अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अनुभूतियाँ–002 : 'अनुजा’

1. 
अभी तो ख़्वाबों पर पहरे नहीं हैं,
तुमने आना- जाना, क्यों कम कर दिया है?
 
2.
हाल अपना हमनें, ज़रा हँस कर क्या टाला
ज़माने को तमाशे का, सामां मिल गया है!
 
3.
बहरहाल न कोई शिकवा, और न ही गिला है
बस, हाल कहते जिससे, वो शख़्स न मिला है!
 
4.
मेरे हाल पे अश्क बहाने वालो!
मगरमच्छ भी तुमसे हैं तौबा करते।
 
5.
एक ही बोली में बरसों बतियाए
न तुम हमें समझे, न हम ही समझ पाए!
 
6.
मीलों चले तन्हा, न थके न ऊबे
दो क़दम तुम्हारे साथ, दुश्वार हो गए!
 
7.
मेरे हमदम, तेरा साथ, था कितना मुबारक
सफ़र तय हुआ कब, ख़बर ही नहीं!
 
8.
जब भी चाहो, चुपचाप चले जाना
तुम्हारे क़दमों की आहट से, मैं जान लूँगी !
 
9.
खिड़कियों में न झाँक कर, दिलों में झाँका होता
ज़माने का जो हाल है, वो हाल फिर न होता!
 
10.
इन किनारों का मुक़द्दर भी हमारा-सा है
साथ चल तो पड़े, पर मिलेंगे नहीं....!
 
11.
ये जो तुम बिन कहे ही, मेरी बात समझ जाते हो
लगता है, मुझसे ज्यादा, मुझ से वाक़िफ़ हो!
 
12.( दोहा )
'मैं, मेरा, मुझको' यही, रटन लगी दिन रात
आठ पहर कुल थे मिले, बीत गए हैं सात!!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अनुभूति बोध
|

सदियाँ गुज़र जाती हैं अनुभूति का बोध उगने…

अनुभूतियाँ–001 : 'अनुजा’
|

1. हर लम्हा है मंज़िल, अरे बेख़बर! ये न लौटेगा…

अलगाव
|

रिश्तों में भौतिक रूप से अलगाव हो सकता है,…

असर
|

पत्नी ने खाने में नमक नहीं डाला  तो…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

कविता-चोका

कविता

लघुकथा

कविता - क्षणिका

सिनेमा चर्चा

कविता-ताँका

हास्य-व्यंग्य कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं