अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अधूरी कथा

सान फ्रांसिस्को एयरपोर्ट के गेट 52 से न्यू जर्सी के लिए वर्जिन अमेरिका की फ्लाइट संख्या वी एक्स 1178 के वायुयान में बैठते समय मैंने सपने में भी न सोचा था कि यहाँ भी एक लघुकथा मेरा इंतज़ार कर रही थी। पत्नी भी साथ थी, इसलिए उस अधूरी कथा के श्रवण का आनंद दुगना हो गया। हमारी सीट संख्या 16 ई और 16 एफ थी और जिन लोगों से मुझे इस कथा के लिए मसाला मिला, उनकी सीट संख्या 17 ई और 17 एफ थी। मुझे लगता है कि उन लोगों ने हमें नहीं देखा था अन्यथा वे ऐसी बातें कभी न करते। ख़ैर, अभी हमारी इस 5 घंटे 35 मिनट की उड़ान के सिर्फ 15 मिनट ही बीते थे कि पिछली सीटों पर होने वाली रोचक गुफ्तगू ने हम दोनों का ध्यान बरबस अपनी तरफ खींच लिया। पत्नी पति से कह रही थी, "आप मानो या न मानो; बहू ने तो न जाने क्या जादू किया है, राजू वही करता है जैसा वो कहती है।" जवाब में उस भद्र महिला के पति बोले - "अरे, तो इसमें बुरा क्या है? आखिर, राजू मेरा ही बेटा है। तुम ये बताओ कि पिछले चालीस वर्षों के दौरान क्या कभी कोई ऐसा मौका आया है जब मैंने तुम्हारा कहना न माना हो।"

अभी वह महिला इस रचनात्मक संवाद को आगे बढ़ाती कि तभी मैं रेस्ट रूम जाने के लिए अपनी सीट से उठा और उस महिला और उसके पति को अंदाज़ा हो गया कि उनसे अगली पंक्ति में उनके जैसा एक और हिन्दुस्तानी जोड़ा बैठा है। फलस्वरूप, उस महिला ने अपने सामान्य विवेक का परिचय देते हुए अपनी उस चर्चा पर वहीं विराम लगा दिया और हम इस निंदा पुराण का पूरा आनंद न ले पाए। अब सोच रहा हूँ कि मुझे शायद अपनी प्राकृतिक ज़रूरत को कुछ देर तक दबाए रखना चाहिए था। वैसे उस महिला ने बाद में अपने पति की इस उच्छृंकलता की ख़बर ज़रूर ली होगी; ऐसा मेरा अनुमान है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

स्मृति लेख

लघुकथा

चिन्तन

आप-बीती

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

व्यक्ति चित्र

कविता-मुक्तक

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं