आँखें (दिव्या माथुर)
काव्य साहित्य | कविता दिव्या माथुर29 Nov 2007
लो आसमान सी फैल उठीं नीली आँखें
लो उमड़ पड़ीं सागर सी वे भीगी आँखें
मेघश्याम सी घनी घनी कारी आँखें
मधुशाला सी भरी भरी भारी आँखें
एक भरे पैमाने सी छलकीं आँखें
दिल मानो थम गया किंतु धड़कीं आँखें
ओस में डूबी झील सरीखी नम आँखें
जग का समेटे बैठी हैं ये ग़म आँखें
आँसू का पी एक घूँट, दीं मुस्का आँखें
ये इलाज कई मर्ज़ों का नुस्खा आँखें
शब भर पढ़ती रहीं किसी के ख़त आँखें
धंस बेज़ारी से गालों में गईं झट आँखें
ठिठक गईं जीवन का लगा ग्रहण आँखें
पलक हुआ मन और बनी धड़कन आँखें
जहाँ का दर्द समेटे थीं बोझिल आँखें
दूज के चाँद सी सिमट हुईं ओझल आँखें।
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