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अमरीका व कनाडा में रह कर हिन्दी का प्रसार करने वाले ये प्रवासी

(पंजाब केसरी जुलाई २३, २००७)

 

यॉर्क में हुए आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में कई आश्चर्यजनक बातें, कई तथ्य सामने आए। कनाडा के साहित्यकारों को बुलाया ही नहीं गया था। उन्हें विश्व हिन्दी सम्मेलन का हिस्सा ही नहीं बनाया गया था जैसे वहाँ हिन्दी का कोई काम हो ही नहीं रहा। कई कैनेडियन हिन्दी प्रेमी अपना खर्च करके हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने आए। उत्तरी अमरीका से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका ’हिन्दी चेतना’ जिसका प्रकाशन संस्थान कनाडा में है के मुख्य संपादक श्याम त्रिपाठी ने विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए ’प्रेमचंद विशेषांक’ निकाला जो अपने आप में अद्वितीय कार्य था। उन्होंने यह पत्रिका पूरे सम्मेलन में बाँटी ताकि लोगों को पता चले कि कनाडा में हिन्दी कितनी प्रचलित है और वह पिछले १० वर्षों से यह साहित्यिक पत्रिका वहाँ से निकाल रहे हैं। उन्होंने बड़े दुख से कहा कि विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रवासी हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों के साथ भारत सरकार ऐसा सौतेला व्यवहार करेगी कभी सोचा न था।

करोड़ीमल कालेज दिल्ली के डॉ. प्रमोद शास्त्री जो विश्वविख्यात जोतिषाचार्य भी हैं, विश्व भ्रमण की अपनी अवधि बढ़ा कर इस सम्मेलन के लिए रुके। उन्होंने कई हिन्दी नाटकों का सफल मंचन किया है और हिन्दी के जलसे-जलूसों में आगे रहने वाले हिन्दी के कार्यकर्त्ता हैं। वह बड़े अफ़सोस के साथ बोले, “सम्मेलन में राजदूत और मुख्य वक्ता तक हिन्दी नहीं बोल पा रहे थे। इस बार चुनाव कमेटी ने क्या चुनाव किया है? विद्वान और बढ़िया साहित्यकार तो भारत में बैठे हैं यहाँ तो बस सरकार के चाटुकार ही आए हैं।“

लम्बिया यूनिवर्सिटी की डॉ. अंजना संधीर के साथ तो पूरे अमरीकी साहित्यकारों की सहानुभूति है। अंजना जी ने तीन महीने दिन-रात एक करके अमरीका के कवियों, लेखकों, साहित्यकारों और हिन्दी प्रेमियों पर एक ग्रंथ विशेष रूप से विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए निकाला। इसके सम्मेलन में लोकार्पण की बातचीत भी हो गई थी। इसका उद्देश्य यही था कि अमरीका के साहित्यकारों से भारतवासियों का परिचय करवाया जए परन्तु ऐन समय पर भारत सरकार की पुस्तक का लोकार्पण हुआ, इस ग्रंथ का नहीं। इससे भी शर्मनाक बात उस समय हुई जब अमरीका के हिन्दी साहित्यकारों की पुस्तकों, पत्रिकाओं और यहाँ के कार्य की प्रदर्शनी को निर्धारित स्थान नहीं दिया गया। इस प्रदर्शनी को तैयार करने में कई महीने लगे थे और २२ किताबों का लोकार्पण होना था। इस हाल के लिए काले-गोरे लोगों की विनती करके बेसमेंट में यह प्रदर्शनी लगाई गई थी। स्वयंसेवक यह प्रदर्शनी दिखाने के लिए जिस तरह लोगों को लाते थे अपने आप में अपमानजनक था परन्तु सबने कड़वा घूँट पीया। अंजना संधीर ने कड़ी मेहनत की थी।

प्रवासी साहित्य के प्रकाण्ड पंडित और प्रेमचंद पर शोध करने वाले दिल्ली के डॉ. कमल किशोर गोयनका तो बहुत ज्याद भड़के हुए थे। उन्होंने कहा, “अब तक के सभी सम्मेलनों में यह निष्कृटतम सम्मेलन था। व्यवस्था शोचनीय थी। सरकार ने जो स्थायी समिति बनाई थी उसमें राजनीति का वर्चस्व था। वक्ता और संयोजक राजनीति के क्षेत्र से बुलाए गए थे। अमरीका निवासी हिन्दी साहित्यकारों व हिन्दी प्रेमियों का योगदान उपेक्षित कर दिया गया था। गोष्ठियों में विषय जानकारी वाले कम अनाप-शनाप लोग अधिक भरे हुए थे। गोष्ठियाँ भी खानापूर्ति ही थीं। सरकार के ऐसे शर्मनाक रवैये से पीड़ा हुई। भारतीय संस्कृति और प्रवासी साहित्य विरोधी लोगों का वर्चस्व ऐसे विश्व हिन्दी सम्मेलनों में से हटाना चाहिए।“

ऐसे लोग भी आए थे

इस सम्मेलन में कई तथ्य ऐसे सामने आए कि बाप-बेटा और बाप की गर्लफ्रैंड तीनों सरकारी खर्चे पर आए हुए थे। भारत सरकार के विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा से जब पूछा गया कि हिंदी के कुछ बड़े विद्वानों और लेखकों ने सम्मेलन में आने से इन्कार क्यों कर दिया तो उन्होंने कहा कि वह कारण जानने के लिए निजी तौर पर इन साहित्यकारों से बात करेंगे।

नैशविल टैनिसी के मनोविज्ञान चिकित्सक डॉ. रवि प्रकाश सिंह भी सम्मेलन से नाखुश थे। वह अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति के संयोजक, संरक्षक हैं। इसकी स्थापना २७ वर्ष पहले इनके पिता श्री कुंवर चंद्र प्रकाश सिंह ने की थी जो कवि, लेखक एवं शिक्षा शास्त्री थे। इस संस्था ने सैंकड़ों सफल कवि सम्मेलन किए हैं। ’विश्वा’ त्रैमासिक पत्रिका निकलती है। कई शहरों में इस समिति की शाखाएँ हैं। उनका नाम ज़रूर भारतीय विद्या भवन ने अंतरजाल में रखा था। वैबसाइट पर भी था परन्तु सहयोग, निर्णय और मत में कोई योगदान नहीं लिया गया। अमरीका की साहित्यिक चेतना को कोई मंच नहीं दिया गया, कोई गोष्ठी नहीं हुई यहाँ तक कि कोई संवाद भी नहीं। इससे वह बहुत असंतुष्ट थे।

न्यूयॉर्क से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ’शेरे पंजाब’ के संस्थापक, सम्पादक बलदेव ग्रेवाल को इस बात का रंज है कि उन्हें इस सम्मेलन में बुलाया ही नहीं गया जबकि आज तक अमरीका में सभी सम्मेलन सबको साथ लेकर होते आए हैं। यहाँ बंटवार नहीं कया जाता। हम पहले भारतीय हैं फिर कुछ और।

’विश्व हिन्दी न्यास’ के संस्थापक न्यूयॉर्क के डॉ. राम चौधरी भी सम्मेलन की अव्यवस्था और प्रवासी साहित्यकारों के साथ हुए अन्याय से पीड़ित हैं। उनकी चार पत्रिकाएँ निकलती हैं। त्रैमासिक ’हिन्दी जगत’, ’न्यास समाचार’, ’बाल हिन्दी जगत’ एवं ’विज्ञान प्रकाश’ इन सबको कहीं स्थान नहीं मिला। कार्यकारिणी समिति में नाम उनका भी था पर उनसे कोई राय नहीं ली गई।

न्यूयॉर्क में ही हिन्दी की तीन बड़ी संस्थाएँ हैं – अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, विश्व हिन्दी समिति और विश्व हिन्दी न्यास लेकिन इन्हें सम्मेलन में नहीं जोड़ा गया।

सम्मेलन के गलियारों में तो यह अफ़वाह भी थी कि ३००० के करीब लोगों को वीज़ा दिया गया है परन्तु बाद में पता चला कि इनकी संख्या १२०० थी। भारी रकमें लेकर बहुत-से लोगों को अमरीका में ही टिकाने की भी अफ़वाहें सुनी गईं।

सच क्या है यह तो भारत सरकार ही जाने मगर हम प्रवासी भारतीय हिन्दी साहित्यकारों ने एकजुट हो यह निर्णय ज़रूर लिया है कि हम अपना स्थान स्वयं बनाएँगे। अमरीका अप्रवासियों का देश है जैसे उन्होंने अपना इतिहास रचा है हम भी अपने साहित्य का इतिहास यहाँ लिखेंगे। हमें भारत सरकार और भारत के साहित्य जगत से कोई आशा नहीं है।

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