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आईना साफ़ है

आँखों का होना भी,
एक कर्ज़ जैसा है।
यहाँ बहुत से सच को,
झूठ के नज़रों से अनदेखा करना पड़ता है।
और कितने मासूम ज़मीर को,
आँखों में बंद करके,
इन आँखों का कर्ज़ चुकाना पड़ता है।
मतलबी इसीलिए नहीं है दुनिया
यहाँ मतलब परस्त रहते हैं,
कुछ सपने इन्सान से बड़े हो जाते हैं,
जो उन्हें इन्सान होने से अलग कर देते हैं।
मुख़ातिब हो जाऊँगा मैं,
तेरी शिकायतों को सुनने के लिए,
शर्त है, मेरी ग़लतियों का हिसाब
ज़रा ईमानदारी से कर लेना।
आज बच्चे नये हैं,
विचार भी कितने रंग बिरंगे हैं इनके,
जैसे तितली के रंग।
लेकिन ज़माना हो गया
उस पुराने हामिद को देखे-सुने,
जिसे अपने ख़ुशियों में भी,
दादी का जला हाथ याद रहा।
मैं गुमनाम इसीलिए नहीं हूँ,
कि दुनिया के पीछे खड़ा हूँ
अभी मुझे कई जज़्बातों से फ़ुरसत नहीं है।
हर चीज़ आईने में नहीं दिखती,
कभी-कभी आदमी,
अपनें इरादों में नज़र आ जाता है।
कैसे न मैं सारे ज़माने का दुःख,
अपने पास रखूँ।
क्योंकि पूरे समाज की मुस्कुराहट,
इसी हुकूमत पर तो टिकी है।
कोई बता दे मुझे,
रंगों की सच्चाई,
मगर पहले यह बताए,
यह बेरंग कैसा दिखता है
और इसका रंग कैसा है?

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