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आनंद की अनुभूति

इक रोज़ गई जो पूजाघर, ठाकुर जी से बतियाने को
हाथ जोड़कर दीप जलाकर, मन अपना बहलाने को
पुष्प सजाकर भोग लगाकर, अर्चन उनका करने को 
इष्ट देव की दिव्य प्रभा से, हिय आलोकित करने को
उनकी सुन्दर छवि देखकर, अंतर्तम पावन करने को 
 
सोचा शिकवे ख़ूब करूँगी इसकी उसकी सारे जग की
ख़ुश करके उनको मैं अपने मनोरथों को सिद्ध करूँगी
नयनों को मैं जल से भरकर दया की दृष्टि पा जाऊँगी 
धन और पद के लालच में मैं लड्डू का भोग चढ़ाऊँगी
घट घट वासी अंतर्यामी से, गुपचुप बातें ख़ूब करूँगी 
 
सम्मुख आकर इष्ट देव के देखा जो उनकी आँखों में
करुणा के असीम अर्णव में खोया अपना आपा मैंने
जैसे ही था शीश झुकाया, शिकवे अपने सब भूल गई 
विस्मृत करके दुनियादारी, सम्मोहित सम्मुख बैठ गई 
नयन मींचकर बोली भगवन्, आ गई हूँ तेरे चरणों में 
 
बंद पलक में अपलक देखा, मंजुल शोभा इष्ट देव की 
सौंप के उनको अपना चेतन, अवचेतन में देखा उनको
हर्ष के अनुपम पयोनिधि में समा गई थी मुक्ता जैसी
भूल गई थी भौतिक माँगे, व्यर्थ दर्प, दुख व अभिमान
तृप्त चित्त ने अश्रुनीर से आनंद बेल को सींच दिया था 

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