आशियाना
काव्य साहित्य | कविता रीता तिवारी 'रीत'15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
कैसा आशियाना है?
छोड़कर तो जाना है।
फिर भी कितने शिकवे हैं,
कैसा ताना-बाना है?
वक़्त ना ठहरता यह,
हाथ से फिसलता है।
उम्र के पड़ाव को तो,
यूँ ही आना जाना है।
जाएँगी धरी तेरी,
ख़्वाहिशें हों कितनी भी।
एक भी तमन्ना को,
संग नहीं जाना है।
क्यों अकड़ता है मानव,
तेरा ना अस्तित्व कोई।
समय का परिंदा है,
इसको तो उड़ जाना है।
पंच तत्व की यह देह,
आत्मा से पूर्ण हुई।
पंचतत्व में इसको
फिर, से मिल जाना है।
कर्म तेरे फैलेंगे
पुष्प की सुगंध सदृश।
इसलिए सुकर्म करो,
पुण्य गर कमाना है।
मृत्यु सत्य शाश्वत है,
एक दिन आएगी।
जीवन को कर सार्थक,
भक्ति मार्ग पाना है।
कलुषित ना कर जीवन,
ईश्वर में रत हो मन।
मार्ग का प्रदर्शक तो,
उसको ही बनाना है।
साँसों का बंधन यह,
आत्मा से यूँ जुड़ा है।
वैसा ही बंधन,
भगवान से बनाना है।
समय कहाँ रुकता है,
उड़ता परिंदा-सा।
जीवन को सार्थक,
सदमार्गी बनाना है।
"रीत" कहे काया में,
ही बसती माया है।
ईश्वर का ध्यान करके,
मुक्ति मार्ग पाना है।
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