अपनी-अपनी विवशता
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. रमा द्विवेदी15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
विधवा बूढ़ी काकी गाँव के खंडहर घर में अकेली वर्षों से रहती थी। एक बेटी, दो बेटे-बहुएँ, नाती-पोते से भरपूर उसका परिवार था लेकिन बूढ़ी काकी के दुःख–सुख का साथी कोई नहीं था। हाँ जब-जब फ़सल आती तब-तब बेटे आमदनी लेने आ जाते और काकी विवशतावश उन्हें दे भी देतीं। काकी को आँखों से बहुत ही कम दिखने लगा था। उसे अपने दैनिक कार्य भी करने में दिक़्क़त होने लगी थी। एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, "मैं अब किसी का चेहरा भी नहीं पहचान पाती, तुम मेरी आँख का ऑपरेशन करवा दो, बस मेरे साथ चले चलो, पैसा मैं खर्च कर लूँगी।"
बेटे ने कहा, "अब तुम्हें कितने दिन जीना है जो आँख करवाना चाहती हो।"
बेटे का उत्तर सुन कर अपनी विवशता पर बूढ़ी काकी की आँखें डबडबा आईं।
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पाण्डेय सरिता 2021/09/15 02:21 PM
उफ़ विचित्र बात