अम्बर धरती ऊपर नीचे आग बरसती तकता हूँ
शायरी | ग़ज़ल चाँद शुक्ला 'हदियाबादी'1 Mar 2019
अम्बर धरती ऊपर नीचे आग बरसती तकता हूँ
सोच रहें हैं दुनिया वाले फिर भी कैसे ज़िंदा हूँ
मैंने खुशियाँ बेच के सारी दर्द ख़रीदे हैं यारो
अपनी इस दौलत के सदके मैं पहचाना जाता हूँ
मेरे जैसा ज़िंदादिल भी होगा कौन ज़माने में
ख़ुद को दिल का रोग लगा के हरदम हँसता रहता हूँ
जिन से मट्टी का रिश्ता है क्यो वोह धूल उड़ाते हैं
जो हैं मेरी जान के दुश्मन में तो उनका अपना हूँ
जब से मौत क़रीब से देखी है मैंने इन आँखों से
चाप किसी के क़दमों की मैं हर दम सुनता रहता हूँ
एक बुलबुला हूँ पानी का और मेरी औक़ात है क्या
जानता हूँ मैं वक़्त के हाथों एक बेजान खिलौना हूँ
जिसने गहरे अँधिआरे के आगे सीना ताना है
मैं अँधेरी रात मैं रोशान तन्हा "चाँद" का टुकड़ा हूँ
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