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आख़िर क्या चाहिए . . .?

गीता छुट्टियों में अपने मायके आयी हुई थी। गीता और माँ बतिया ही रहे थे कि कुसुम मौसी आयीं।

बातों-बातों में गीता ने सबके समाचार लेना शुरू किये . . .

गीता: मौसी पूनम कैसी है?

मौसी: मायके आ कर बैठी है, ससुराल वालों से बना कर रहना तो आता ही नहीं आजकल की लड़कियों को।

गीता: शन्नो दीदी के क्या हाल?

मौसी: अरे, शन्नो नौकरी क्या कर रही है मान लो एहसान कर रही है घरवालों पर। बच्चों को भी डे-केयर छोड़ देती है; ऐसा भी पैसा क्या काम का . . .? बिचारी सास को घर के काम करने पड़ते हैं।

गीता: विभा का कैसे चल रहा है?

मौसी: क्या बताऊँ, घर के हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं, लेकिन ये लड़की चार पैसे नहीं कमा कर ला रही। सास और बच्चों में उलझ कर घर पर पड़ी रहती है। इतनी पढ़ाई किस काम की?

गीता: और अंजू भाभी कैसी हैं?

मौसी: अंजू की तो पूछ मत! बड़ी धार्मिक बनी फिरती है; जब देखो पूजा-पाठ। घर-परिवार के होते हुए कोई इतना सब करता है क्या? चुप-चाप गृहस्थी नहीं सँभालते बनती? ऐसे में पति क्या करेगा बेचारा?

गीता का पारा अब तक चढ़ चुका था। 

वो बोली, "मौसी आख़िर एक बहू से क्या उम्मीद है आपकी? उसके सिवा आपको सब बेचारे लगते हैं? कभी झाँक के देखा आपने इन्हीं सब लड़कियों के मन में कि ये जो वो कर रही हैं– ऐसे क्यों कर रही हैं? बस सामने जो दिखा, उस की बुराई शुरू कर दी समाज में। अरे वो लड़की अपने माता-पिता को छोड़ कर किसी और घर को अपना घर बनाने की कोशिश में जुटी है। ये तो जानो कि किसी ने उसे, उस घर को कभी अपना बनाने में मदद की? हर वक़्त, हर परिस्थिति में, सिर्फ़ बहू ही बुरी है – ये बात हम कब छोड़ेंगे?"

मौसी कि बुद्धि पर पता नहीं क्या प्रकाश पड़ा, तुरंत बहू को फ़ोन कर के बोली, "बेटे ऑफ़िस से आने की जल्दी मत करना, शाम का खाना अब से मैं बनाऊँगी" और बस जल्दी जल्दी घर की ओर चल पड़ी . . .

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