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अबलाओं का इन्साफ़ - स्फुरना देवी

अबलाओं का इन्साफ़ 
लेखिका: स्फुरना देवी 
संपादन: नैया 
प्रकाशक" राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 
7/13 अंसारी रोड, दरिया गंज, नई दिली -110002 
पृष्ठ: 192
मूल्य: 350/- 

स्फुरना देवी की आत्मकथा "अबलाओं का इन्साफ़" जिसे "नैया" नाम की स्त्री विषयक शोध चिंतक ने संपादित रूप में प्रस्तुत किया है, इसे आधुनिक हिंदी की प्रथम स्त्री-आत्मकथा के रूप में मान्यता मिली है। यह पुस्तक पाठकीय चेतना को झकझोर देने वाली दारुण यातनाओं की महागाथा है। स्फुरना देवी ने इस आत्मकथा को देवताओं के दरबार के रूप में आरंभ किया है। लेखिका पौराणिक संदर्भों के माध्यम से अपने प्रतिपाद्य को स्थापित करती हैं। इसमें भगवान, धर्मराज, चित्रगुप्त और सहनशीलता, प्रेम, सत्या, असत्य, हिंसा, दमन, अमन, सत्संग, अक्रोध, आदि प्रवृत्तियाँ देवों के रूप में और न्यायकर्ताओं के रूप में प्रस्तुत की गई हैं। इनके सम्मुख अपराध्यों के रूप में पेश की जाती हैं वे स्त्रियाँ जिन्होंने इन सबका उल्लंघन किया है। वहाँ राधा, भानुमती, सुशीला गंगा, आनंदी मनोरमा के बयानों के रूप में लिखी गई आत्मस्वीकृतियाँ हैं। ये सभी वैश्य और ब्राह्मण जाति की महिलाएँ हैं, मगर आपबीती सभी की एक जैसी हैं। किसी का विवाह बचपन में हुआ है, किसी का पति मर चुका है, किसी की शादी सात-आठ वर्ष की उम्र में चालीस-पचास साल के दुहाजू अधेड़ से ज़बर्दस्ती कर दी गई है तो कोई घर से भागकर किसी दूसरी जाति के लड़के के साथ संबंध बना लेती है। अधिकांश लड़कियाँ नौकर-चाकर या साधु-संतों द्वारा असमय ही यौन उत्पीड़न का शिकार बनाई गई हैं।

आज देश में बलात्कार की घटनाएँ का जिस कल्पनातीत आकार और स्वरूप में समाज के सम्मुख उजागर हो रहीं हैं, यही कहानी इस पुस्तक में स्फुरना देवी ने सन् 1927 में ही रच दिया था। मनुष्य की आदिम काम वासना हर युग में एक जैसी ही रही है जिसका उद्दाम और अनियंत्रित और घिनौना रूप आधुनिक युग में सभ्यता के चरम विकास के सोपान पर भी वैसी ही कायम है जैसे कि प्रागैतिहासिक युग में रहा होगा।

यह कहानी इस पुस्तक में अनेक पात्रों के माध्यम से दुहराई जाती है। घरेलू यौन हिंसा से होते होते स्त्रियाँ किस तरह बाज़ार में शरीर का सौदा कर अपना पेट भरने के लिए कोठे पर बैठा दी जाती हैं, जहाँ वे भयानक ग़रीबी और बीमारी की हालत में अपना दम तोड़ देती हैं। प्राय: लड़कियाँ अपने घरों से नकदी और ज़ेवर चुराकर प्रेमियों को जीतने के लिए उनके हवाले कर देती हैं और स्वयं उनकी दया की मोहताज़ होकर जीवन बिताने के लिए विवश हो जाती हैं। अधिकांश सम्पन्न और व्यापारी घरों की ये लड़कियाँ इस पाटन की यात्रा में धीरे धीरे किस तरह उतरती हैं इसका लोमहर्षक वर्णन स्फुरना देवी ने बेबाकी से किया है।

राजेन्द्र यादव ने "हंस" के अपने अंतिम संपादकीय में स्फुरना देवी कृत "अबलाओं का इन्साफ़" के प्रभाव के संबंध में लिखते हैं - "मेरे लिए इस पुस्तक से गुज़रना साक्षात नरक से गुज़रना है, और मैं इससे पहले शायद कल्पना भी नहीं कर सकता था कि ये अनमेल या बाल-विवाह विधवा जीवन की वजह बनकर उसे किस परिणाम की गहराई तक ले जाते और दूर तक समाज को खोखला करते रहे हैं। इन्हीं संपन्न घरों की लड़कियों से भरे होते थे वेश्यालय और जुए के नशेड़ी-भंगेड़ी अड्डे; लाखों-करोड़ों की धन-संपत्ति वाले परिवारों से आई लड़कियाँ अठन्नी छाप वेश्याओं के रूप में जीवन का अंत करती हैं -यह कहानी किसको भीतर तक नहीं हिला देगी।"

"अबलाओं का इन्साफ़" को इसकी लेखिका स्फुरना देवी ने आत्मकथा कहा है परंतु इसकी पठनीयता और शैली इसे आत्मकथात्मक उपन्यास की तरह पठनीय बनाती है। अत: इसे आत्मकथात्मक उपन्यास की श्रेणी में रखा जा सकता है। कल्पना, यथार्थ और रोचकता का सम्मिश्रण लिए यह कृति आत्मकथा और उपन्यास दोनों का ही आस्वाद देती है। लेखिका स्वयं अपनी प्रस्तावना में लिखती हैं कि - "मैंने थोड़े से नामों की कल्पना करके, उनके वर्णनों में अनेक अत्याचार पीड़ित व्यक्तियों की आत्मकथाओं का संक्षेप में समावेश कराते हुए, समाज की दुर्दशा का दिग्दर्शन मात्र करा दिया है। इस तरह की आत्मकथा सच्ची हों, तो भी उनके संबंध में व्यक्तियों के सच्चे नाम लिखना अनेक कारणों से ठीक नहीं। अत: इस लेख में नाम यद्यपि बदले गए हैं और कहीं-कहीं कल्पित भी किए गए परंतु अत्याचार कल्पित नहीं हैं।" प्रस्तावना में स्फुरना देवी का पाठकों को सम्बोधन महत्वपूर्ण है जो कि इस कृति के औचित्य और उसके सामाजिक सरोकार को रेखांकित करता है - "पाठक महाशयो! यह कोई धर्म की गाथा नहीं है, न कोई अपने पूर्वजों का पवित्र इतिहास, न यह कोई मनोरंजक उपन्यास या नाटक है, और न यह शृंगार रस, नायिका भेद तथा उपमालंकार से परिपूर्ण कोई काव्य ही है, यह न कोई राजनीतिक पुस्तक है, न कोई वैज्ञानिक निबंध, न इसमें भाषा की शुद्धता एवं सुंदरता पर ही कोई ख्याल रखा गया है और न कविता ही कही गई है, बल्कि अत्याचार से आतुर महिलाओं की आत्मकथा, और है उनकी करुणा भरी अपील।"

इस कृति में उपन्यास, नाटक, कविता, धर्म गाथा, शृंगार रस, इतिहास, राजनीति के वे सब तत्त्व मौजूद हैं जो पाठक को बेचैन करते हैं। निश्चित ही यह अत्याचार से आतुर अबलाओं की आत्मस्वीकृति भी है और पितृसत्तात्मक दंभी व्यवस्था से एक स्त्री द्वारा माँगा गया इन्साफ़ भी है।

इस कृति को संपादित रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय "नैया" को है जिन्होंने आरंभिक स्त्री कथा-साहित्य के गंभीर अध्येता के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी हैं। हिंदी की प्रथम दलित स्त्री-रचना "छोट के चोर" (लेखिका श्रीमती मोहिनी चमारिन, कन्या मनोरंजन, संपादक ओंकारनाथ वाजपेयी, अगस्त 1915, अंक 11, भाग दो, इलाहाबाद) प्रकाश में लाने का श्रेय भी "नैया" को ही जाता है।

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