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आँखें (दिव्या माथुर)

लो आसमान सी फैल उठीं नीली आँखें
लो उमड़ पड़ीं सागर सी वे भीगी आँखें


मेघश्याम सी घनी घनी कारी आँखें
मधुशाला सी भरी भरी भारी आँखें


एक भरे पैमाने सी छलकीं आँखें
दिल मानो थम गया किंतु धड़कीं आँखें


ओस में डूबी झील सरीखी नम आँखें
जग का समेटे बैठी हैं ये ग़म आँखें


आँसू का पी एक घूँट, दीं मुस्का आँखें
ये इलाज कई मर्ज़ों का नुस्खा आँखें


शब भर पढ़ती रहीं किसी के ख़त आँखें
धंस बेज़ारी से गालों में गईं झट आँखें


ठिठक गईं जीवन का लगा ग्रहण आँखें
पलक हुआ मन और बनी धड़कन आँखें


जहाँ का दर्द समेटे थीं बोझिल आँखें
दूज के चाँद सी सिमट हुईं ओझल आँखें।

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