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अंतहीन – का अंतहीन मानवतावादी दृष्टिकोण

डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी के कहानी संग्रह अंतहीन को 12 अविस्मरणीय कहानियों का दस्तावेज़ कहना ठीक है, इससे भी अधिक यदि यह कहा जाए कि यह कहानी संग्रह सांस्कृतिक-बोध और मानवीय-रिश्तों की अद्भुत गाथा है, तो अधिक सटीक होगा। कहानीकार का कवि मन कहानी के साथ-साथ भाषाई-सौंदर्यबोध, उत्तराखंड के सुरम्य प्राकृतिक सुषमा को चित्रित करता चला जाता है। यही कारण है कि वाह! जिंदगी कहानी संग्रह पर चर्चा होने के तुरंत बाद बेचैन कंडियाल जी के द्वारा उपलब्ध कराई गई। इस कहानी संग्रह पर छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरा पर डॉ. विनय पाठक और श्री बी. एल. गौड़ जैसे संतों के समक्ष साहित्य की मंदाकिनी की कल-कल ध्वनि की गूँज न केवल छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों में गूँजी अपितु इसका नाद सौंदर्य भारत की सीमा को बेधता हुआ, विदेशी विश्वविद्यालयों को भी आनंदित कर गया। यहाँ रमेश पोखरियाल जी की ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं–

देख निर्धन को सबने हैं, कुचला जहाँ
ढोंग का बन गया है, व्यक्ति पुतला वहाँ
आज मानवता पहचान, खोती है।
क्यों न मानवता की, बात होती है।

अधिकांश साहित्यकारों ने तो विमर्शों की चर्चा-परिचर्चा के माध्यम से जीवन के खंडित रूप पर चर्चा करके अपनी विद्वता को लोगों के समक्ष रखा, अनूठी शैली में चित्रित किया। ऐसे समय में जीवन को समग्रता के साथ देखते हुए, जीवन की कला सिखाते हुए, सहज भाव से स्वयं को अर्थात् पाठक को आईना दिखा कर मुस्कुराते हुए चलते ही जाने का नाम रमेश पोखरियाल है। कहीं कोई भी कहानी उपदेशक जैसी नहीं लगती है, शिक्षा के वास्तविक अर्थ, साहित्य के वास्तविक अर्थ को उद्घाटित करती हुई स्वयं की कहानी लगती है।

अंतहीन नामकरण की सार्थकता को सिद्ध करती हुई ये कहानियाँ पाठक मन को सोचने समझने को प्रेरित करती हुई, अनेक प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए बाध्य करती हैं। यही कारण है कि इनकी कहानियाँ और इनके पात्र देशकाल की सीमाओं से परे सार्वभौमिक, सार्वदेशीय बन जाते हैं। साधारणीकरण की यह प्रक्रिया सुखद अनुभूति देती है।

अतीत की परछाइयाँ कहानी मात्र माता-पिता से बिछुड़े सरजू की कहानी नहीं है, अपितु यह कहानी भागीरथी और रामरथ के एकमात्र पुत्र को विदेशी दंपत्ति को बेचे जाने की दर्द भरी कहानी है। कहानीकार ने जहाँ उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में भटकते लालची लोगों द्वारा बच्चों को उठाकर विदेशियों को बेचने की समस्या को चित्रित किया है। वहीं अपने बेटे की याद में जीवन काटने पर अचानक नीदरलैंड से आए विदेशियों के झुंड में एक बालक को देखकर हू-ब-हू अपने बेटे का चेहरा देखकर रामरथ व्याकुल हो उठता है। जब वह पूरी घटना पत्नी को बताता है तो वह भी व्याकुल हो उठती है। युवकों का दल वापस लौटकर आयेगा, इस बात को ध्यान में रखकर भागीरथी का मातृहृदय विकल हो उठता है, माँ की ममता पुत्र से मिलने के लिए बेचैन हो उठती है, सुख के मारे अंतः चेतना जागृत हो जाती है, मृतप्राय में मानों एक बार फिर प्राण संचार हो गया हो ऐसा लगने लगता है। प्रातः से शाम तक चाय की दुकान पर उससे मिलने की आशा में बैठती है। एक दिन आ जाने पर और पूछने पर किस देश से आए हो अपने बेटे को पहचानने-जानने पर भी अपनी ममता को दबाकर वह शब्दहीन हो जाती है। वह सोचती है कि अगर वह यहाँ होता तो चाय की दुकान पर ही बैठता। उसका बेटा ज़िंदा है, ख़ुश है यही भागीरथी और रामरथ की ख़ुशी, महिमा है। 'जीवन एक बार फिर पुराने ढर्रे पर चल निकला। लेकिन एक अंतर भागीरथी के जीवन में जरूर आ गया था, अब वह रोज़ पति के साथ चाय की दुकान पर बैठने लगी। आखिर उसका बेटा फिर आने की जो कह गया।' (पृष्ठ-12) भागीरथी और रामरथ नाम के पात्र उस मर्मस्पर्शी ममत्व की क़ुर्बानी की याद दिलाते हैं, जिन्होंने मानवता के हित में ही काम किया। भागीरथी और रामरथ भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। भागीरथी गंगा की पावनता को धारण किए हुए बच्चे के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान करने के लिए तैयार है। रामरथ भी पिता के पितृत्व को धारण किए हुए है। यह कहानी डॉ. रामकुमार वर्मा की एकांकी 'प्रतिशोध' की याद दिलाती है। संसार में माँ की ममता को नापने वाला थर्मामीटर ही नहीं बना है। यह कहानी श्री बी.एल. गौड़ की कहानी 'प्रतिशोध' की भी याद दिलाती है। जहाँ माँ अपने राष्ट्र अपने स्वाभिमान के लिए बलात्कारी अमेरिकन सैनिक से जन्मे पुत्र को ठंडे पानी में डुबोकर मार डालती है।

अनजान रिश्ता कहानी वास्तव में ससुर-बहू के अनोखे रिश्ते की दास्तान है। मेरे जीवन की यह बेमिसाल कहानी है, जहाँ बहू सुलक्षणा दीनानाथ के बेटे से शादी करना चाहती थी, शादी से ठीक पहले ही अनुपम की मृत्यु हो जाने पर अनुपम के पिता दीनानाथ को अपने पिता के रूप में मानकर, अपनी पूरी जिंदगी उनकी सेवा में लगा देती है। यह मानवता की एक अद्भुत मिसाल है। रमेश जी को सुविख्यात साहित्यकार भी बनाती है। यह कहानी कई सारी बातें एक साथ पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ती है। 'इस घोर कलयुग में ऐसा भी होता है क्या? जहाँ लोग खून के रिश्तों को भी नहीं निभा पाते वहाँ दीनानाथ जी और सुलक्षणा ऐसे रिश्ते को निभा रहे थे, जो कभी बना ही नहीं।' (पृष्ठ-20) यह कहानी अंतहीन चिंतन-मनन करने और स्वयं को देखने परखने को मजबूर करती है। जहाँ  बेटे और बहू वृद्धों को वृद्धाश्रम छोड़ रहे हैं, उनका बुढ़ापा नरक बना रहे हैं। स्त्री विमर्श, वृद्ध विमर्श से भी ऊपर भारतीय संस्कृति में मानवता की विशद् व्याख्या है, जो आज अत्यंत आवश्यक एवं प्रासंगिक है, उसे लाने का प्रयास, उसकी बेचैनी साहित्यकार के साहित्य और आचरण में दिखलाई पड़ती है। यह कहानी विकलांग व्हीलचेयर पर बैठे ससुर की सबलता को दर्शाती है। उनकी मानवतावादी दृष्टिकोण, उनकी दूरदर्शिता को दर्शाती है। सुलक्षणा की दृढ़ता और प्रतिबद्धता से डरे दीनानाथ अपनी बिन ब्याही पुत्र वधू को अपनी बेटी की तरह आगे पढ़ाकर प्रोफेसर की नौकरी तक पहुँचा देते हैं। यह अद्भुत कहानी समाज में रिश्तों की ताज़गी, पवित्रता, कर्तव्यनिष्ठता, परायणता का संचार करती है। यह कहानी विकलांग विमर्श की अद्भुत कहानी भी कही जा सकती है। विकलांग की छठी इंद्रिय का प्रभाव और उनकी जिजीविषा को यह दर्शाती है।

संपत्ति कहानी में नालायक पुत्र की नालायकी और भू-माफिया की चालबाज़ी देखने को मिलती है। 'प्रॉपर्टी के लिए नकली वसीयतनामें, फर्जी प्रमाणपत्र लगाकर भी लोग संपत्ति हस्तांतरण को चले आते.... प्रॉपर्टी का तो चक्कर ही ऐसा है ये तो मुर्दे को भी कब्र से उठाकर खड़ा कर देता है और जिंदे को भी कब्र में गाड़ देता है।' (पृष्ठ-21) कहानीकार अगर कहानी को यहीं तक दिखाता तो कहानी सामान्य बन कर रह जाती। कहानीकार का उद्देश्य तो पति-पत्नी के झगड़ों से पुत्र की बर्बादी का रास्ता दिखाना मात्र भी नहीं है। अपने पुत्र के लिए रिटायरमेंट के बाद भी जमा पूँजी लगा देने वाला प्रशांत संबंधों की एक नई पकड़, एक नई राह में बंधकर सुमंगला नामक नारी के नारीत्व और प्यार को भी दिखाना चाहता है। शायद विवाह के बंधन में ना बंधकर भी एक साथ रहने वाली सुमंगला को प्रशांत का बेटा घर से निकाल देता है। सुमंगला को ढूँढते हुए प्रॉपर्टी अधिकारी जब वृद्धाश्रम पहुँचते हैं, तब सुमंगला कहती है, 'वो प्रशांत का बेटा है और प्रशांत मेरे लिए सब कुछ था। जो कुछ प्रशांत ने मुझे दिया वह मेरे लिए अमृत के समान है। उसी अमृत के प्रभाव और उनके साथ बिताये समय के सहारे मैं अपना शेष जीवन गुजार लूँगी। प्रशांत की हर चीज मेरी अपनी है, इसलिए बेटा और बहू भी मेरे अपने हैं। अपनों को कुछ देकर बहुत संतोष मिलता है बेटा।' (पृष्ठ-33) संपत्ति प्रशांत के नाम हो गई। भारतीय समाज में नारीत्व की पराकाष्ठा को दर्शाती यह कहानी आज के समय में और भी अधिक उपयोगी लगती है। जैसा नाम वैसा गुण, सुमंगला अर्थात् सु+मंगल की कामना धारण करने वाली सावित्री, सीता जैसी नारियों के देश को गौरवान्वित करती है। लगभग 11 साल से प्रशांत के साथ रहने वाली सुमंगला प्रशांत को ही नहीं उसके बेटे को भी अपना मानती है। अपनी जमा पूँजी भी प्रशांत के लिए अर्पित कर देती है। भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति के चितेरे कहानीकार के द्वारा ऐसे समय में ऐसी नारी पात्र की संकल्पना गढ़ कर समाज को दिशा देते नज़र आते हैं। खून से भी बढ़कर ममता का, मानवता का संबंध होता है। साथ ही साथ माँ, माँ होती है। वह कभी भी कुमाता नहीं बन सकती, पुत्र कुपुत्र हो सकता है। कहानीकार ने यहीं तक दम नहीं लिया, वह तो इस कहानी के साथ-साथ सरकारी कार्यालयों में होने वाली बकरा हलाल की रस्म को भी दर्शातें हैं। संपत्ति ट्रांसफर होने वाले कार्य की यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है। साथ ही साथ कुछ ईमानदार लोगों के कारण दुनिया चल रही है, यह भी दिखता है। प्रॉपर्टी विभाग में महिला अधिकारी की सजगता, कहानी को ही आगे नहीं बढ़ाती है, वह उस संवेदना की मूर्ति है, जो गलत होते हुए को देखना पसंद नहीं करती है। उसकी संवेदना हकदार के पक्ष में है, यह बहुत बड़ी बात है। एक महिला अधिकारी का सच्ची हकदार को ढूँढना, उससे वृद्धाश्रम में जाकर मिलना, कर्तव्य बोध की पराकाष्ठा है।

'बदल गई जिंदगी' फ्यूँली नामक पात्र की कहानी है, जिसका पति बकरियाँ चराते-चराते स्वयं खाई में गिर कर मर गया। बदलते समय में भी हिम्मत न हारने वाली फ्यूँली पहाड़ों की मूसलाधार बारिश में गाँव के स्कूल में फँसे अपने छोटे बच्चों को भी खो देती है। सरकार द्वारा दिए गए पैसों को न लेकर उसने सरकार से कहा, मुझे पैसा नहीं चाहिए साब, बच्चों के स्कूल में नौकरी दे दो, मेरी दो वक्त की रोटी भी चल जायेगी और स्कूल के बच्चों में अपने बच्चों को ढूँढ लूँगी। (पेज-39) आया की नौकरी में दूसरों के बच्चों में खुश होकर वह अपनी खुशी ढूँढती है, उन्हें अपना समझती है। यह एक ऐसे नारी पात्र की कहानी है, जिसने अपना सब कुछ खोकर इस पूरे संसार को पा लिया था। त्रासदी से भरी कहानी में भी सकारात्मक सोच को दर्शाना साहित्यकार की दिव्य दृष्टि होती है। अपना सब कुछ खो जाने के उपरांत दूसरों के बच्चों में अपने बच्चों की झलक पाकर आनंदित होना नारी के देवी रूप को दर्शाता है। फ्यूँली दूसरों के बच्चे की जी जान से स्कूल में देखभाल करती है। कहानीकार ने फ्यूँली के माध्यम से कार्य की महत्ता, उसके कर्तव्य बोध से होती है, यह संदेश भी दिया है। साथ ही साथ जीवन के विषम दिनों में धैर्य रखना मानव का धर्म होना चाहिए। दिल को छू लेने वाली आया समुदाय का प्रतिनिधित्व यह कहानी करती है। 'बच्चे तो भगवान का रुप होते हैं मैडम वह सबके होते हैं।' (पृष्ठ-35)

'गेहूँ के दाने' कहानी कालाहांडी की याद दिलाते उन निर्धन लोगों की दास्तां है, जो कूड़े करकट को बीन कर जीविका चलाते हैं। दूसरी ओर काला बाज़ारी के कारण सड़ा गेहूँ भी शराब की फैक्ट्रियों में बेचकर धन कमाया जाता है। यह कहानी एक विनायक की नहीं, उन युवकों की है, जो यह सब देखकर आग बबूला होते हैं, समाज जिन्हें पागल कहता है। उड़ीसा से पलायन करके आए मजदूर विनायक की ही यह कहानी नहीं है, यह कहानी गाँवों से पलायन करने वाले किसान, मज़दूर के विमर्श को भी चित्रित करती है। गरीबी, भुखमरी के कारण कीड़े-मकोड़ों की तरह जिंदगी जीने वाले इंसानों की यह कहानी है। अंतहीन लालच, जमाखोरी का भयावह चित्र मस्तिष्क पर अपने आप ही उभर आता है। 

पूँजीपतियों द्वारा जमाखोरी की स्थिति का चित्रण इस कहानी में देखने को मिलता है। समाज मूक बना हुआ केवल और केवल इसके बारे में सोचता है, यह अति निंदनीय है। कहानीकार ने बरसात के कारण उच्च मध्यम वर्ग और मजदूर वर्ग के घर की स्थिति का मर्म स्पर्शी चित्रण किया है। 'पानी बरस रहा है तो सब कुछ बंद है। ना दूध की सप्लाई न सब्जी की। उच्च और मध्यम वर्ग को तो इस बारिश से बहुत अधिक असर नहीं हुआ। इतना जरूर हुआ कि चार दिन से वही आलू, प्याज और दालें खाकर वह ऊब जरूर गए थे। लेकिन एक ऐसा तबका भी था, जो रोज कुआँ खोदकर पानी पीता और ये वे लोग थे जो दिहाड़ी मजदूरी कर रोज़ कमाई करते और उसी से इनका चूल्हा जलता। लेकिन इस बारिश ने तो इन झुग्गियों को पूरी तरह तबाह कर दिया था। जगह-जगह इन झुग्गियों से बिखरा हुआ सामान तैर रहा था।' (पृष्ठ-40)

कैसे संबंध लिव इन रिलेशनशिप पर केंद्रित कहानी है। कहानीकार की दृष्टि पाश्चात्य संस्कृति के भारत में पसरते पाँवों की ओर भी है। किस प्रकार इस संस्कृति ने स्वतंत्रता की आड़ में विकृति फैला दी है। हमारे महानगरों में युवा इसमें फँसते जा रहे हैं अर्थात् इससे प्रभावित भी हो रहे हैं। माता-पिता के लिए ऐसे रिश्ते गले की फाँस या हड्डी बन गए हैं। यही कारण है कि पलक की माँ स्वप्ना को यह सब अच्छा नहीं लगता है। 'बेटा इसे कोर्ट ने मान्यता दी है पर क्या समाज ने भी मान्यता दी है इसे। कोर्ट चाहें कुछ भी कहे, आखिर रहना तो इसी समाज में है ना। क्या करेंगे उस कानूनी मान्यता का जिसे समाज नहीं मानता?..... कानून में न्याय मिल सकता है, प्यार और अपनापन नहीं। कानून जबरन यह नहीं कह सकता कि माँ-बाप बच्चे को प्यार करें या बच्चे माँ-बाप की भावनाओं का ध्यान रखें।' (पृष्ठ-50)

पिछले कई वर्षों से सिद्धार्थ के साथ रह रही बेंगलुरु में पलक डिप्रेशन में आकर नींद की गोलियाँ खा लेती है। कारण सिद्धार्थ ने दूसरी जगह शादी तय कर ली। अब वह केवल दोस्त बन कर रह सकता है। पलक के नॉर्मल होने पर स्वप्ना उसके लिए एक रिश्ता ढूँढती है। सिद्धार्थ को जब पलक देखती है कि वह दूसरी शादी के लिए आया है, उसकी पत्नी मर गई है। वहाँ से पलक उठ कर चली जाती है। 'सिद्धार्थ को उसके द्वार पर एक बार फिर भेज कर ईश्वर ने उसके साथ न्याय किया है। ईश्वर की सत्ता पर विश्वास होता दिखा उसे, अब ना बोलने की बारी पलक की थी।' (पृष्ठ-56)

कहानीकार की दृष्टि में या फिर भारतीय संस्कृति में नारी-पुरुष के संबंध का मतलब उसके लिए पिता-पति या भाई का संबंध है। मित्रता के नाम पर, दोस्ती के नाम पर, मौज मस्ती के नाम पर लिव इन रिलेशनशिप की व्याख्या नारी का अधिकांश रूप से शोषण ही है। जिम्मेदारी ना उठाने का प्रतिफल भोगना पड़ता है, जिसे युवा भोग भी रहा है। भारतीय संस्कृति में विवाह दो व्यक्तियों के बीच रिश्ते का ही नहीं, दो परिवारों का मेल है। यहाँ पर पति-पत्नी की प्रतिबद्धता, लगाव, एक दूसरे के प्रति बना रहता है। दोनों अपनी-अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। हमारे यहाँ मित्रता का बोध खज़ाने, औषधि के रूप में होता है, दोहन के लिए नहीं।

अंतहीन कहानी गरीबी, मजबूरी, लाचारी की विशद् गाथा है। ना जाने कितने वर्षों से दूसरों के घरों में काम करके जीविका चलाने वाली पावन महिलाओं के अथक परिश्रम और यातना का दस्तावेज़ है यह कहानी। गरीबी, मजबूरी की मार के साथ-साथ लुभायाराम जैसे पति पाकर झुमकी की माँ जैसी औरतों को शराब के नशे में मार-पीट की यातना भी झेलनी पड़ती है। इस वर्ग की विकट जिजीविषा और संघर्षरत नारी का प्रतिनिधित्व करती झुमकी को इस कहानी की नायिका या केंद्रित पात्र कहा जा सकता है। कीचड़ में कमल की तरह खिली झुमकी को घर की परिस्थिति के कारण विद्यालय देखने का मौका तक ना मिला। 'अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी झुमकी के कंधों पर अपने भाई बहनों की देखरेख का भार पड़ गया यूं तो झुमकी की उम्र अभी 15 वर्ष की ही थी लेकिन ईश्वर ने कद काठी कुछ ऐसी तराशी थी कि वह अपनी उम्र से दो-तीन वर्ष बड़ी ही लगती।' (पृष्ठ-60)

लाला सुखराम गरीबों को ब्याज पर उधार पैसा देता और सामान भी उधार देता। जो केवल अपना स्वार्थ खोजता है। लालची प्रवृत्ति का यह इंसान झुमकी जैसी लड़कियों को आपना शिकार बनाता है। यह कहानी अनमेल विवाह, ऋण की समस्या, दहेज प्रथा, नारी शोषण, रिश्तों की अमानवीयता, कामुक पुरूष की लालसा को दर्शाती है। साथ ही साथ गरीब महिलाओं की जिजीविषा को भी दर्शाती है। यही अनमेल विवाह निर्मला उपन्यास में देखने को मिलता है। वहाँ दहेज न दे पाने के कारण निर्मला की आहुति होती है। इस कहानी में झुमकी अपने माता-पिता का उधार चुकाती है। वह एक साधन के रूप में दिखलाई पड़ती है। झुमकी भी एक पात्र न रहकर मजबूरी का प्रतिनिधित्व करती है। झुमकी का बचपन, यौवन सब स्वाहा हो जाता है। लाला की ही बेटियों के साथ वह खेल नहीं सकती, केवल लाला की हवस और लाला के शंकालु स्वभाव के कारण पिटने का माध्यम मात्र रह जाती है। झुमकी के शरीर के प्रति लाला की दानवी भूख ने झुमकी का हर दृष्टिकोण से शोषण किया, दैहिक भी और मानसिक भी। झुमकी वारिस लाला को देती अवश्य है, उसके रोगी शरीर को देखकर लाला का प्रेम झुमकी के प्रति कपूर बनकर काफूर हो जाता है। लाला फिर से कर्जदार की तलाश में है जहाँ कोई बेटी हो और लाला बाप बेटी दोनों का उद्धार कर सके। (पृष्ठ-65)

कहानीकार ने सैकड़ों वर्षो से चली आ रही मजबूरी में किए गए विवाह को संस्कार न मानकर शोषण-यातना की जीती जागती फिल्म के रूप में चित्रित किया। इस कहानी को पढ़कर रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म याद आती है। यह विवाह नहीं बल्कि शारीरिक शोषण किए जाने जैसी ही घटनाओं को दर्शाती है। यह अंतहीन कहानी है लाला के द्वारा सताए गए कर्जदार की कुर्बानी की, झुमकी का ललाईन की तेरहवीं पर अच्छा भोजन मिलेगा यह सोच कर जाना। 'झुमकी ने ऐसा स्वादिष्ट खाना पहले कभी नहीं खाया था, बड़े मनोयोग से यह रायते की पत्तल चाट रही थी। रायता तो खत्म हो ही चुका था, साथ ही पत्तल पर पड़े उसके निशान भी झुमकी के उदर में समा चुके थे। लेकिन उसका मन नहीं भरा, ललचाई हुई आँखों से वह लाला के कारिंदो की ओर देख रही थी।' (पृष्ठ-60)  कुपोषण, आधा पेट भोजन, उदर पूर्ति की भीषण समस्या और फिर स्वादिष्ट भोजन और मीठे की ललक मंदिरों के, गुरुद्वारों के आगे मंगलवार या पर्व के समय पर, लंगर के समय पर देखी जा सकती है। तमाम लोगों के बीच झुमकी जैसे कितने ही पात्र बैठे नज़र आयेगे। अकर्मण्य, नशाखोर, अमानवीय पिता अपने कर्ज़ के लिए अपनी बेटी की देह का भी सौदा कर देता है अर्थात् लाला के साथ झुमकी का विवाह होना। भरपेट भोजन ना पाने वाली बेटी अपने पिता का कर्ज़ चुकाने का साधन बनती है। यह भयंकर शर्मनाक समस्या है। अंतहीन कहानी में मानवीय रिश्तें तार-तार होते नज़र आते हैं। 

'कतरा कतरा मौत' पलायन से जुड़ी कहानी है। एक तरफ गाँव से शहर की ओर भागते युवाओं का आकर्षण है, तो दूसरी ओर मंगसीरू की पत्नी कुंती का ग्रामीण जीवन के प्रति लगाव आकर्षण और संघर्ष है। पलायन का मर्मस्पर्शी चित्रण देखिए– 'पिछले कुछ वर्षों से जो पलायन का दौर आरंभ हुआ उसने पूरे गाँव को सूना कर दिया। अच्छे पैसे वालों के बच्चे जो एक बार पढ़ाई के बहाने शहर गए फिर गाँव ना लौटे। वृद्ध माता-पिता जब असहाय हो गए, तो वह भी बच्चों के साथ चले गए।' (पृष्ठ-67) विवशता और लाचारी के कारण मजदूरों-कृषकों का पलायन उन्हें शहरी षड्यंत्र का शिकार बना लेता है। बड़ी कोठी पर मंगसीरू चौकीदारी की नौकरी करके खुश है। उसे नहीं पता किस प्रकार झुग्गियों की जवान बेटियों को उठाकर, फुसलाकर व्यभिचार भी होता है। पुलिस की जाँच पड़ताल में मालिक और नौकर दोनों पकड़े जाते हैं। मालिक तो धन के बल पर छूट जाता है और मंगसीरू को दोषी घोषित कर दिया जाता है। कुंती और उसके बच्चे तो अब घर से बाहर नहीं निकलना चाहते। जहाँ जाओ एक ही बात कुंती को सताती है, जैसे गुनाह उसके पति ने नहीं बल्कि स्वयं उसने किया है। ...निरपराध कुंती को किस बात की सजा मिल रही है। यह सोचने समझने को कोई तैयार नहीं है और कुंती है कि तिल-तिल मरने की सजा भुगत रही है। (पृष्ठ-75) यह कहानी पौराणिक पात्र कुंती की तरह संघर्षमयी और ताने-बानों से भरी जीवन जीती दिखलाई पड़ती है। 

इसी प्रकार रामकली कहानी भी निरपराध भोली-भाली ग्रामीण महिला की कहानी है। जिसका पति सुमेरु एड्स की बीमारी से मर जाता है। अशिक्षित ग्रामीण रामकली का लोग बहिष्कार कर देते हैं। एड्स को छूत की बीमारी समझने के कारण रामकली का बहिष्कार उसकी जान ले लेता है। उसने भी कोई अपराध नहीं किया, परंतु समाज उसे दोषी मानकर सजा देता है। 'अरे बाहर करो इसे कोई। अपने पति का रोग लेकर घूम रही है। हाँ इतना ध्यान सबने रखना है कि कोई उसे छू ना पाए। रामकली का अनपढ़ होना इस समय उसके लिए वरदान बन गया। पढ़ पाती तो यह पीड़ा प्रसव पीड़ा से कहीं अधिक होती। जब पढ़े-लिखे ही इसे पढ़कर समझ ना पाये तो अनपढ़ रामकली की क्या समझ में आता।' (पृष्ठ-113,114) कहानीकार ने बुद्धिजीवियों पर भी चोट की है। पढ़ना और पढ़ कर उसे जीवन में उतारना अलग अलग बात है। 

'दहलीज' कहानी संबंधों की महत्ता को दर्शाती है। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता क्षमा करना है। क्षमा करने से भूला-भटका घर आता है तो संबंध टूटते नहीं है। सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसका स्वागत करना यह कहानी सिखाती है। गरीब परिवार की अनुराधा के सौंदर्य और नृत्य से प्रभावित अनुकूल पिता से कहकर अनुराधा से शादी कर लेता है। अनुराधा की जिद से वह घर से भी अलग हो जाता है। एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण अनुकूल का व्यापार ठप्प होने लगता है, ऐसे समय में अनुराग के मित्र अभिषेक का आना और अनुराधा के साथ अधिक रहना, अनुराधा का घर, बच्चों और पति अनुकूल की ओर ध्यान न देना। अभिषेक के प्रति अंधा विश्वास रखकर धोखा खाना इत्यादि घटनाएँ अनुराधा को मायूस बना देती हैं। एक कटिबद्ध, सच्चा पति होने के कारण अनुकूल टूटी हुई अनुराधा को सहारा, अपनापन देकर फिर से जीवित कर देता है। यह कहानी एकल परिवार की त्रासदी और संयुक्त परिवार की विशेषताओं पर ध्यान आकर्षित करती है।

'फिर जिंदा कैसे' पहाड़ी नारी के संघर्षमयी जीवन की गाथा है यह कहानी। बिंदिया भोली भाली अल्हड़ पहाड़ी झरनों की तरह इठलाती खिलखिलाती पहाड़ी सेब की सी लालिमा धारण किए हुए पति सुनील के साथ टिहरी गढ़वाल में आशियाना बनाती है। पति की बढ़ती आमदनी, पैसों की चकाचौंध से देहरादून में रहकर दाम्पत्य जीवन जीने लगते हैं। बढ़ती आमदनी से पनपे शराब पार्टी के कारण सुनील ने बिंदिया को मित्रों के सामने गँवार, अनपढ़ कहकर जलील करना शुरू कर दिया। यातना से कराहती बिंदिया एक दिन अपने जीवन को समाप्त कर लेती है। वह लड़का बताता है कि सुनील कभी-कभी चिल्लाता है कि उसने बिंदिया का खून कर दिया है। उसने मारा है उसे, हत्यारा है वह। पत्नी की असमय मौत ने उसे पागल कर दिया है। लेकिन यह तो सुनील जानता है या बिंदिया की आत्मा की कौन सी व्यथा ने सुनील को पागल किया है। (पृष्ठ-105) अपराध बोध से ग्रस्त सुनील की कहानी ही नहीं यह तो भारतीय नारी के समर्पण की कहानी है। ग्रामीण और शहरी संस्कृति को यह कहानी दर्शाती है। यह कहानी गलत तरीके से कमाए धन के प्रभाव को चित्रित करती है।

'एक थी जूही' की नायिका अपाहिज पिता, घरों में काम करने वाली माँ की बेटी जूही है। जूही भी झुमकी की तरह कीचड़ में खिले कमल की तरह सुगंधित और पावन है। शारीरिक सौंदर्य की स्वामिनी और उस पर सरस्वती की कृपा भी है। अपने भाई बहनों की देखरेख करने वाली जूही को निम्मो आंटी के यहाँ काम करने का मौका मिलता है। वहीं आगे बढ़ने के लिए सुमित के नौकरी दिलवाने, अंग्रेजी-हिंदी टाइप सिखाने के मकड़जाल में पड़कर उसका शारीरिक शोषण, उसके साथ सुमित व्यभिचार कर बैठता है। उसे इस कार्य में आने का निमंत्रण देकर वह पैसा कमाने का सबसे आसान और उत्तम साधन बताता है। कहानीकार की विशिष्टता यहीं स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। गरीबी मजबूरी है, लेकिन व्यभिचार द्वारा पैसा कमाना अपराध है, पाप है। यही कारण है कि जूही आने के बाद निम्मो आंटी को सब कुछ बता कर पुलिस की सहायता से सुमित को पकड़वा देती है।

आज के समय में जहाँ अपने शौक पूरा करने के लिए अच्छे घरों की लड़कियाँ इस देह व्यापार में नज़र आती हैं। इसे कहानीकार अपसंस्कृति कहता है। साथ ही साथ धोखे में, मजबूरी में, लाचारी में किया गया कार्य पाप नहीं होता है। यह कहानी भोली-भाली लड़कियों के मर्दन की पीड़ा को बताती है। साथ ही साथ यह कहानी जीवन की जिजीविषा को भी दर्शाती है। कहानीकार ने दूसरों को धोखा ना मिले, उनको बचाना भी नागरिक का कर्तव्य बताया है, यह लेखक का मानवतावादी दृष्टिकोण ही है।

रमेश जी की कहानियाँ मानवतावादी सोच को दर्शाती है। कहानी की विशेषता का प्रथम गुण जिज्ञासा, निरंतरता होता है। जिज्ञासा के कारण नीरसता कहीं भी नहीं आती है। अंत भी कथानक की चरम सीमा पर होता है। पाठक चिंतन मनन करता है। इनकी कहानियों में चित्रात्मकता और सौंदर्यबोध का प्रभाव देखने को मिलता है। यह कहानीकार के कवि हृदय का प्रभाव कहा जा सकता है। चित्रात्मकता का एक उदाहरण देखिए, गुलाबी होंठ, काली और बड़ी-बड़ी आँखें, तीखी नाक, बचपन से ही वह गोल मटोल गुड़िया सी लगती थी।(पृष्ठ-115)

कहानियाँ पहाड़ी परिवेश के लोकतत्व को उजागर करती हैं। खासतौर पर पौड़ी गढ़वाल का परिवेश है। जहाँ उमड़ती नदियों का वेग, साँप की भाँति लहराती पहाड़ी सड़कें और ग्रामीण समाज में संतों का प्रभाव देखने को मिलता है। नारी को शोभायमान करने-मानने वाले कहानीकार ने अपनी संस्कृति का प्रमाण नारी पात्रों के नाम से व्यक्त किया है। यथा नाम तथा गुण वाले पात्र भागीरथी, सुमंगला, सुलक्षणा, सुरभि, झुमकी अनुराधा जूही आदि हैं। कहानीकार ने विवाह को संस्कार और लिव इन रिलेशनशिप को स्वच्छंदता और फन बताया है। कहानीकार युवाओं को बिन उपदेश के सहज, सरल भाषा में जीवन के प्रति आस्था, कर्म के प्रति लगाव और बुराइयों से बचना सिखाता है। इन कहानियों की श्रेष्ठता त्रासदी में भी सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना है। समाज में हाशिए पर आए लोगों के जीवन की संघर्षमयी गाथा के साथ-साथ उनकी पावनता को चित्रित करना कहानीकार का उद्देश्य है। सहज सरल देशज शब्दों के साथ मुहावरों का प्रयोग चार चाँद लगा देता है जैसे- पत्थर होना, बदहवास स्त्री, कहर टूटना, आसमान की ओर ताकना, चील की मानंद झपटना, हृदय फटना, ऊँट के मुँह में जीरा, आसमान से आग बरसना, सब्जबाग दिखाना आदि।
निशंक जी की कहानियाँ काव्यशास्त्रीय दृष्टि से साधारणीकरण का निर्वाह करती है। संवेदना के भाव को उजागर करती हैं। इनके पात्र पाठक को अपने इर्द-गिर्द मिल जाएँगे। इनकी कहानियाँ पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी हैं। अमेरिकन साहित्यकार डेविड फ्राउले इनकी कहानियों को समस्त विश्व के पिछड़े वर्ग के संघर्ष की जीती जागती मिसाल कहते हैं। युगांडा के प्रधानमंत्री रूहकाना मानवीय संवेदनाओं की अतुलनीय मीसल कहते हैं। ये कहानियाँ लोगों को आईना दिखाने का काम करती हैं। अंतहीन की अंतहीन गूँज पाठक के मानसपटल पर अंकित होती है। विश्व साहित्यकारों की गरिमा को शोभायमान करती है। जो वास्तविकता के धरातल को साथ लेकर चल रही हैं। कहीं भी पाठक टूटता या ऊबता नहीं है। शब्दों की बयार, वाक्य संरचना, पाठक में नई ऊर्जा पैदा कर देती हैं।

डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला
चेयर हिंदी,
आई.सी.सी.आर.
वार्सा यूनिवर्सिटी,
वार्सा पोलैंड
+48579125129

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