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आपदा में अवसर

वो एक बड़े अख़बार में काम करता था। लेकिन रहता छोटे से क़स्बेनुमा शहर में था। कहने को पत्रकार था, मगर बिल्कुल वन मैन शो था। 

इश्तहार, ख़बर, वितरण, कम्पोज़िंग सब कुछ उसका ही काम था। एक छोटे से शहर तुलसीपुर में वो रहता था। जयंत की नौकरी लगभग साल भर के कोरोना संकट से बंद के बराबर  थी।

घर में बूढ़े माँ-बाप, दो स्कूल जाती बच्चियाँ और एक स्थायी बीमार पत्नी थी। वो ख़बर, अपने अख़बार को लखनऊ भेज दिया करता था। इस उम्मीद में देर-सबेर शायद हालात सुधरें, तब भुगतान शुरू हो। 

लेकिन ख़बरें अब थीं ही कहाँ?

दो ही जगहों से ख़बरें मिलती थीं, या तो अस्पताल में या फिर श्मशान में।

श्मशान और क़ब्रिस्तान में चार जोड़ी कंधों की ज़रूरत पड़ती थी। लेकिन बीमारी ने ऐसी हवा चलाई कि कंधा देने वालों के लाले पड़ गए।

हस्पताल से जो भी लाश आती, अंत्येष्टि स्थल के गेट पर छोड़कर भाग जाते, जिसके परिवार में अबोध बच्चे और बूढ़े होते उनकी लाश को उठाकर चिता तक ले जाना ख़ासा मुश्किल हो जाता था।

कभी श्मशान घाट पर चोरों-जुआरियों की भीड़ रहा करती थी, लेकिन बीमारी के संक्रमण के डर से मरघट पर मरघट जैसा सन्नाटा व्याप्त रहता था।

जयंत किसी ख़बर की तलाश में हस्पताल गया, वहाँ से गेटमैन ने अंदर नहीं जाने दिया, ये बताया कि पाँच-छह हिंदुओं का निधन हो गया है और उनकी मृत देह श्मशान भेज दी गयी है।

ख़बर तो जुटानी ही थी, क्योंकि ख़बर जुटने से ही घर में  रोटियाँ जुटने के आसार थे। सो वो श्मशान घाट पहुँच गया।  वो श्मशान पहुँच तो गया मगर वो वहाँ ख़बर जैसा कुछ नहीं था। जिसके परिवार के सदस्य गुज़र गए थे, लाश के पास वही इक्का दुक्का लोग थे।

उससे किसी ने पूछा– "बाबूजी आप कितना लेंगे?"

उसे कुछ समझ में नहीं आया। कुछ समझ में ना आये तो चुप रहना ही बेहतर होता है, जीवन में ये सीख उसे बहुत पहले मिल गयी थी।

सामने वाले वृद्ध ने उसके हाथ में सौ-सौ के नोट थमाते हुए कहा– "मेरे पास सिर्फ चार सौ ही हैं, बाबूजी। सौ रुपये छोड़ दीजिये, बड़ी मेहरबानी होगी, बाक़ी दो लोग भी चार-चार सौ में ही मान गए हैं। वैसे तो मैं अकेले ही खींच ले जाता लाश को, मगर दुनिया का दस्तूर है बाबूजी, सो चार कंधों की रस्म मरने वाले के साथ निभानी पड़ती है। चलिये ना बाबूजी प्लीज़।"

वो कुछ बोल पाता तब तक दो और लोग आ गए, उन्होंने उसका हाथ पकड़ा और अपने साथ लेकर चल दिये।

उन सभी ने अर्थी को कंधा दिया, शव चिता पर जलने लगा। 

चिता जलते ही दोनों आदमियों ने जयंत को अपने पीछे आने का इशारा किया। जयंत जिस तरह पिछली बार उनके पीछे चल पड़ा था, उसी तरह फिर उनके पीछे चलने लगा।

वो लोग सड़क पर आ गए। वहीं एक पत्थर की बेंच पर वो दोनों बैठ गए। उनकी देखा-देखी जयंत भी बैठ गया।

जयंत को चुपचाप देखते हुये उनमें से एक ने कहा– "कल फिर आना बाबू, कल भी कुछ ना कुछ जुगाड़ हो ही जायेगा।"

जयंत चुप ही रहा।

दूसरा बोला– "हम जानते हैं इस काम में आपकी तौहीन है। हम ये भी जानते हैं कि आप पत्रकार हैं। हम दोनों आपसे हाथ जोड़ते हैं कि ये ख़बर अपने अख़बार में मत छापियेगा, नहीं तो हमारी ये आमदनी भी जाती रहेगी। बहुत बुरी है, मगर ये हमारी आख़िरी रोज़ी है। ये भी बंद हो गयी तो हमारे परिवार भूख से मरकर इसी श्मशान में आ जाएँगे। श्मशान कोई नहीं आना चाहता बाबूजी, सब जीना चाहते हैं, पर सबको जीना बदा हो तब ना।"

जयंत चुप ही रहा। वो कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या उसने कर दिया, क्या उसके साथ हो गया? 

दूसरा व्यक्ति धीरे से बोला– "हम पर रहम  कीजियेगा बाबूजी, ख़बर मत छापियेगा, आप अपना वादा निभाइये, हम अपना वादा निभाएँगे। जो भी मिलेगा, उसमें से सौ रुपए देते रहेंगे आपको फ़ी आदमी के हिसाब से।"

जयंत ने नज़र उठायी, उन दोनों का जयंत से नज़रें मिलाने का  साहस ना हुआ। 

नज़रें नीची किये हुए ही उन दोनों ने कहा– "अब आज कोई नहीं आयेगा, पता है हमको। चलते हैं साहब, राम-राम।"

ये कहकर वो दोनों चले गए,थोड़ी देर तक घाट पर मतिशून्य बैठे रहने के बाद  जयंत भी शहर की ओर चल पड़ा। 

शहर की दीवारों पर जगह-जगह इश्तिहार झिलमिला रहे थे और उन इश्तहारों को देखकर उसे कानों में एक ही बात गूँज रही थी—

"आपदा में अवसर"।

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टिप्पणियाँ

Pragya Singh 2021/05/29 12:08 PM

dukhad parantu yhi khadva stya hai

Rajnandan 2021/05/15 03:28 PM

मार्मिक कथा

डॉ पदमावती 2021/05/15 11:25 AM

दिल दहलाने वाला सच । भयंकर और दर्दनाक!

पाण्डेय सरिता 2021/05/15 10:25 AM

ओह! समसामयिक घटनाचक्र पर संवेदनशील अभिव्यक्ति

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