अणु
काव्य साहित्य | कविता फाल्गुनी रॉय15 Dec 2020 (अंक: 171, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
ठीक किसी पदार्थ के अतृप्त अणुओं की तरह
सतत अस्थिर और अशांत,
कौन हैं हम ?
इस पृथ्वी पर
निरंतर भाग रहे हैं
धरती के इस छोर से उस छोर तक
अपनी-अपनी तृष्णाओं को लाद कर
तृप्त करने ख़ुद को ।
अनबुझे हुए से,
अतृप्त, अशांत धरती पर बिखरे हुए हैं
किसी पदार्थ के अणुओं सा
कौन हैं हम?
इंसान या फिर अतृप्त अणु।
विडम्बना यह है कि –
तृप्त अणुओं को तो किया जा सकता है
पर इंसानों का क्या?
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