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अज्ञेय कृत "शेखर - एक जीवनी" का पुनर्पाठ

प्रेमचंद के बाद हिंदी उपन्यास को नई संपन्नता देने वाले लेखकों में अज्ञेय का स्थान जितना प्रमुख है, उनके औपन्यासिक कृतित्व का मूल्यांकन उतना ही विवादास्पद है। उनके तीनों उपन्यासों ने साहित्यिक परिवेश को काफ़ी आन्दोलित किया है। यद्यपि अज्ञेय ने कविता को ही अपने लिए अभिव्यक्ति का अधिक उपयुक्त माध्यम माना है, पर लेखक के रूप में उन्हें मान्यता उनके प्रथम उपन्यास "शेखर - एक जीवनी" से ही प्राप्त हुई, जिसके प्रकाशित होने पर नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में "एक सर्वथा नवीन साहित्यिक स्तर की उपलब्धि का भाव समान रूप से हिंदी पाठक और समालोचक को हुआ था और समूचा साहित्यिक वातावरण नये आन्दोलन से स्पन्दित हो उठा था।" "नदी के द्वीप" में भी एक विशेष लेखन-क्षमता का परिचय अज्ञेय ने दिया, लेकिन वह "शेखर - एक जीवनी" की मूल संवेदना" से जुड़ा हुआ है। "अपने अपने अजनबी" फ़िर एक सर्वथा नए ढंग की कृति के रूप में सामने आया। इन तीनों कृतियों की प्रशंसा और आलोचना दोनों खूब हुईं।

"शेखर - एक जीवनी" की भूमिका में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि "शेखर में मेरा-पन कुछ अधिक है, इलियट का आदर्श (भोगने वाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार का अन्तर) मुझसे निभ नहीं सका है।" लेखक की प्रामाणिक जीवनी या आत्मकथा के अभाव में यह कहना कठिन है कि लेखक और "शेखर" में संपृक्ति का स्वरूप कितना और कैसा है, पर इतना असंदिग्ध रूप में कहा जा सकता है कि कृति की प्रकल्पना मूलतः औपन्यासिक है और एक कल्पनात्मक जीवन चित्र ही उसमें प्रधान है। लेखक के अनुसार वह निषेधात्मक मूल्य को लेकर नहीं चला, मानव में उसकी आस्था है और मूल-रूप में "शेखर" का जीवन दर्शन "स्वातंत्र्य की खोज" है - टूटती हुई नैतिक रूढ़ियों के बीच नीति के मूल स्रोत की खोज।

"नदी के द्वीप" को लेकर उनका कहना है कि वह "उस समाज का, उसके व्यक्तियों के जीवन का जिसका वह चित्र है, सच्चा चित्र है।" "अपने अपने अजनबी" में उनके अनुसार मृत्यु साक्षात्कार को अन्य समस्याओं से अलग करके निस्संग रूप देखने का प्रयत्न किया गया है ।

हमें अज्ञेय का महत्व निर्धारित करने के लिए उनकी संपूर्ण औपन्यासिक उपलब्धि को सामने रखना होगा; सिर्फ़ यह नहीं देखना होगा कि फ़्रायडीय अथवा असामान्य मनोविज्ञान से प्रमाणित अंतश्चेतना का उद्घाटन अज्ञेय की कृतियों में कितना हुआ है या कि पाश्चात्य उपन्यास की कथा विधान प्रविधियों के ये कितने बड़े प्रयोगकर्ता हैं। मातृ-रति ग्रन्थि से प्रभावित पात्रों का चित्रण अनेक पाश्चात्य उपन्यासकारों ने किया है, अज्ञेय ने उसी के एक विकार को "शेखर - एक जीवनी" में मातृ-घृणा के रूप में चित्रित करने की विशेषता प्रकट की है।

"शेखर - एक जीवनी" की भूमिका के अनुसार वह एक क्रान्तिकारी की जीवनी को प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है। मृत्यु की निश्चित संभावना को सामने पाकर "शेखर" के सामने प्रश्न है कि उसकी मृत्यु की सिद्धि क्या है? लेखक के अनुसार उपन्यास एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज़ है, यद्यपि वह साथ ही उस व्यक्ति के युग संघर्ष का प्रतिबिंब भी है। क्या लेखक का यह वक्तव्य उपन्यास द्वारा प्रमाणित होता है? उपन्यास के प्रवेश भाग में जो दृश्य है, उसके नायक के सक्रिय क्रान्तिकारी होने का आभास मिलता है। अपने उद्देश्य के लिए समर्पित एक क्रान्तिकारी जीवन का करुण अन्त का वह दृश्य है। एक त्रासदीय गरिमा के साथ लेखक उसका चित्रण करता है उसके तुरन्त बाद एक स्त्री और एक पुरुष को उस शव के आर-पार दानवी भूख से आलिंगन करते शेखर देखता है। दो-ढाई पृष्ठों का यह दृश्य अपने में एक विस्तृत कहानी छिपाये है, जो उपन्यास के दोनों प्रकाशित खंडों में नहीं दी गयी है। लेखक ने "शेखर – प्रश्नोत्तरी" में बताया है कि "शेखर" का चित्र तीसरे भाग (अप्रकाशित) में पूरा हो जाता है, वह हिंसावाद से आगे बढ़ जाता है। मैं समझता हूँ कि वह मरता है तो एक स्वतंत्र और संपूर्ण मानव बनकर। यों उसे फ़ांसी होती है - ऐसे अपराध के लिए जो उसने नहीं किया है। तीसरे भाग के प्रकाशित होने पर शायद शेखर के व्यक्तित्व में एक क्रांतिकारी स्तर और जुड़ जाता पर प्रकाशित दोनों खण्डों के आधार पर उसे शब्द के उचित अर्थ में एक बड़ा क्रान्तिकारी कहना संभव नहीं है। तीसरा भाग अगर प्रकाशित होता तो वह भी उसी तरह एक अलग से उपन्यास के रूप में सामने आता जिस तरह दूसरा भाग पहले से स्वतंत्र- सा (एक अर्थ में) आया था - स्वयं लेखक की दृष्टि में वे जुड़े भी हैं और जुदा भी हैं। दोनों भागों के "शेखर" और "नदी के द्वीप" के "भुवन" का संघर्ष आधारभूत रूप में सामाजिक नैतिकता के (स्त्री-पुरुष संबंध या प्रेम के रिश्ते को लेकर) प्रचलित रूप के प्रति है। दोनों नायकों का विरोध नैतिक रूढ़ियों से है - वे चुनौती देते हैं और विद्रोह में खड़े होते हैं - नायिकायें, शशि और रेखा, भी।

अपने वर्तमान रूप में "शेखर - एक जीवनी" किसी राजनीतिक विद्रोह का सशक्त चित्रण लेकर नहीं चलती और इसलिए जिस अर्थ में हम गोर्की के "माँ" को क्रान्ति का उपन्यास कहते हैं उसी अर्थ में "शेखर - एक जीवनी" को क्रान्तिकारी उपन्यास नहीं कह सकते।

उपन्यास की भूमिका में लेखक ने शेखर के व्यक्तित्व को एक प्रकार के नियतिवाद के अन्तर्गत परिभाषित किया है। स्पष्ट ही यह नियतिवाद मनोवैज्ञानिक नियतिवाद है। शेखर के बचपन का - उस पर पड़ने वाली छापों का - लेखक ने विदग्ध चित्रण किया है और ऐसे जीवन चित्र को लेकर लिखा गया यह पहला उपन्यास है। लेखक ने बाल्यकालीन प्रसंगों के चित्रण में जिस अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है, वह कुछ सिद्ध निष्कर्षों के आग्रह के कारण धुँधला गयी है। माँ के प्रति शेखर की घृणा को इडिपस कांप्लेक्स के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त से व्याख्या की जा सकती है। उसकी घृणा इतनी तीव्र है कि अपनी गिरफ़्तारी के बाद जब उसे घर का विचार आया तब यही कि "जब माँ सुनेंगी तब इस समाचार के प्रति उसका पहला भाव तो विजय का ही होगा, जैसे मैं तो जानती थी। मैंने कभी उसका विश्वास नहीं किया, फ़िर वह दुःखी होगी .... पहला विचार तो यही होगा कि उससे यही आशा होनी चाहिए थी। और इस विचार ने उसे बड़ी सान्त्वना दी - पुलिस के अत्याचारों के प्रति सर्वथा निरपेक्ष बना दिया।" सच पूछो तो मैं उसका भी विश्वास नहीं करती। वह सम्भ्रान्त सा ठहर गया सा भाव, वह शेखर की और उठा हुआ अंगूठा - इसका! - माँ से संबद्ध यह स्मृति - चित्र स्थायी हो गया है। माँ की मृत्यु पर दुःख का अनुभव उसे नहीं होता और जब बहुत देर बाद पिंजर को हिला देने वाले रोदन में उसे शशि पाती है तो वह अप्रत्याशित आचरण अवास्तविक लगता है।

मानववादी मनोविद एरिक फ़्राम के अनुसार व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की और बढ़ने की अनिवार्य शर्त है - मातृ सुरक्षात्मक छत्र-छाया की चाह से मुक्ति। माता से जुड़ा व्यक्ति शैशव में ही रह जाता है। शेखर स्वतन्त्र नहीं हो सका है। प्रेम में भी वह माँ को ही खोजता है। यदि लेखक बालक शेखर का अध्ययन एक असंतुलित - विकास प्राप्त बालक के रूप में ही सीमित रखता तो वह बालमन को उद्घाटित करने वाली एक यथार्थ कथा लिख रहा होता। पर उसका संकल्प उस बालक को विद्रोही में बदलने का है और इसलिए शेखर के व्यक्तित्व में एक बुनियादी असंगति का समावेश हो गया है। माँ के प्रति उसके भाव में कोई जटिलता नहीं रह पाती।

शेखर एक जीवनी – उपन्यास के पहले भाग का मुख्य विषय है बालक शेखर के बहुत बचपन से संघटित होने वाले मानसिक संस्कारों का और सगी बहन से आरंभ होने वाले आकर्षण का उम्र के साथ आगे संपर्क में आने वाली लड़कियों के प्रति प्रसारित होना अर्थात यौनाकर्षण का चित्रण। मुमुर्ष शान्ति का शेखर के प्रति आकर्षण और शेखर का उसके प्रति करुणा युक्त लगाव ज़िन्दगी और मौत को एक बिन्दु पर खड़ा करने वाला मार्मिक प्रतीक बन जाता है। शारदा के प्रति शेखर का किशोर मोह गहरी रूमानियत लिए हुए है, लेकिन अन्ततः वह मोह टूटता है और उसके साथ रूमानियत का एक स्तर भी। दूसरे भाग में शेखर के कॉलेज के अनुभव, कांग्रेस सेवा दल में शामिल होकर जेल जाने और जेल के अनुभवों आदि का वर्णन कथा-सूत्र से विच्छिन्न है। प्रथम खंड "पुरुष और परिस्थिति" में शशि के पिता के देहाँत से उपन्यास की वास्तविक कथा शुरू होती है, वह तीसरे खंड "शशि और शेखर" में आगे बढ़ती है और अन्तिम खंड में शशि की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाती है। दूसरा भाग वस्तुतः शशि और शेखर की प्रेमकथा का है, जिसके हल्के से सूत्र प्रथम भाग में हैं। यह कथन कि "शेखर मूलतः विद्रोह का आख्यान है," उपन्यास में वास्तविक जीवंत विद्रोह के अभाव में प्रमाणित नहीं होता। उपन्यासकार द्वारा प्रस्तुत क्रान्तिवाद का आधार बहुत कमज़ोर रहता है और फ़लतः खंड चित्रों, हलके अनुभवों तथा प्रबन्धात्मक विचारों से उपन्यास कमज़ोर हो जाता है।

शशि और शेखर के प्रेम तथा रेखा और भुवन के प्रेम – शेखर – एक जीवनी और नदी के द्वीप के प्रेम – की कथायें आधारभूत संवेदना के लिहाज से पूर्वापर क्रम में रखी जा सकती हैं। दोनों में प्रचलित सामाजिक नैतिक मान्यताओं का अस्वीकार है और व्यक्ति की दृढ़तर मान्यता को प्रतिष्ठित करने की कोशिश है। शशि-शेखर का प्रेम एक अधिक साहसिक आचरण है – सामाजिक मर्यादायें बाध्यकारी शक्ति के साथ विद्यमान हैं। शशि – शेखर के संबंधों में व्याप्त असहजता का परिहार स्वयं लेखक कर देता है – वह शशि को रक्त संबंध से दूर शेखर की माँ की एक मान ली गयी बहिन की पुत्री घोषित करता है। महान साहित्यिक कृतियों में वैयक्तिक आकांक्षाओं और सामाजिक मान्यताओं के बीच संघर्ष में वैयक्तिक अस्तित्व के धरातल पर आहुति का चित्रण रहता है।" शशि-शेखर में प्रेम सिर्फ़ एक सामाजिक रूढ़ि के आधार पर मर्यादाहीन है जिसे वे चुनौती देते हैं – वे नई मर्यादा को स्वयं पाते हैं। जब तक वे अपने प्रेम को पहचानते और स्वीकारते हैं, शशि की मौत की घड़ी आ जाती है और यह प्रेम-कहानी दुखांत हो जाती है। रेखा और भुवन के प्रेम में सामाजिक मर्यादा की बाध्यता अनुपस्थित है। उनका प्रेम एक शारीरिक परिणति प्राप्त करता है – वे आंतरिक प्रेरणा से मिलते हैं और स्वेच्छा से दूर होते हैं। शेखर एक जीवनी में प्रेम का अवज्ञान है और नदी के द्वीप में उसके भोग का आनन्द है।

दुनिया से भागकर प्रकृति की शरण में शेखर भी जाता है और भुवन भी – एकांत प्रकृति और एकांत प्रेम की दुनिया में जहाँ लेखक की भावुकता निर्बाध अभिव्यक्ति पा सके; विशेषकर प्रकृति के एकांत में एकांत प्रेम-व्यापार के क्षण। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शेखर और भुवन प्रेमिकाओं में एक वत्सला माँ को खोजते हैं – "वे स्नेह शिशु" बने रहते हैं – शशि, शेखर के लिए एक सप्तपर्णी छांह है, रेखा, भुवन के लिए "स्निग्ध, करुण, वात्सल्य भरी गरमी" है और गौरा उसकी आँखों में रोमांस पैदा करने वाला एक आप्लावनकारी पात्र है जो उसके "सिर-माथे पर छा गया है"। यहाँ, प्रेमिका में प्रेमी को एक वात्सल्य भरी माँ की खोज भी हो सकती है, पर उसके एकांत आग्रह के कारण उपन्यास में एक सतही भावुकता आ गयी है, जो कि अज्ञेय के उपन्यासों की पहचान बन गयी है। दर्द का भी लेखक वर्णन करता है, पर जहाँ शशि के दर्द में बाह्य संगति थोड़ी बहुत बनी रहती है रेखा का दर्द बहुत ओढ़ा हुआ लगता है। इसलिए मोहन राकेश का यह कहना सच है कि है कि "भुवन और रेखा की वेदना स्वीकृत हृदय को द्रव अवस्था में नहीं लाती - उसमें जीवन की संगति का अभाव है।"

शशि- शेखर के प्रेम का रूमानियत के स्तर पर वर्णन एक साहसिक संबंध के कारण स्वीकार्य हो जाता है, पर "नदी के द्वीप" की रूमानियत - नौकुछिया ताल पर जब रेखा के "शब्दहीन-स्वरहीन होंठ" जब कह रहे होते हैं –"मैं तुम्हारी हूँ, भुवन मुझे लो" यथार्थ की अनुभूति को कुंठित करती है। लेखक रेखा और भुवन को एकांत प्रकृति की गोद में स्थापित कर भुवन की अभिव्यक्ति को इस प्रकार रूपायित करता है - "तब भुवन फ़ुसफ़ुसाता है, यह इन्कार नहीं है, रेखा, प्रत्याख्यान नहीं है …. जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए"। यह एक निरा भावुक प्रसंग है। रोमांटिक वातावारण में ही तुलियन कैंप भी है, पर देह – भोग की अनुभूति का यहाँ पहली बार हिंदी में उत्सवी वर्णन हुआ है – यह वर्णन अपने आप में एक कविता है।

एक बिन्दु पर अज्ञेय की प्रेम-संवेदना जैनेन्द्र से पिछड़ी हुई है और दूसरे बिन्दु पर आगे। जैनेन्द्र के प्रेम में पति बीच में बंधक के रूप में नहीं आता । शशि के पति को अज्ञेय बीच में प्रस्तुत करते ही हैं , "नदी के द्वीप" में पति के अतिरिक्त एक खलनायक और अन्य प्रेमिका भी उपस्थित है। यों शशि के पति प्रसंग से भारतीय समाज में स्त्री के प्रति अन्याय का वर्णन हो गया है, रेखा के प्रसंग में तो वह भी अप्रत्यक्ष व कमज़ोर है, लेकिन इससे वह मानवीय स्थिति खंडित हो जाती है जहाँ प्रेम नितांत वैयक्तिक अभिव्यक्ति हो जाती है (जैसा कि जैनेन्द्र में)। लेकिन जैनेन्द्र जहाँ परिणति में प्लेटोनिक हो जाते हैं वहाँ अज्ञेय यथार्थ की भूमि पर रहते हैं। डॉ. इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में "आधुनिकता की चुनौती को स्वीकार करते हैं। शशि और शेखर निकटता के वृत्त में आने वाले स्त्री-पुरुष के प्रेम की स्वीकृति है और रेखा-भुवन का प्रेम देह-भोग के स्तर पर – यथार्थ के धरातल पर – स्वतंत्र नर-नारी के प्रणय का अनुलेख।"

अज्ञेय प्रेम में वर्णन का आश्रय लेते हैं, वहाँ चित्रण की प्रवृत्ति उनमें कम है। उनके पात्रों के उद्गार स्वतंत्र रूमानी कविताओं जैसे हैं। पात्र न केवल दूसरे कवियों के कविताओं का उद्धरण देते हैं बल्कि एक दूसरे से प्रेम-निवेदन भी अधिकतर लिखित डायरियों के आदान-प्रदान से करते हैं। अज्ञेय के शब्दों में अर्थगर्भिता है, मितव्ययी वे हैं पर मित कथन उनमें नहीं है। प्रेमोद्गार रूमानी प्रलाप के निकट चले जाते हैं और जैसे उपन्यास कमज़ोर हो जाता है।
अज्ञेय के स्त्री पात्र, शशि, रेखा और गौरा, पुरुष में अपनी सार्थकता खोजती हैं - "एक बार मैंने मान से कहा था, क्या मेरे लिए लिख सकते हो - यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अथ और इति हूँ, अपने को अन्त मानने का दुस्साहस मैंने नहीं किया, केवल इतना था कि अपना जीवन नष्ट करके, होम कर देकरराख कर देकर, मैंने माँग़ा था, चाहा था, कि वह तुममें सिद्धि पाये, तुम हो गये थे प्रतीक मेरे लिए, मेरे जीवन के प्रतीक ………।" (शशि)

"मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मै तुम्हारी हूँ केवल तुम्हारी, तुम्हारी ही हुई हूँ – तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्ष से "सकल मम देह-मन वीणा सम बाजै ....।" (रेखा)

किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती – तो अपने जीवन को सफ़ल मानती।" (गौरा)

स्पष्ट है कि अज्ञेय की नारी प्रकल्पना उसे पूर्ण स्वतंत्रता से मंडित नहीं करती – उसमें पुरुष मोह है, जो स्त्री को सदैव आश्रित (कम से कम मानसिक संस्कार में तो अवश्य) देखना चाहता है। इस दृष्टि से प्रेमचंद ने ग्रामीण स्त्री धनिया के माध्यम से – कहीं अधिक स्वतंत्र व्यक्तित्व वाला पात्र दिया है। अज्ञेय ने स्त्री को नैतिक रूढ़ियों के बंधन से – परंपरागत संस्कारों की बाध्यता से अवश्य मुक्त कर दिया है। उनकी स्त्रियाँ सीमोन दी बूवा की शब्दावली में 'असत-आस्था" में जीने वाली ही हैं, उनकी चरितार्थता का केन्द्र पुरुष है। लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि अज्ञेय भारतीय समाज की स्त्री को स्वतंत्रता के अधिक निकट लाते हैं और अपने देश काल की अग्रगामी चेतना को प्रकट करते हैं।

"शेखर- एक जीवनी" को मृत्यु-दंड की निश्चित संभावना को प्राप्त नायक द्वारा अपने अतीत के प्रत्यावलोकन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस प्रक्रिया का आरम्भ फ़ांसी के विधान में निहित हृदयहीनता से होता है। "मुझे तो फ़ांसी की कल्पना सदा मुग्ध ही करती रही है – उसमें साँप की आँखों सा एक अत्यन्त तुषारमय, किन्तु अमोघ सम्मोहन होता है।" – ऐसी प्रतिक्रिया उलटे मृत्यु से दूरस्थता को प्रकट करती है। शेखर का यह प्रत्यावलोकन मृत्यु के विषाद से अछूता है। दोनों खंडों में आसन्न मृत्यु के क्षण की विद्यमानता नहीं है। यह केवल कथारंभ का एक कौशल मात्र लगता है, जो चमत्कारपूर्ण तो है, पर प्रभावी नहीं।

"शेखर- एक जीवनी" में राष्ट्रीय परिवेश, औपन्यासिक संरचना का अनिवार्य अंग नहीं बन सका है। लेखक की औपन्यासिक प्रकल्पना के अनुसार नायक को स्वाधीनता संघर्ष और आतंकवादी अनुभवों से गुज़रना था - "आतंकवादी दल से संबद्ध रहकर भी कन्विंस्ड आतंकवादी नहीं रहा, पर मुझे इसमें बड़ी दिलचस्पी रही कि आतंकवादी का मन कैसे बनता है।" शेखर की रचना इसी से आरम्भ हुई।‘

शेखर की जिस महानता को लेखक स्वतःसिद्ध मानकर चलता है। उसकी उपस्थिति उपन्यास के दोनों भागों में नहीं है। इसीलिए उसकी मृत्यु की संभावना में एक सच्चे क्रांतिकारी के जीवन की संपूर्ति का अहसास नहीं होता।

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