अंतर पीड़ा
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
ओ अंतर पीड़े बोलो, क्यूँ अधीर तुम इतनी आज।
मेरे अन्तर तल में रहता, सदा तुम्हारा ही तो राज।
आज अचानक मुझे कराया, क्यूँ चिर पीड़ा का आभास?
ओ पीड़े इतनी पीड़ा ले, कौन चलेगा मेरे साथ?
वह चिर पीड़ा बड़ी सुहावन, मेरे हेतु हरित सा सावन।
जब पीड़ा कलोल करती है, भर जाता मोती से दामन।
विगत समय कितना सुन्दर था, कितना मधुर और था पावन।
वन उपवन तडाग कानन में, गूँजे शब्द भरा था आँगन।
जाने खोये शब्द कहाँ वे, कहाँ गई ऋतुएँ, बरसातें?
कहाँ गई पुलकन नयनन की, कहाँ गईं वे मधुरिम रातें।
जीवन आशाओं का घर है, पर यह भी तो नहीं अमर है।
आशाओं की ढोरी से हम, कितने ही सपने बुन जाते।
क्या सपने भी सत्य हुए हैं, क्या सब अपने ही अपने हैं?
कोई नहीं किसी का जग में, ये भ्रम है, अपने अपने हैं।
इसी हेतु मन सच मुच कहता, पीड़ा तो अपनी पीड़ा है।
यदि पीड़ा को बाँट सको तो, लगता वे सब भी अपने हैं।
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