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अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘पिंजर’ में पारिस्थितिक स्त्रीवाद

अमृता प्रीतम (३१ अगस्त १९१९ ‌- ३१ अक्टूबर २००५) पंजाबी साहित्य की सुप्रसिद्ध लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। वैसे तो ये मूलत: कवयित्री थीं किंतु कहानी, उपन्यास, संस्मरण, निबंध, आत्मकथा आदि सभी विधाओं पर उनका समानाधिकार रहा है। अब तक उनकी लगभग ९० पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा उनमें से अधिकांश का हिन्दी सहित अन्य भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। उनकी रचना के सरोकार विश्व चिंतन के सरोकार हैं। वह हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ थीं चाहे वह किसी भी देश से संबंधित हो। उन्होंने सदैव मनुष्य की आज़ादी को ही प्राथमिकता दी। यही कारण है कि पंजाबी लेखिका होने के बावजूद वे अन्य भाषाओं के साहित्य में भी समान रूप से लोकप्रिय रहीं। साहित्य अकादमी (सन् १९५५ में ‘सुनहड़े’ काव्य‌-संग्रह के लिए) तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (सन् १९७० में ‘कागज ते कैनवस’ कविता पुस्तक के लिए) से सम्मानित अमृता प्रीतम का नाम हिन्दी साहित्य जगत् में भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उनके लेखन की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें स्त्री मन को, उसके दर्द को, उसकी भावनाओं को भरपूर अभिव्यक्ति मिली है। स्त्रीवाद के जितने भी पहलू हैं, वे सभी उनकी रचनाओं में मौजूद हैं। उनके यहाँ स्त्री अबला नहीं बल्कि सशक्त नारी के रूप में प्रस्तुत है जो परिस्थितियों से हार नहीं मानती है और स्वयं के साथ दूसरों का जीवन भी सँवारती है, यही तो है पारिस्थितिक स्त्रीवाद की अवधारणा जहाँ लेखिका की रचनाएँ स्वयं को सार्थक करती हैं। यहाँ पर उनकी ऐसी ही एक रचना ‘पिंजर’ नामक उपन्यास का पारिस्थितिक स्त्रीवाद की दृष्टि से विचार किया जा रहा है।

पारिस्थितिक स्त्रीवाद को अंग्रेज़ी में ‘इको-फेमिनिज़्म’ कहते हैं। ‘इको‌-फेमिनिज़्म’ नामक संकल्पना की दार्शनिक व्याख्या १९७४ में सबसे पहले फ्रेंच नारीवादी फ्रन्स्वा द युवोन ने प्रस्तुत की। उन्होंने इको‌‌-फेमिनिज़्म को मानवीयता के रूप में देखा। इसका लक्ष्य पुरुष के बदले में स्त्री को प्रतिष्ठित करना नहीं है, बल्कि इसका मकसद पुरुष केंद्रित अधिकार और उसकी संरचना को शिथिल करना है। स्त्री-पुरुष भेद के बिना मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखने, समझने और मानने वालों के एक संसार के सृजन में इको-फेमिनिज़्म काम करता आ रहा है।........फ्रन्स्वा के अनुसार स्त्रीत्व पर आधारित भूमि सबको सुरक्षा प्रदान करेगी। ‘पिंजर’ की कथा-नायिका पूरो इस कसौटी पर बिल्कुल खरी उतरती है। वह स्वयं शोषित है किंतु न केवल स्वयं को संभालती है बल्कि अपने जैसे कई शोषितों का सहारा भी बनती है, उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है। वैसे तो इस उपन्यास की कथा-वस्तु सन् १९४७ के भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर आधारित है किंतु इसके माध्यम से लेखिका ने स्त्रियों पर हुए अत्याचार, अन्याय एवं शोषण की ही दास्तान बयां की है जिसमें कथा-नायिका पूरो एक सशक्त नारी के रूप में प्रस्तुत है।

कथा का आरंभ सन् १९३५ से होता है। पूरो का विवाह होने वाला है किंतु रशीद अपनी जातिगत दुश्मनी के कारण विवाह से पहले ही पूरो का अपहरण कर लेता है और वह अपने माता-पिता द्वारा ठुकरा दी जाती है। रशीद उससे प्रेम भी करता है, इसलिए उससे निक़ाह कर लेता है जिससे पूरो को एक बच्चा होता है किंतु अपने लड़के को देखकर पूरो को उसके पिता के कुकृत्यों की याद आती है और उसके मन में समस्त पुरुष जाति के लिए घृणा का भाव उत्पन्न होता है। उसे लगता है, “यह लड़का...उस लड़के का पिता...सब पुरुष जाति...पुरुष...पुरुष जो स्त्री के शरीर को कुत्ते की हड्डी की भाँति चूसते हैं, कुत्ते की हड्डी की भाँति चबाते हैं।” यहाँ लेखिका ने पुरुषों की पाशविक प्रवृत्ति की ओर ध्यान खींचा है, जहाँ वह अपनी समानधर्मा स्त्री का सम्मान न कर, अनादर करता है और उसे तुच्छ समझता है। स्त्री को प्रकृति का ही दूसरा रूप माना जाता है, इसलिए पारिस्थितिक स्त्रीवाद पुरुषों द्वारा स्त्रियों का जो शोषण है उससे पर्यावरण शोषण को भी जोड़कर देखता है। इसमें सभी पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं का नकार है। उपन्यास की एक अन्य पात्री तारो लड़कियों की स्थिति पशुओं के समान मानती है जिसके स्वामी जब चाहें उसे किसी के भी हाथों सौंप दें। वह पूरो से कहती है, “लड़कियों का क्या है, माँ – बाप चाहे जिसके हाथ में उसके गले की रस्सी पकड़ा दें।’’ एक अन्य स्थान पर वह कहती है, “मेरे मुँह पर ताला डाल दिया गया, मेरे पैरों में बेड़ी डाल दी गयी उसका क्या बिगड़ा। भगवान ने उसे बंधन में न डाला। उसे बाँधने के लिए भगवान जन्मा ही नहीं। सारी रस्सियाँ भगवान ने मेरे पैरों में ही डाल दीं।’’ यहाँ रस्सियाँ उन सामाजिक मान्यताओं की सूचक हैं जिसके आधार पर लड़कियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। तारो के माध्यम से लेखिका ने समस्त नारी-जगत् की वास्तविकता का चित्रण किया है। अमृता प्रीतम के स्त्री-पात्रों की यही तो विशेषता है कि वे शोषित भले ही हों किंतु अपने अधिकारों को समझती हैं और विरोध का साहस भी रखती हैं। तारो भी जानना चाहती है कि स्त्री‌-पुरुष सभी तो भगवान की समान संतान हैं, फिर समाज में इतना भेदभाव क्यों?

पूरो स्वयं शोषित है किंतु अन्य शोषितों के लिए उसके हृदय में अपार स्नेह है। तारो के प्रति भी उसकी विशेष सहानुभूति है। वह दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहती है। अनाथ लड़की कम्मो को वह एक माँ की तरह स्नेह करती है, बटलोई में पानी ढोने में उसकी सहायता करती है, जूती नहीं होने पर उसे नयी जूती सिलवा कर देती है, अर्थात् दूसरों के सुख में अपना सुख तलाशती है। उसका जी चाहता है कि वह सब अनाथों की माँ बन जाए। उसके मन में विचार आता है, “वह जावेद (उसका पुत्र) की माँ है, वह कम्मो की माँ भी बन जाए, वह सब अनाथों की माँ बन जाए...। वह एक अच्छी पुत्री नहीं बन सकी थी, वह एक अच्छी माँ बन जाए...” मातृत्व का यही भाव एक स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ सिद्ध करता है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद में भी इस बात का स्वीकार्य है कि मातृत्व या स्त्रीत्व पर आधारित भूमि सबको सुरक्षा प्रदान करती है क्योंकि उसके हृदय में सभी के लिए अपार स्नेह होता है।

पूरो के गाँव सक्कड़आली में एक पगली भी रहती थी। जब स्त्रियों को उस पागल के गर्भवती होने का पता चलता है तो उसकी दशा देखकर वे अत्यंत दुखी होती हैं। वे कहती हैं, “वह कैसा पुरुष था, वह अवश्य ही कोई पशु होगा, जिसने इस जैसी पागल स्त्री की यह दुर्दशा बना दी।” पूरो की मन:स्थिति का वर्णन लेखिका इस प्रकार करती है, “जिसके पास न सुंदरता थी, न जवानी थी, ना माँस का एक शरीर, जिसे अपनी सुध न थी, जो केवल हड्डियों का एक जीवित पिंजर...।” एक पागल पिंजर था...चीलों ने उसे भी नोच-नोच कर खा लिया...सोच-सोच कर पूरो थक जाती थी।” पागल में भी पूरो स्वयं को ही देखती है, उसके दुख को अपना समझती है, पगली की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को अपना लेती है, अपना दूध पिलाती है और अपने छोटे पुत्र के रूप में उसका लालन-पालन उसकी माँ बनकर करती है। वह प्रत्येक दुखी स्त्री के साथ बहनापे का अनुभव करती है। उनके दुख को देखकर पारो का हृदय द्रवित हो उठता है। यही तो एक स्त्री की विशेषता है जो सम्पूर्ण दुनिया के जीवों को एक साथ सामरस्य की डोरी में बाँधने में समर्थ है। वह इसलिए समर्थ है क्योंकि वह हृदय की भाषा बोलती है और उसी भाषा में व्यवहार भी करती है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद स्त्रियों के इसी गुण की वकालत करता है। वैसे भी, इको-फेमिनिज़्म का मूल मंत्र पृथ्वी के समस्त जीव-जंतुओं में चैतन्य देखना और करुणा एवं स्नेह के व्यवहार से वे जिस शोषण का सामना करते हैं, उन्हें उनसे बचाना है। यहाँ पूरो का पात्र बिल्कुल सार्थक है जो स्वयं शोषित होने के बावजूद आत्मविश्वास से भरपूर है तथा दूसरों के सेवार्थ सदैव तत्पर रहती है। सन् १९४७ में भारत-पाक विभाजन (उपन्यास का केन्द्रबिंदु) के समय हुए दंगों की स्थिति का वर्णन करते हुए लेखिका कहती है, “जिस तरह खरबूजा फाँक-फाँक हो जाता है, उसी प्रकार शहरों में गाँवों में, मनुष्यों से मनुष्यों फटते जाते थे।” विभाजन की त्रासदी की मार भी स्त्रियों पर ही अधिक पड़ी। हिंदुओं द्वारा मुसलमानों तथा मुसलमानों द्वारा हिंदुओं की स्त्रियों के साथ जबरदस्ती की गयी, कइयों को जान से मार डाला गया, कइयों को अपनी स्त्री बनाकर रख लिया गया, कइयों को नंगा करके गलियों और बाज़ारों में घुमाया गया, इस प्रकार विभाजन के दौरान स्त्रियों पर अनेक प्रकार के अत्याचार हुए। यह स्थिति सम्पूर्ण मानव जाति को शर्मसार करने वाली स्थिति रही है। ‘पूरो को लगता मानो इस संसार में जीना दूभर हो गया हो, मानो इस युग में लड़की का जन्म लेना ही पाप हो।’१० पूरो की मनोभावना दर्शाते हुए लेखिका लिखती है, “पूरो के मन में कई प्रकार के प्रश्न उठते, पर वह उनका कोई उत्तर न सोच सकती। उसे पता नहीं चलता था कि अब इस धरती पर, जो कि मनुष्य के लहू से लथपथ हो गयी थी, पहले की भाँति गेहूँ की सुनहरी बालियाँ उत्पन्न होंगी या नहीं.....इस धरती पर, जिसके खेतों में मुर्दे सड़ रहे हैं, अब भी पहले की भाँति मकई के भुट्टों में से सुगंध निकलेगी या नहीं...क्या ये स्त्रियाँ इन पुरुषों के लिए अब भी संतान उत्पन्न करेंगी, जिन पुरुषों ने इन स्त्रियों के, अपनी बहनों के साथ ऐसा अत्याचार किया था...।”११ पुन: यह स्थिति पारिस्थितिक स्त्रीवाद से जुड़ी दिखती है, जहाँ पितृसत्ता का विरोध है तथा प्रकृति की भी चिंता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में फसल एवं स्त्री में बीज बोने का अधिकार पुरुषों को है जिससे प्रकृति एवं स्त्रियों के शोषण की ही बात सामने आयी है जबकि कई हज़ारों वर्ष पहले मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी और खेती का अधिकार स्त्रियों को था, तब सारे लोग सुखी थे, सभी को समानता की दृष्टि से देखा जाता था। पारिस्थितिक स्त्रीवाद, स्त्रीवाद से व्यापक अर्थ ग्रहण किए हुए है। यह केवल स्त्री-पुरुष की समानता पर आधारित न रहकर पूँजीवाद एवं युद्ध का भी विरोध करता है। यह पूँजीवाद संरचना पर आधारित सभी प्रवृत्तियों का विरोध करता है तथा समग्र विमोचन (स्त्री, पुरुष, प्रकृति) की वकालत करता है। अत: हम सभी को चाहिए कि हम स्त्री या पुरुष के लिंग-भेद में न पड़कर स्वयं को मानव मात्र समझें तथा अपनी मानवीयता को महत्व दें। अमृता प्रीतम स्वयं भी इसी तथ्य को स्वीकारती हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखा है, “औरत-मर्द के फर्क में न पड़कर मैंने अपने आपको हमेशा इंसान सोचा है।”१२

अंत में पूरो अपने भाई की पत्नी को ढूँढकर, अपनी जान की परवाह किए बगैर उसे सही सलामत अपने ठिकाने पर पहुँचा देती है। वह मन ही मन में कहती है, “चाहे कोई लड़की हिन्दू हो या मुसलमान, जो लड़की भी लौटकर अपने ठिकाने पहुँचती है, समझो कि उसी के साथ पूरो की आत्मा भी ठिकाने पहुँच गयी।”१३ इस प्रकार, दूसरों की मुक्ति में स्वयं की मुक्ति तलाशती है। लेनिन ने कहा था, “नारी को स्वतंत्र किए बिना कोई भी समाज उन्नति नहीं कर सकता।”१४ अहिंसा, ममता, बहनापा आदि किसी भी स्त्री के प्रमुख हथियार हैं जिसके बल पर वह स्थायी शांति ला सकती है जिसकी वर्तमान में नितांत आवश्यकता भी है। महात्मा गाँधी भी इस स्त्री शक्ति को समझते थे, इसलिए तो उन्होंने भी कहा है, “युद्ध में फँसी हुई दुनिया शांति के अमृत की प्यासी है। उसे शांति की कला सिखाने का काम स्त्री का है।”१५ इसी प्रकार, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, डॉ. भीमराव अम्बेडकर जैसे कई महापुरुष हुए जिन्होंने हमेशा स्त्रियों के उत्थान की बात की और आजीवन उसके लिए प्रयत्नरत् भी रहे। सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुप्रथाओं का अंत तथा विधवा विवाह की वकालत इसी का परिणाम है। आवश्यकता है, स्त्री अपनी शक्ति को पहचाने। महारानी लक्ष्मीबाई जैसी स्त्रियों से प्रेरणा ले तथा दूसरों की रक्षा हेतु सदैव तत्पर रहे। उपन्यास में पूरो भी अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की रक्षा करती है। इसमें उसका पति रशीद उसकी यथासंभव सहायता करता है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद की यही तो विशेषता है कि इसका उद्देश्य किसी एक को प्रतिष्ठित करना नहीं बल्कि समन्वय की बात करना है। यह सम्पूर्ण जगत् के कल्याण की बात करता है। पृथ्वी पर जो भी शोषित हैं, उन्हें उस शोषण से बचाकर एक संतुलित जीवन शैली निर्मित करने पर बल देता है तथा इसका कार्यभार स्त्री को सौंपता है क्योंकि स्त्री में मातृत्व गुण है और उससे ज़्यादा दूसरों के कल्याण के बारे में कौन सोच सकता है?

इसी प्रकार, अमृता प्रीतम की अन्य रचनाओं में भी पारिस्थितिक स्त्रीवाद की झलक देखी जा सकती है जहाँ नारी शोषित तो है किंतु आत्मविश्वास से भरपूर और अपने अधिकारों के प्रति सजग एवं तत्पर है, साथ ही परहित की भावना से भी ओतप्रोत रहती है। अमृता जी के बारे में प्रभाकर श्रोत्रिय की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है जिसमें वे कहते हैं, “एक बहुमुखी प्रतिभा से भरी, संवेदनशील, विस्तृत फलक की मार्मिक सर्जक के उठ जाने का ग़म पाठक और लेखक समाज को सालता रहेगा। वे जितनी पंजाबी की थीं उतनी ही हिंदी की थीं। उन्हें मौलिक लेखक की तरह हिंदी पाठक ने पढ़ा और उनसे अभिभूत हुआ। वे अपनी रचना-देह में इस वक्त भी मौजूद हैं।”१६ अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण अमृता प्रीतम की अधिकांश रचनाओं की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

संदर्भ -

१. इको-फेमिनिज़्म, के. वनजा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, २०१३, पृ. १०३
२. पिंजर, अमृता प्रीतम, न्यू एज पब्लिशर्स प्राइवेट लि. कलकत्ता, संस्करण, १९५९, पृ. २७
३. वही, पृ. ३५
४. वही, पृ. ३७
५. वही, पृ. ३१
६. वही, पृ. ४५
७. वही, पृ. ४५
८. इको-फेमिनिज़्म, के. वनजा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, २०१३, पृ. ४१
९. पिंजर, अमृता प्रीतम, न्यू एज पब्लिशर्स प्राइवेट लि., कलकत्ता, संस्करण, १९५९, पृ. ६९
१०. वही, पृ. ७२
११. वही, पृ. ७३
१२. रसीदी टिकट, अमृता प्रीतम, पराग प्रकाशन, दिल्ली, दूसरा संस्करण, १९७८, पृ. १५०-१५१
१३. पिंजर, अमृता प्रीतम, न्यू एज पब्लिशर्स प्राइवेट लि., कलकत्ता, संस्करण, १९५९, पृ. १०४
१४. नारी : एक विवेचन, धर्मपाल, भावना प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, १९९६, पृ. vi
१५. गाँधी दर्शन मीमांसा, प्रकाश नारायण नाटाणी, पोइंटर पब्लिशर्स, जयपुर, संस्करण, २०००, पृ. ११७
१६. नया ज्ञानोदय, अंक ३५, जनवरी २००६, सम्पा. प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ. ८

मनमीत कौर (शोध-छात्रा‌)
हिंदी-विभाग, शांतिनिकेतन
मो.न.८४३६७९८२८२

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