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अक़लची बन्दर

किसी गाँव में अहमद नाम का एक ग़रीब आदमी रहता था। वह अपने हाथ से रंग-बिरंगी टोपियाँ सिलता और फिर उन्हें टोकरी में सजाकर गाँव-गाँव फेरी लगाकर बेचा करता। उससे जो लाभ होता उससे अपना व अपने परिवार का पेट पालता।

एक बार जब वह टोपियाँ बेचने गया तो उसकी बहुत सी टोपियाँ नहीं बिक पाईं। गर्मी के कारण उसकी हालत ख़राब हो रही थी। वह भूख-प्यास से व्याकुल था, उसका सारा शरीर पसीने से तर-बतर था। तभी उसे एक बाग़ नज़र आई। "कुछ समय यहीं आराम कर लूँ, उसके बाद अपनी बाक़ी बची टोपियाँ बेचूँगा।" यह सोचकर वह एक बड़े पेड़ की घनी छाया के नीचे बैठ गया और अपने पास बँधे गुड़-चने को खाकर, पानी पीकर उसी पेड़ के नीचे लेट गया। ठण्डी हवा लगते ही उसे नींद आ गई। बहुत देर तक सोते रहने के बाद उसकी आँख खुली तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसकी टोकरी में एक भी टोपी नहीं थी। वह सोचने लगा कि "इस बाग़ में उसकी टोपी कौन चुरा ले गया।" वह चारों तरफ अपनी टोपियाँ ढूँढने लगा। तभी उसे पेड़ के ऊपर से खो-खो की आवाज़ सुनाई दी। ऊपर देखा तो उस पेड़ पर बहुत से बंदर थे और वे बंदर उसकी टोपी अपने सिर पर लगाए बैठे थे।

अहमद ने बहुत कोशिश की कि किसी तरह बंदर उसकी टोपियाँ लौटा दें। मगर उसकी कोशिश बेकार हो रही थी। इसी समय उसका ध्यान इस ओर गया कि "वह जो भी कर रहा है, पेड़ पर बैठे बंदर भी वह काम कर रहे हैं।" फिर क्या? उसने एक तरक़ीब निकाली। उसने अपने सिर की टोपी को एक दो बार हवा में उछाला और फिर उसे ज़मीन पर पटक दिया। बंदरों ने भी अहमद की नक़ल करते हुए अपने सिरों की टोपियाँ ज़मीन पर फेंक दीं। अहमद ने ज़मीन पर पड़ी सारी टोपियाँ एकत्र कीं और उन्हें अपनी टोकरी में रखकर बेचने चला गया।

समय बीतता गया। समय के साथ ही अहमद की आने वाली पीढ़ियाँ बदलती गईं। उन्होंने अपने ख़ानदानी टोपी बनाने के हुनर को आगे आने वाली पीढ़ी को सौंपा। अपने ख़ानदानी पेशे के साथ ही अपनी बुद्धिमानी का सबक भी उन्हें याद कराया।

कई पीढ़ियाँ बीत जाने के बाद उसी ख़ानदान का होनहार "वारिस" आदिल, जो अपने ख़ानदानी पेशे से जीवनयापन कर रहा था, इत्तिफ़ाक से उसी बाग़ से गुज़रा। वहाँ चलने वाली शीतल सुगन्धित वायु ने उसके मन को मोहित कर लिया। उसने वही पर खाना खाकर पल भर आराम करने का मन बनाया। खाना खाकर लेटते ही वह सो गया।

जागने पर देखा कि "टोपियाँ ग़ायब हैं।" ऊपर देखा तो पाया कि "पेड़ पर बैठे बंदरों ने टोपियाँ अपने सिरों पर सजा रखी हैं।" उसे अपने पूर्वजों से सुनी गई अहमद की कहानी याद आई। सोचा, "बस, अभी अपनी टोपयाँ वापस लेता हूँ।"

आदिल ने बंदरों की ओर देखा और खो-खों की आवाज़ निकाली, बन्दरों ने भी वैसा ही किया। उसे यक़ीन हो गया कि "वह जो भी करेगा बंदर भी वैसा ही करेंगे।" उसने अपने सिर पर हल्की चपत लगाई, बन्दरों ने भी अपने सिर को अपने हाथ से चपत लगाई। प्रसन्न होकर आदिल ने अपने सिर की टोपी हाथ में लेकर हवा में लहराई और ज़मीन पर फेंक दी। बंदरों ने भी अपने सिर से टोपी निकाल कर हवा में लहराई, परन्तु फिर से अपने सिरों पर रख ली। आदिल सोचने लगा, "आखिर बंदरों ने टोपियाँ ज़मीन पर क्यों नहीं फेंकी। उसने तो अपने पूर्वजों से यही सुना था।" वह कुछ समझ पाता कि उससे पहले ही एक बंदर धम्म से कूदा और उसने आदिल की ज़मीन पर पड़ी हुई टोपी को भी उठाया और उसे अपने सिर पर रखते हुए बोला, "श्रीमान, सिर्फ़ तुमने ही अपने पूर्वजों से सबक़ नहीं सीखा, हमने भी सीखा है। अब हम नक़लची बंदर नहीं रहे, अक़लची हो गए" यह कहते हुए पुनः पेड़ पर जाकर बैठ गया।

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