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अब ज़रूरी हो गया है

उलझनों की कश्मकश में, 
अब उम्मीदों की ढाल बनना  
ज़रूरी हो गया है।
 
नदियों से सीखो 
समुंदर को ढूँढ़ लेने का हुनर,
कि . . . अब मंज़िल को पाना  
ज़रूरी हो गया है।
 
फिर से चलो . . . 
कि अब चलना 
ज़रूरी हो गया है,
दुनिया की भीड़ से 
अब अलग होना 
ज़रूरी हो गया है।
 
कोई तो जगह होगी, 
जहाँ से न जाना होगा,
इस परिंदे का कहीं तो 
आशियाना होगा।
कब तलक ख़ुद में 
सिमटे रहोगे तुम,
दुनिया से मिलो . . . 
कि अब मिलना 
ज़रूरी हो गया है।
 
वक़्त गुज़ार लिया 
काफ़ी अँधेरों में,
रोशनी में अब तो आना होगा।
उदासी का दामन छोड़ के,
फूल से खिलो . . . 
कि अब खिलना 
ज़रूरी हो गया है।
 
ना जाने कितने ही 
ख्वाब हैं तुम्हारे,
नींद से जागो . . . 
कि अब जागना 
ज़रूरी हो गया है।
 
कई चेहरों के बीच ही 
खो गए तुम,
ख़ुद को तलाशना अब 
ज़रूरी हो गया है।
 
यूँ ख़ामोशी से सज़ा न दो, 
अपने ख़्यालों को,
ख़ुद को तराशना अब 
ज़रूरी हो गया है।
 
ख़ुद को ना खोने दो 
भीड़ में कहीं,
उठो . . . कि अब 
वक़्त साबित करने का 
ख़ुद को हो गया है।
 
इन चार दीवारों में 
घुट घुट के मरना 
ज़िंदगी नहीं,
परिंदे से उड़ो . . . 
कि अब उड़ना 
ज़रूरी हो गया है।
 
डॉ शिल्पा तिवारी
 

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