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अनाथ ग़रीबों के हितों के लिए कोई मशाल जलाओ


समीक्षित पुस्तक: मशाल उठाओ
लेखक: अनिल कुड़िया ’नगरी’
प्रथम संस्करण: 2004
प्रकाशक: कल्पतरु, 592 – बी, नेहरू गली, विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली– 32
शब्द-संयोजन: बंसल लेज़र प्रिंटर्स, दिल्ली –32
मुद्रक: पवन ऑफसेट प्रिंटर्स, दिल्ली –32
मूल्य: 60.00/रु.

अहमदनगर शहर के सुपरिचित युवा कवि अनिल कुड़िया 'नगरी' का 'मशाल उठाओ' यह प्रथम काव्य संग्रह अगस्त 2004 में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का प्रकाशन सुप्रसिद्ध कवि उर्मिल ने किया है। दिल्ली के कल्पतरु प्रकाशन ने आकर्षक मुखपृष्ठ एवं सुंदर कलेवर के साथ इसे छापा है।

अहमदनगर शहर के रक्षा लेखा कार्यालय में बहुत दिनों से कार्यरत अनिल कुड़िया जी अब पुणे स्थित कार्यालय में हिंदी अधिकारी पद पर कार्यरत है। प्रयोजन मूलक हिंदी और साहित्य में स्नातकोत्तर इस कवि ने बी.एड. कोर्स भी पूरा किया है। कार्यालय में अनुवाद और प्रशासकीय हिंदी कार्य करते हुए अनिल कुड़िया हिंदी कविता के साथ अनेक वर्षों से जुड़े रहे। अहमदनगर में यदाकदा आयोजित हर किसी हिंदी कवि सम्मेलन में भाग लेते रहे हैं। नौकरी और साहित्य प्रेम के अलावा इन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में भी अपना नाम रोशन किया है। वेश्याओं और उनके बच्चों के पुनर्वास के लिए समर्पित समाजसेवी संस्था 'स्नेहालय' के संस्थापक सदस्य होने के नाते आपने निराधार बालक और शोषित नारी के उत्थान में मानवीय संवेदना के साथ प्रामाणिक कार्य किया है। अपने जीवन में भोगे हुए यथार्थ को कविता के माध्यम से प्रकट किया है। अनिल कुड़िया की कविताएँ सोफ़े पर बैठकर कल्पना की प्रतिभा से नहीं बल्कि जीवन के दाहक अनुभवों से गुज़र कर लिखी हुई है।

छोटे शहर से अनिल महानगरी पुणे और मुंबई के साहित्यिक गुट में शामिल हुए। प्रतिभावान और सच्चे अनुभवों के बोल अनेकों को भा गए। कवि उर्मिल ने इस प्रथम काव्य संग्रह प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

अनिल कुड़िया को अभीष्ट पद प्राप्त होने का आशीर्वाद देते हुए कवि उर्मिल कहते हैं –

"अहमदनगर शहर के युवा कवि अनिल कुड़िया 'नगरी' द्वारा लिखित 'मशाल उठाओ' काव्य संग्रह की रचनाएँ मानवीय संवेदनाओं के साथ जुड़ी हुई हैं। आपकी कविता में सच्चाई है, धरती की ख़ुशबू है और संवेदनाओं से भरी अनुभूति का आविर्भाव है।"

मान्यताओं को चुनौती देते हुए शोषण का प्रतिकार करनेवाले कवि अनिल ने अपनी सर्जन यात्रा में जाने–पहचाने संदर्भों के स्पर्श के साथ-साथ चिंतन का आधार लेते हुए समीक्षकों के अनुत्तरित प्रश्नों का हल दिखाया है। एक ऐसा प्रस्थान दिखाया है कि आगे की लंबी यात्रा में बिछुड़े हुए सभी को जुड़ने का मौक़ा मिले।

इस संग्रह की भूमिका पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य एवं हिंदी विभाग अध्यक्ष डॉ. केशव प्रथमवीर जी ने लिखी है। उनके अनुसार दलित, पीड़ित, शोषित और उपेक्षित आम जनता को त्रस्त करनेवाले समाज के दरिंदों, धार्मिक ठेकेदारों, राजनेताओं तथा विभिन्न प्रकार से आर्थिक शोषण करनेवालो के रक्तरंजित दाँतों को पहचान लेनेवाला यह कवि संघर्ष और जागृति की मशाल उठाकर कहता है–

रोज की चर्चाओं को विराम लगाओ
अपने बिलों से बाहर आओ
न्याय हथौड़ा हाथ में उठाओ
बिगड़े सांड़ों को नकेल पहनाओ
जागो और जगाओ
मशाल उठाओ।

आओ हम कविता संग्रह के अंदर झाँक कर देखें।

निराधार नाबालिग़ बच्चों को फ़ुटपाथ पर बूट पॉलिश करते हुए या किसी होटल में टेबल साफ़ करते हुए बच्चों को देखकर कवि अपनी 'नाबालिग बूढ़े' कविता में कहता है –

ज़िंदगी के स्कूल में पढ़ते हैं
ज़िंदा रहने के लिए ज़िंदगी से लड़ते हैं।
ये हालाती बूढ़े
एक पूरा परिवार चलाते हैं।
हर बाल दिवस पर इन बूढ़ों को
बच्चा बनाने की कई योजनाएँ बनाई जाती हैं।
जिनके लागू होने से पहले ही
नाबालिघ़्अ बूढ़ों की नई फ़ौज पैदा हो जाती है।

कवि कहता है कि –

इस ज़ालिम ज़िंदगी में
सिर की धूप और पेट की भूख ने
मेरे मन को दर दर भटकाया है।

इस दर–दर भटकने की यात्रा में कवि ने दाहक संवेदनाहीन अनुभवों को झेला है। इस मानवीय विसंगतियों को चिंतन के सहारे शब्दों में ढाला है।

महापुरुषों के आदर्श हमारे सामने रखें जाते हैं। उनके आदर्श नि:संशय महान है। लेकिन निजी प्रयासों के सिवाय कोई भी यात्रा निरर्थक हो जाती है। कवि विद्रोही बनकर अपनी आत्म शक्ति को ढूँढ़ने की सलाह देता है।

संजीवनी कविता में वह कहता है –

कब तक कहाँ तक कोई
फूले गांधी अंबेडकर
हमें बैसाखियाँ थमाएँगें
और कंधे पर बैठकर
हम कैसे नदी पार कर पाएँगें।

हमारे देश की आबादी बाढ़ की तरह बढ़ रही है। अनेक योजनाएँ जनसंख्या की आबादी में बह जाती है। बिन बच्चे वाले अमीर परिवार के लिए विज्ञान ने टेस्ट टयूब बेबी का सफल अविष्कार किया है।

इस पर व्यंग्य कसते हुए कवि कहता है –

नारियों को प्रसव पीड़ा से बचाया है,
अब कोई दूसरों का पाप नहीं अपनाएगा।
हर बाँझ के घर काँच का बच्चा आएगा
वाह रे विज्ञान तेरा दान
लाखों अनाथों के दु:ख से रहा तू अनजान!

इस कविता संग्रह में चार लाईन वाले चौके भी कवि ने लगाए है। जो एक सुविचार की तरह मार्गदर्शक है।

शहर की बनावटी ज़िंदगी को शब्दों में उजागर करते हुए कवि लिखता है –

चेहरा सँभालते हैं शहरी
संबंध सँभालते हैं देहाती
अपनी अपनी ज़िम्मेदारियाँ हैं
शहर गाँव में यही दूरियाँ हैं।

अनाथालय के बच्चों के प्रति कवि के मन में दया भाव है। जो बचपन भूख-प्यास में गुज़र जाता है उसकी जवानी क्या हो सकती है?

इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए कवि कहता है –

कोई भी बच्चा अनाथालय में न पले
फूल अन्याय, अत्याचार, तिरस्कार
सहते हुए न खिले
जिन बच्चों की माँ नहीं है।
उनके लिए हमें कुछ करना चाहिए!

धर्म के नाम पर हर कोई इंसानियत की हत्या करे और उसे धर्म के पालन करनेवाला मानकर धर्मप्रेमी माना जाए तो गुलशन उजाड़ने में कोई समय नहीं लगेगा। हमें इस धर्म की बंदूक को दूर करके भाईचारे की रोटी हमनिवाला लेकर इंसानियत को रोशन करना चाहिए।

बेतुका बवाल कविता में बेटी के पूछे हुए बेतुके सवाल पर कवि अक़्ल की बात कहता है –

बच्ची ने मुझसे पूछा –
सड़कों पर सन्नाटा और अस्पताल में शोर क्यों है,
पापा सड़कें तो कैजुअल लीव पर हैं बेटी
अस्पताल में रँगाई का काम चल रहा है।
हर सफ़ेद चादर लाल की जा रही है।
ये होली के दीवानों की टोली
उसी की ओर जा रही है।
मत देख इन्हें वरना तुझे भी रँग देंगे।
आँसुओं से रंग नहीं धुलता है।
नन्ही लाशें देखकर दिल बहुत जलता है
और बच्चों का तो मुआवज़ा भी
कम मिलता है।

कवि ने जीवन के दु:ख, वेदना को क़रीब से देखा है। घायल मन ही घायल की गति जानता है। ख़ाली विद्रोह प्रकट करने से प्रश्नों के उत्तर मिलते नहीं। कुछ चिंतन और कुछ हल ढूँढ़ निकाला जाए यही दृष्टि लेकर कवि आगे बढ़ रहा है।

~ विजय नगरकर
 

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