अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अगले जन्म मोहे “सामान्य” ना कीजो

अपने देश में सामान्य वर्ग का होना उतनी ही सामान्य बात है जितनी कि कांग्रेस सरकारों में भ्रष्टाचार का होना। लेकिन अगर सामान्यता में योग्यता का समावेश ना हो तो फिर ऐसी “अनारक्षित-असामान्यता” का देश में उतना ही मूल्य रह जाता है जैसे किसी मार्गदर्शक मंडल के नेता का किसी पार्टी में। सामान्य श्रेणी के लोगों की कास्ट ही उनके सब कष्टों का सबब है और इन कष्टों को दूर करने लिए हर बार वे अलग-अलग पार्टी को अपना वोट “कास्ट” करते हैं लेकिन कष्ट, नष्ट होने के बजाय और पुष्ट हो जाते हैं और चुनाव जीतने वाली “पार्टी” चुनाव जीतने के बाद अगले 5 साल तक “पार्टी” करती है। सामान्य श्रेणी के लोग जन्म से लेकर शिक्षा तक और शिक्षा से लेकर नौकरी तक कोल्हू के बैल कि तरह पचते है लेकिन जलीकट्टु पर्व को बैलों के प्रति क्रूर बताने वाली अदालतों ने आज तक इन “मानवीय बैलों” के प्रति होने वाली क्रूरता का संज्ञान नहीं लिया।

जब भी सामान्य श्रेणी का विद्यार्थी किसी परीक्षा या किसी स्कूल-कॉलेज में एडमिशन के फ़ॉर्म में जाति के कॉलम में जनरल सलेक्ट करता है तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिस्टम के सामने उसका ये सरेंडर देखकर सारे कांग्रेसी भी गाँधी परिवार के सामने अपने वंशानुगत सरेंडर को और मज़बूत करने के लिए अपने “कटी” में “दासता कि वटी” लेकर और भी ज़्यादा कटिबद्ध होते है। जनरल वालों से किसी फॉर्म या परीक्षा शुल्क के रूप में ज़्यादा पैसे इसीलिए लिए जाते है ताकि आगे चलकर उन्हें पता चल जाये कि जनरल में जन्म लेकर उनके “लेने के देने” पड़ गए हैं और शुरू से उनको ज़्यादा कि आदत हो जाये, जैसे ज़्यादा पढ़ाई, ज़्यादा मेहनत, ज़्यादा इंतज़ार और इस ज़्यादा से उनको अजीर्ण ना हो इसीलिए फिर थोड़ी सफलता भी मिल जाती (दे दी) है।

सामान्य वर्ग के स्टूडेंट्स और आरक्षित वर्ग के स्टूडेंट्स कि योग्यता और उनके द्वारा प्राप्त अंकों में भले ही ज़मीन और आसमान का अंतर हो लेकिन संविधान बनाने वालों ने इस “अंतर” को “अंतरा माली” कि फ़िल्मों की तरह मूल्यहीन माना है। आरक्षण के पक्ष में दलील देने वाले दलालों का कहना है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग और अन्य सरकारी नौकरियों में प्रवेश के लिए सामान्य वर्ग भले ही जी-तोड़ मेहनत करता है लेकिन वह आरक्षित वर्ग द्वारा आरक्षण पाने के लिए की गई “सार्वजनिक सम्पत्ति-तोड़” मेहनत के सामने कुछ भी नहीं है।

वैसे ये (कु)तर्क इसीलिए भी ठीक लगता है क्योंकि (उदारहण के तौर पर) सामान्य वर्ग का व्यक्ति ट्रेन कि पटरियों का उपयोग उनको उखाड़कर आरक्षण पाने के लिए नहीं कर सकता। वो तो बस प्रात: काल कि वेला में, वेल्ला हो कर, हाथ में लौटा के लेकर हल्का होने में उनका उपयोग करता है, या फिर पटरियों पर चलने वाली ट्रेन में अपने “डब्बे” में बैठकर अपनी “डब्बे” जैसी क़िस्मत को कोसते हुए केवल “प्रभु” को ट्वीट कर सकता है और अगर नीचे वाले और ऊपर वाले दोनों प्रभु ने ना सुनी तो पटरियों पर लेट कर, लेट चलने वाली “भारतीय ट्रेन” से अपनी ईहलीला, संसद-सत्र कि तरह बिना किसी उदेश्य प्राप्ति के समाप्त कर लेता है।

आजकल न्यूज़ चैनल् डिबेट्स में कई दलित चिंतक और विचारक दिखाई पड़ते हैं लेकिन सामान्य वर्ग का कोई चिंतक/विचारक नज़र नहीं आता क्योंकि उसे अपनी चिंता और विचार ख़ुद ही करना पड़ता है। सामान्य वर्ग के व्यक्ति को अपने जीवन में हमेशा “स्किल” पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि उसे पता होता है कि अगर स्किल ना हुई तो इस देश का सिस्टम उसे “किल” कर देगा। इस देश में हाथी से लेकर साईकिल पर चलने वाले सभी दल इस “किल का दिल से” समर्थन करते हैं।

आरक्षित वर्ग के व्यक्ति की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या/आत्महत्या को अपने साथ मक्कारी का आटा और नमकहरामी का नमक लेकर घूमने वाले सारे दल राजनैतिक रोटियाँ सेंकने का अवसर मानते हैं और रोटी सेंकते समय हाथ जलने पर बर्नोल के बदले अपनी अभिव्यक्ति कि स्वंत्रता का उपयोग करते हैं। राजनीति में कूदने के इच्छुक लोग इसे कॉलेज का प्लेसमेंट प्रोग्राम मान कर मेहनत करते हैं। सामान्य वर्ग कि हत्या/आत्महत्या में ग्लैमर का उतना रस नहीं होता इसीलिए इसे ग्लैमरस नहीं माना जाता है और इसे ये मानकर खारिज कर दिया जाता है कि इस हत्या/आत्महत्या के पीछे ज़रूर साजिद खान कि हमशक्ल या फिर फरहा खान की हैप्पी न्यू ईयर का हाथ है।

मेरा मानना है कि इस देश में ‘प्रतिभा’ तो बहुत है लेकिन सब अलग-अलग सरनेम वाली, इसीलिए जिन प्रतिभाओं को जाति प्रणाम-पत्र मिल जाता है, वो अपने “अवसर” के साथ टू-व्हीलर पर डबल–सीट निकल पड़ती हैं और जिनको नहीं मिल पाता उनका अवसर से ब्रेकअप हो जाता है और फिर वो सारी ज़िन्दगी, गूगल पर सिंगल होने के फ़ायदे सर्च करती रहती हैं।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं