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अंक के लगाकर पंख, डिग्री मारे डंक

अच्छी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का संविधान प्रदत्त अधिकार है, हालाँकि आज के माहौल में शिक्षा प्राप्त करने के प्रयासों और उन प्रयासों से प्राप्त सफलता को देखते हुए लगता है कि संविधान निर्माताओं ने "राइट टू एजुकेशन" देकर संविधान को ना केवल नीरस होने से बचाया है बल्कि आने वाली पीढ़ियों को अपने हास्य-बोध का भी परिचय दिया है। इस तरह से संविधान और इसके निर्माताओं ने ना केवल हमारे अधिकारों और कर्तव्यों को सुरक्षित रखा है बल्कि हमारे मनोरंजन का भी ख़्याल रखा है। आज के समय में "मुँह में रजनीगंधा और क़दमों में दुनिया" हो या ना हो लेकिन हाथ में डिग्री होना बहुत ज़रूरी है और हाथ में ड्रिग्री होने के लिए आपका हाथ "ढाई किलो" का होना भी ज़रूरी नहीं है, हाँ लेकिन हाथ में डिग्री के लिए थोड़ी "हाथ की सफ़ाई" मददगार होती है। आज़ादी के बाद से ही हमने ज़्यादातर समय  समाज और देश का भला करते हुए "हाथ" की सफ़ाई देखी है।

डिग्री और मार्क्स को लेकर हम भारतीयों का दीवानापन, विजय माल्या और ललित मोदी की तरह किसी से छुपा हुआ नहीं है। हर इंसान अंक के पंख लगाकर सफलता की उड़ान भरना चाहता है।  हम बचपन से सुनते आये हैं कि हर माँ-बाप का एक ही सपना होता है (जिसे वो खुली आँखों और कई बार खाली जेब से भी देखते हैं) कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर, कोई बड़ी डिग्री लेकर, अच्छी नौकरी कर, उनका नाम (ऋतिक) रोशन करें, लेकिन हर प्रोफ़ेशन में डिग्रियों की बंदरबाँट ने प्रतिभा की वाट लगा दी है। वैसे डिग्री लेने का सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि अगर डिग्री लेकर अच्छी नौकरी मिले जाये तो पैसे मिलने लगते हैं और डिग्री लेकर नौकरी ना भी मिले तो घरवालों और रिश्तेदारों के ताने मिलने शुरू हो जाते हैं। मतलब कुछ ना कुछ तो मिलने ही लगता है और इस तरह डिग्री अगर बेस्ट ना भी निकले तो उसे बिलकुल वेस्ट तो नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आजकल डिग्री बनाने में अच्छे काग़ज़ का इस्तेमाल हो रहा है जो समोसा से लेकर बड़ा-पाव तक, सबका तेल सोख सकता है।

शौक बड़ी चीज़ है इसीलिए हम सफलता को डिग्रियों से मापने के शौक़ीन हैं। कोई इंसान भले ही बिना किसी डिग्री के मंगल ग्रह पर पहुँच कर पानी की खोज कर दे, लेकिन शर्म से पानी-पानी हुए बिना, हम भारतीय उसके मंगल की कामना उसकी  दसवीं और बारहवीं की मार्कशीट में विज्ञान और गणित के अंक खोजने के बाद ही करेंगे। भले ही कोई बंदा चंदा मामा तक पहुँच जाये लेकिन उसकी तारीफ़ करने से पहले हम ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि उस बन्दे ने कॉलेज में एडमिशन के लिए कितना चंदा दिया था। जहाँ चाह,वहाँ राह इसीलिए जिनको पढ़-लिख कर डिग्री नहीं मिलती वो डिग्री ख़रीद लेते हैं। चूँकि पैसा बिना स्पीकर के ही बोलता है इसलिए डिग्री के साथ कभी-कभी थर्ड डिग्री भी बोनस स्वरूप मिल सकती है। डिग्री ख़रीदने वाले लोग, ख़ुद्दार होते हैं, वो अंकों और डिग्री के लिए पढ़ाई-लिखाई पर निर्भर नहीं रहते हैं, वो ख़ुद तय करते हैं उन्हें कितने अंक, कौनसी डिग्री और कौन सी यूनिवर्सिटी से डिग्री चाहिए। देश का स्वाभिमान और ख़ुद्दारी बचाए रखने में ऐसे लोग अपनी महती भूमिका निभा रहे है।

चुनाव के समय बुद्धिजीवी और जातिवाद विरोधी पत्रकार भले ही गाँव-गाँव जाकर लोगों की जाति पूछते हों लेकिन लड़की वाले तो सदियों से लड़के के घर का पता और लड़के की डिग्री ही पूछते आ रहे हैं। वैसे ज़माना भी पूछ-पूछ कर पूँछ हिलाने वालों का ही है। लड़की वाले पहले डिग्री माँगते हैं और उसके जवाब में फिर लड़के वाले दहेज़ माँगते हैं और बाद में लड़की वाले पनाह माँगते हैं। ये माँगने का सिलसिला मँगनी तक चलता रहता है। डिग्री का दीवानापन ऐसा, मानो लड़का शादी के समय लड़की के गले में वरमाला नहीं डिग्री पहनाएगा और लड़की, लड़के के बदले डिग्री के साथ 7 फेरे  लेगी। हमारे यहाँ शादियों में काली मेहँदी से लेकर दलेर मेंहदी और डिग्रियों का प्रयोग भूतकाल से प्रचलित है।

हमारे देश में माँगने वाले हमेशा से ग़लतफ़हमी और चर्चा  में रहते हैं। माँगने वालों ने काले धन वाले 15 लाख, आज़ाद देश में आज़ादी, फ़्री वाई-फ़ाई और क्या-क्या नहीं माँगा, लेकिन माँग कभी पूरी नहीं होती, हाँ भर ज़रूर दी जाती है। अब तो अपने झूठे वादों से जनता को पानी पिलाने वाले लोग भी चाय पिलाने वालों की डिग्री माँग रहे हैं। अपने राज्य की सारी समस्याओं और उनके समाधानों से कोसो दूर, सबको कोसते हुए, एक आई.आई.टी. पास आउट, पूर्व इनकम टैक्स कमिश्श्नर, मुख्यमंत्री, एम.ए. पास प्रधानमंत्री की डिग्री चेक करना चाहता है। यही हमारे लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है, इससे हमारा संघीय ढाँचा मज़बूत होता है और केंद्र और राज्यों के बीच संबंध मधुर होते हैं जो जनता से किये हुए वादे पूरे करने से कभी नहीं हो सकते है।

प्रधानमंत्री की डिग्री प्रामाणिक निकलने से ना केवल देश का निर्यात और विदेशी मुद्रा कोष बढ़ेगा बल्कि डॉलर के मुक़ाबले रुपया भी मज़बूत होगा। साथ ही साथ ग़रीबी और भ्रष्टाचार पर भी ठीक उसी तरह से लगाम लगेगी जिस तरह से पॉवर प्ले ख़त्म होने पर चौके-छक्कों पर लगती है। इसके ठीक उलट, डिग्री फ़र्ज़ी निकलने पर देश में अराजकता फैल सकती है और आपातकाल जैसा माहौल बन सकता है।

समय के साथ हमारे राजनेता के विचारों ने भी करवट ली है। पहले वो सीधा इस्तीफ़ा माँगते थे लेकिन अब पहले डिग्री माँगते हैं फिर इस्तीफ़ा। मतलब उन्होंने ना केवल अपने विचारों को ऊपर उठाया है बल्कि इस्तीफ़े का मूल्य भी बढ़ा दिया है। लोकतंत्र में 5 साल का समय बहुत लंबा होता है लेकिन अगर इसी तरह से सत्तापक्ष और विपक्ष के लोग एक दूसरे की डिग्री चेक करते रहे तो 5 साल का समय हँसते-खेलते हुए सौहार्दपूर्ण वातावरण में बीत जाएगा और डिग्रियों की प्रामाणिकता भी बढ़ेगी।
 
 

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