अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अपने मठ की ओर

अपने मठ की ओर 
(पंजाबी कविता)
लेखक : विशाल
(हिंदी रूपांतर)  :  सुभाष नीरव

वक्त के फेर में चक्कर खाता
अपने अंदर ही गिरता, संभलता
घर जैसे सारे अर्थों की जुगाली करके
न खत्म होने वाले सफ़र आँखों में रखकर
मैं बहुत दूर निकल आया हूँ
तू रह–रहकर आवाज न दे
इस कदर याद न कर मुझे
लौटना होता तो
मैं बहुत पहले लौट आता।

 

समन्दर, हदें, सरहदें भी
बहुत छोटी हैं मेरे सफ़रों से
चमकते देशों की रोशनियाँ
बहुत मद्धम है मेरे अंधेरों के लिए

 

पता नहीं मैं तलाश की ओर हूँ
कि तलाश मेरी ओर चली है
मुझे न बुला
खानाबदोश लौट के नहीं देखते
मैं अपने अस्तित्व पर
दंभी रिश्तों के कसीदे नहीं काढूँगा अब।

 

बड़ी मुश्किल से 
मेरे अंदर मेरा भेद खुला है
छूकर देखता हूँ अपने आप को
एक उम्र बीत गई है
अपने विरोध में दौड़ते
मैंने रिश्तों और सलीकों की आँतों के टुकड़े करके
अपना सरल अनुवाद और विस्तार कर लिया है
तिलिस्म के अर्थ बदल गए हैं मेरे लिए।

 

रकबा छोटा हो गया है मेरे फैलाव से
यह तो मेरे पानियों की करामात है
कि दिशाओं के पार की मिट्टी सींचना चाहता हूँ
जहाँ कहीं समुन्दर खत्म होते हैं
मैं वहाँ बहना चाहता हूँ।

 

रमते जब मठों को अलविदा करते हैं
तो अपना जिस्म
धूनी पर रखकर ही आते हैं...।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अकेले ही
|

मराठी कविता: एकटाच मूल कवि: हेमंत गोविंद…

अजनबी औरत
|

सिंध की लेखिका- अतिया दाऊद  हिंदी अनुवाद…

अनुकरण
|

मूल कवि : उत्तम कांबळे डॉ. कोल्हारे दत्ता…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. छांग्या-रुक्ख