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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाया जाए

सुना है एक मुख्यमंत्री ने एक केंद्रीय मंत्री को सिर्फ़ इसलिए गिरफ़्तार करवा लिया कि अमुक केंद्रीय मंत्री ने मुख्यमंत्री को थप्पड़ मारने या कुछ इसी तरह की वीरोचित पर नितांत व्यक्तिगत बात कही थी। 

पहले तो हम समझै नहीं पाए। 

हम समझे कि यह कोई नया प्रोटोकॉल होगा। हमें लगा कि अब केंद्र-राज्यों के बीच हद से ज़्यादा औपचारिक सम्बंध बीते दिन की बात हुई। पहली बार संबंधों में गर्माहट महसूस हुई। लेकिन बात वो नहीं थी, जो हम माने बैठे थे। बात तो एक-दूसरे को भरपूर देख चुकने के बावजूद, एक-दूसरे को देख लेने की थी। ख़ैर जो भी हो केंद्रीय मंत्री जी की भाषा-शैली दिल को छू गयी। क्या पकड़ है भाषा पर! नमित हो गए उनकी भाषाई दक्षता को देखकर। उनका वाणी-जोश देखने लायक़ था। 

और फिर इसके बाद उनका बैठे-बिठाए गिरफ़्तार होना रोमांचित कर गया। उनके प्रति अतिरिक्त श्रद्धा जगी। 

हालाँकि वीरोचित कार्यवाही करने में अपने मुख्यमंत्री भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने तत्काल केंद्रीय मंत्री को गिरफ़्तार करवाकर 'हम किसी से कम नहीं' का उदाहरण पेश किया। 

ऐसा करके वह हमारी सहानुभूति बटोरना चाह रहे थे, पर लोकतांत्रिक मूल्यों में अगाध विश्वास रखने के कारण हमें उनके द्वारा करवाई गई गिरफ़्तारी खल गयी। हमारी सहानुभूति केंद्रीय मंत्री की तरफ बह चली।

बताइये भला, क्या अब देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी रोका जाएगा!

क्या होगा इस देश का? इत्ती पिद्दी सी बात पर केंद्रीय मंत्री को गिरफ़्तार करवा लिया।

अब ऐसे तो कोई भी केंद्रीय मंत्री किसी राज्य में जाने से डरेगा।

क्या इसी लिए बापू ने आंदोलन किये थे!

आज बोलने पर तो कल को चलने-फिरने पर रोक लगाई जाएगी। फिर तमाम तरह की यात्राओं पर भी पाबंदी लगाई जाएगी। ऐसे तो उन्मादपूर्ण वक्तव्य इतिहास की चीज़ बनकर रह जाएँगे। फिर जनता का भीड़ में रूपांतरण कैसे होगा? 

न...न ! यह हमें अस्वीकार्य है!

आख़िर झापड़ मारने की बात इतनी असंसदीय कैसे हो गयी? और फिर उन्होंने मारा तो नहीं, सिर्फ़ कहा ही तो। 

सदन में तो बहुत कुछ हो जाता है। जहाँ जूता, चप्पल और माइक फेंकने तक संसदीय कार्यवाही के अंग हों, वहाँ सदन के बाहर बोलने से भी रोका जाएगा?

जब लोकतांत्रिक संवाद में जर्सी गाय, कांग्रेस की विधवा, बारबाला, इटालियन डांसर, भूरी काकी, दीदी ओ दीदी, एवं पचास करोड़ की गर्लफ्रैंड और नीच जैसे शब्द सम्मान पाने लगें हों, तो थप्पड़ पर इतना क्या बुरा मानना?? 

बताइये हम कहाँ से कहाँ आ गये? अब हम लोग बहुत जल्दी व्यक्तिगत हो अपनी भावनाएँ आहत कर लेते हैं। बात-बात में लोग पुलिस को बीच में ले आते हैं।

पहले लोग लड़-भिड़ ज़रूर लेते थे, लेकिन दिल में कुछ नहीं रखते थे। और आपस के मामलों में पुलिस को भी नहीं लाते थे।

अभी कुछ दिन पहले शिलान्यास में नाम न खुदे होने को लेकर सांसद और विधायक आपस में भिड़ गए। अब यही एक अच्छी बात लगी कि लड़े मगर दिल में कुछ नहीं रखा।

दोनों में बाक़ायदा वाकयुद्ध, मल्लयुद्ध व जूता प्रहार तक हुआ। बात भी सही थी कि कम से कम लिखापढ़ी में तो नाम आना ही चाहिए। क्योंकि विकास कार्यों के अस्तित्व में होने की सूचना सिर्फ़ शिलान्यास वाले पत्थरों से ही हो पाती है। अन्यथा इन नंगी आँखों से विकास कहाँ दिख पाता है?

ख़ैर इन दोनों के बीच हुई जूतम-पैजार से जी सिहा गया। यह जानकर कि अभी अपने देश मे ललितकलाएँ मरी नहीं हैं, बहुत तसल्ली हुई। और तसल्ली इस बात की भी हुई कि अभी हमारे नेताओं के आपसी संबंध ऊष्मा से शून्य नहीं हुए हैं।

हाँ तो हमारा कहना यह था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण हमें स्वीकार नहीं। 

ललितकलाओं को अगर ज़िंदा रखना है तो इस तरह की अभिव्यक्ति को बढ़ावा देना होगा। अगर द्रौपदी दुर्योधन की शान में गुस्ताख़ी न करती तो हम महाभारत जैसे महाकाव्य से वंचित हो गए होते। 

और फिर जो भाषा इतनी मेहनत से अर्जित की गयी हो, उस पर अवरोध लगाना अपराध है। 

माननीय की भाषा को आपत्तिजनक बयान के रूप में न देखकर बल्कि भाषा के सहज विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के रूप में देखा जाना चाहिए। कहते हैं न कि भाषा बहता नीर...

अतः मैं मंत्री जी की सहज प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति को रोकने के असंसदीय कृत्य का घोर निंदा और विरोध करता हूँ।

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