अपना नहीं कोई है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. रमा द्विवेदी3 May 2012
सूना है मन का आँगन, अपना नहीं कोई है,
हर साँस डगमगाती सी बेसुध हुई हुई है।
गिरती है पर्वतों से, सरपट वो दौड़ती है,
प्रिय से मिलन को देखो पागल हुई हुई है।
बदरी की बिजुरिया सी, अम्बर की दुलहनियाँ सी,
बरसी है जब उमड़ कर सतरंग हुई हुई है।
चन्दा की चाँदनी सी, तारों की झिलमिली सी,
उतरी है जब ज़मीं पर शबनम हुई हुई है।
बाँहों में प्रिय के आके हर दर्द भूल जाती,
दिल में समायी ऐसे सरगम हुई हुई है।
इक बूँद के लिए ही बनती है वो दीवानी,
इक बूँद जब मिली तो मुक्ता हुई हुई है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
कहानी
गीत-नवगीत
कविता
कविता - क्षणिका
कविता - हाइकु
कविता-ताँका
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं