, यह उपन्यास के माध्यम से रांगेय राघव समाज, ख़ासकर ग्रामीण समाज में फैले व्याप्त बुराइयों एवं अत्याचार का पर्दाफाश करते दिखाई दिये हैं, जिससे सीख लेकर समाज में रहने वाले व्यक्तियों को अच्छाई के मार्ग पर अग्रसित किया जा सकता है। लोक संस्कृति की यह विशेषता भी प्रमुख है कि लोक में जीवनयापन करने वाले मनुष्यों के द्वारा परस्पर सहयोग की भावना रहती है, जो इस उपन्यास के माध्यम से मास्टर रामदास के चरित्र को उभारा है।

संदर्भ सूची-

1. सुमन श्री रामनाथ (सं.) सम्मेलन पत्रिका, लो.सं. अंक हिन्दी सा. सम्मेलन, प्रयाग, सन् 1973, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज का लेख, भारतीय संस्कृति में लोक जीवन की अभिव्यक्ति, पृष्ठ 21-22
2. राघव डॉ.रांगेय- आग की प्यास- रांगेय राघव के चर्चित उपन्यास-सुरभि प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014
3. मिश्र विद्यानिवास-परंपरा बंधन नहीं, राजपाल एन्ड सन्स-दिल्ली, प्रथम संस्करण 1976, पृष्ठ संख्या 15
4. राघव डॉ.रांगेय- आग की प्यास- पृष्ठ 59
5. वही पृष्ठ 21
6. वही पृष्ठ 109
7. वही पृष्ठ 75
8. वही पृष्ठ 48
9. पाण्डेय सुधाकर (संकलन) नागरी निबंध-गंगा, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी संस्करण, 2000 पृष्ठ 172
10. राघव डॉ. रांगेय आग की प्यास रांगेय राघव के चर्चित उपन्यास, सुरभि प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2014 पृष्ठ 47
11. वही पृष्ठ 48
12. वही पृष्ठ 89

उमेंद कुमार चंदेल
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय
खैरागढ़, जिला- राजनांदगाँव (छ.ग.)
मो.- 9589698005
ई-मेल: umendchandel@yahoo.ocm

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