अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अहितकारी सच

दो तोते भाई थे। उनका नाम था सल्लू और बल्लू। दोनों में बड़ा प्रेम था। जहाँ जाते साथ–साथ जाते। एक दिन दोनों ही जाल में फँस गए और शिकारी ने उन्हें एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। ब्राह्मण उन्हें बेटों की तरह प्यार करता था। अपने हाथ से उन्हें दाना खिलाता, तोतों को अपनी बोली सिखाता। सुबह उठते ही बोलता –सल्लूराम–बल्लूराम–राम–राम। तोते ख़ुशी से उछल पड़ते और कहते –टाम—टाम, टाम –टाम।

एक बार ब्राह्मण को किसी काम से नगर से बाहर जाना पड़ा। वह तोतों से बोला –"मैं दो दिन में ही लौटकर आ जाऊँगा। मेरे पीछे से अपनी माँ का ध्यान रखना और देखना उससे कौन–कौन मिलने आता है।"

उसके जाने के बाद घर में आने वालों का ताँता लग गया। शाम से देर रात तक आदमी आते–जाते रहते। ब्राह्मणी अच्छे–अच्छे कपड़े ज़ेवर पहनकर उनसे खूब बतियाती। उनके साथ खाना–पीना चलता रहता।

सोते समय सल्लू बोला – "हमें ब्राह्मणी को समझाना चाहिए कि इस तरह ब्राह्मन की अनुपस्थिति में आदमियों को घर पर न बुलाये।"

ऐसी गलती न कर बैठना। वह गुस्से में आकर हमारा जीना हराम कर देगी," बल्लू ने उसे समझने की कोशिश की।

सल्लू से न रहा गया। दूसरे दिन ब्राह्मणी खाना खाकर लेटी ही थी कि वह इठलाता हुआ ब्राह्मणी से बोला – "माँ आप तो शाम से ही न जाने किस-किस के साथ व्यस्त हो जाती हो। पिता जी भी यहाँ नहीं हैं – हमारा तो मन नहीं लगता। आपसे बात करने को तरस जाते हैं। आज किसी को न बुलाना।"

"तू ठीक ही कह रहा है। आ, यहाँ मेरे पास आकर बैठ जा। तोता उसके कंधे पर जा बैठा। ब्राह्मणी ने उसे आहिस्ता से एक हाथ से पकड़ा और दूसरे ही क्षण अपनी पकड़ मज़बूत कर दी। अपनी उँगलियों से उसकी नाज़ुक सी गर्दन को मरोड़ दिया। दूसरे ही क्षण उसकी गर्दन लटक गई और उसकी आँखें बाहर निकल आईं। ब्राह्मणी ने गुस्से से अँधी होकर उसको रसोई में जलती अंगीठी में झोंक दिया। कुछ ही मिनटों में सल्लू जलकर राख हो गया। बल्लू अपने भाई की ऐसे दर्दनाक मौत को देखकर तड़प उठा। भीगी आँखों से चुपचाप ब्राह्मण के आने का इंतज़ार करने लगा।

ब्राह्मण ने लौटकर घर में शमशान सी ख़ामोशी देखी तो वह घबरा उठा। सल्लू –बल्लू राम–राम, कहता अंदर घुसा। बल्लू उदास सा बैठा था।

"अरे बल्लू, तुझे क्या हो गया है? सल्लू कहाँ है? मेरे पीछे से यहाँ कौन–कौन आया?"

"जिस सच को कहने से नुक़सान हो उसे न कहना ही अच्छा है और मैं सल्लू की तरह मरना भी नहीं चाहता हूँ। अब तो मेरा यहाँ से चले जाना ही ठीक है।"

ब्राह्मण देवता ने उड़ते पंछी को रोका नहीं। उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

17 हाथी
|

सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता…

99 का चक्कर
|

सेठ करोड़ी मल पैसे से तो करोड़पति था मगर खरच…

अपना हाथ जगन्नाथ
|

बुलाकी एक बहुत मेहनती किसान था। कड़कती धूप…

अपने अपने करम
|

रोज़ की तरह आज भी स्वामी राम सरूप जी गंगा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

डायरी

लोक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं