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अरुण कमल की आलोचना दृष्टि

साहित्य समीक्षा की समाजशास्त्रीय पद्धति है, कारण स्पष्ट है। पहले सृजनात्मक साहित्य अस्तित्व में आया। उसके बाद आलोचना की प्रेरणा अथवा आवश्यकता का अनुभव किया गया। यह सृजनात्मक साहित्य का ही अंग माना जाता है। पाश्चात्य आलोचक इलियट ने माना था कि "साहित्य समय और आस्वाद को आगे बढ़ाता है।" इसी समय व आस्वाद का सही भोग मनुष्य को समाज व साहित्य से वर्तमान रखता है। कमोबेश ऐसा संभव तो है, पर यह आस्वाद की परम्परा तो काव्यशास्त्र की धारणाओं व कारकों में बँधी-बँधाई प्रतीत होती है। फिर भी मनुष्यता के लिए समय व आस्वाद रचना के साथ निरन्तर वर्तमान रहते हैं। रचना का यही संसार साहित्यिक वांग्मय के नाम भी जाना जा सकता है। साहित्य आलोचना में अगर बात करें तो परंपरा और शास्त्र विवेचना निष्कर्षों को वर्तमान जीवन में सँजोकर आलोचना को साहित्य का ही नहीं मानव समाज का भी पथ प्रदर्शक बनाता है।

मानव समाज के विकास पथिक साहित्य में आलोचना की बात करें तो साहित्य से सम्बंधित आलोचना एक सृजनशील समाज की रचना के साथ उसकी उत्कर्षता में भी महती भूमिका का निर्वहन करती है। साहित्यिक आलोचना एक रचना के अनेक पाठ में आलोचक को विलीन करती है। आलोचना को एक ऐसा उद्गम माना जा सकता है, जिसमें आलोचक-आलोचक या आलोचक-विचारक एक साथ मुठभेड़ करते है।1

एक आलोचक जब रचना में समाविष्ट होकर आलोचना करता है, तो कृति केन्द्रित आलोचना में रचना का मुल्यांकन के साथ प्रत्येक कारकों की गुणवत्ता में प्रतिबिम्बित सामाजिक संवेदना के साथ गुण-दोषों को उजागर भी करता है। मुझे यहाँ प्रेमघन का वह कथन याद आ रहा है जो आलोचना को समाज व साहित्य के दर्पण की प्रतिमूर्ति का रूप देता है। प्रेमघन लिखते है कि "सच्ची समालोचना एक स्वच्छ दर्पण तुल्य है जो शृंगार की सजावट को दिखाती है और उसके दोषों तथा साहित्य की दुष्टाकृति को बतलाती है।"2

भारतीय समकालीन कवि अरुण कमल की पहचान एक कवि, अनुवादक के साथ-साथ एक सजग चेतनशील आलोचक के रूप में भी उभरकर सामने आती है। इनकी पहचान उनके आलोचकीय लेखों से और भी स्प्ष्ट हो जाती है। इनकी आलोचना की पहली पुस्तक "कविता और समय" आलोचनात्मक लेखों व टिप्पणियों का संग्रह है, जिसमें उनकी आलोचना दृष्टि कुछ इस तरह उभरकर सामने आ रही है। पुस्तक में "हिंदी के हित का अभिमान वह" आलोचनात्मक लेख हिंदी के सिद्धहस्त आलोचक नामवर सिंह पर लिखा है। इस लेख में अरुण कमल मानते है कि नामवर भारतीय आलोचना में अंग्रेज़ी आलोचक कालरिज़ व् आर्नोल्ड की तरह संवाद की निरन्तरता को ही अपने वैचारिक भँवरों में खींच ले जाते हैं। आलोचना पर अपनी पैनी नज़र रखने वाले कवि आलोचक अरुण कमल का मानना है कि "आलोचक और आलोचना का सबसे पहला काम शायद यही रहा है और है भी- लोगों को जगाए रखना, जब सब सो रहे हों तब जाकर कुंडी पीटना।"3

अपने कवि आलोचक होने का प्रमाण देते हुए अरुण कमल कहते है कि "आलोचना पर लिखा जाए और कुछ भी आलोचना न की जाए तो शोभा नहीं देता। आलोचना तो पवित्र है जिसके बिना कोई भी साहित्य भोज न आरम्भ हो सकता है न पूर्ण, ना पवित्र।"4 मुझे पवित्रता के विषय में दिया गया आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अशोक के फूल में लिखा वह कथन स्मरण हो आया। आचार्य ने लिखा था- "मनुष्य की जीवन शक्ति बड़ी निर्मम है, वह शब्द और संस्कृति के वृद्धा मोह को रोती चली आ रही है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है। शुद्ध है तो केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा। वह गंगा की अवध अनाहत धारा से धारा के समान सब कुछ को हज़म करने के बाद भी पवित्र होती है।"5 आचार्य का यह कथन भले ही अपवित्रता को संकेत कर पवित्रता को प्रबलन प्रदान करता है। परंतु साहित्य जगत में इस प्रकार के प्रबलम गुलाब राय के इस कथन के समान ही है – "जिस प्रकार शासक के आलोचक शासन को शिथिलता से बचाए रखते हैं उसी प्रकार साहित्य के आलोचक साहित्य में शिथिलता एवं कुटिलता नहीं आने देते और उसकी गति निर्धारित करने में सहायता प्रदान करते हैं।"6

भारतीय या पाश्चात्य साहित्य में आलोचना का केंद्र कविता पर विचार की पौराणिक परम्परा ही है। समय के साथ ही समीक्षा में माध्यम से इसकी व्याख्या व उपयोगिता पर टिप्पणियाँ भी इसे जानने समझने का अहम् कारक रही है। कविता के बाद आलोचन कृति केंद्रित हो गई, भले ही वह गद्य में हो या पद्य में। वर्तमान में "कृति केंद्रित आलोचना ही मुख्यधारा की आलोचना कही जा सकती है।"7 अरुण कमल मानते है ही हर श्रेष्ठ आलोचना का सूत्रपात काव्य प्रेम से होता है।

पाश्चात्य विद्वान आलोचक हर्बल ट्रीट ने कहा था, "काव्य और आलोचना के क्षेत्र में पूर्णतया भिन्नता पाई जाती है। वह भिन्न-भिन्न भाव भूमि पर स्थापित है। और उसका दृष्टिकोण विभिन्न है। उत्तम कवि अधिकांश आलोचना के प्रति विमुख रहते हैं। और यदि इसमें प्रवृत्त होते है। तो उत्तम आलोचक नहीं बन सकते।"8 अशोक वाजपई, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, नन्द किशोर आचार्य एवम् अरुण कमल हरबर्ट के इस कथन का पूर्ण तौर से विरोध करते दिखाई पड़ते हैं। ये सभी श्रेष्ठ कवि होने के साथ-साथ आलोचना की भूमिका भी अदा करते हैं। अरुण कमल कहते है "श्रेष्ठ आलोचना केवल कविता की आलोचना नहीं होती, वह जीवन की भी आलोचना होती है क्योंकि जीवन के वह जीवन के बारे में होती है।"9

अरुण कमल की आलोचना पुस्तक एक "कविता और समय" तथा "गोलमेज" दोनों प्रकाशित हो चुकी हैं। अरुण कमल ने अपनी प्रथम पुस्तक "कविता और समय" में साहित्य संबंधित आलोचनात्मक लेखों के रूप में प्रस्तुत किया है और कुछ टिप्पणियों के आधार पर वह कविता के आत्मसंघर्ष, जन्म तंत्र और आलोचना के साथ-साथ साहित्य प्रवीण पर भी चर्चा करते दिखाई पड़ते हैं। इनकी दूसरी पुस्तक "गोलमेज" में आलोचनात्मक निबंध एवं टिप्पणियां आलोचना साहित्य को प्रखरता प्रदान करते दिखाई दे रही है। कविता की सार्थकता पर वे लिखते हैं कि "किसी भी कवि की निपुणता और उसके सम्पूर्ण काव्य-आचार तथा जीवन दृष्टि की जाँच एक उपयुक्त कविता के ज़रिये हो सकती है।”10 कविता के बारे में धारणा है कि महान कविता हमें एक बार निरस्त्र कर देती है। सारे सीखे हुए मंत्र भूल जाते है। कविता में शब्दों का गठबंधन कविता के मूल द्वन्द्व को व्यक्त करता है। जीवन के प्रत्येक अंश, प्रत्येक भाव और बोलने की प्रत्येक भंगिमा अब कविता का आश्रय है अरुण कमल निराला की सीख में लिखते हैं कि मुझे लगता है निराला ने अपने समय की सबसे बड़ी आलोचना दी, एक क्रिटिक तैयार की, कविता को अगर सार्थक होना है अगर जीवन में उसका कोई भी स्थान है तो अंतत: उसे जीवन का क्रिटिक ही होना होगा अंतत: उसे अपने समय की आलोचना होना होगा।11 जो कविता रमणी के रूपमाधुर्य से हमें तृप्त करती है वही उसकी अंतर्वृत्तियों की सुंदरता का आभास देकर हमें मुग्ध करती है। अरुण कमल की कविताओं के विषय में प्रिय दर्शन कहते है कि ऐसा नहीं है कि उनमे राजनैतिक आशय नहीं है। लेकिन कविता का मूल स्वर अंत्त: मनुष्य की निजी और सार्वजनिक चेतना और वेदना के बीच बनता है। "कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक सामान्य भाव भूमि पर ले जाती है।"12 आचार्य शुक्ल का यह कथन कविता कि मार्मिकता को उजागर करते हुए उसके भावात्मक रूप को उभरती है। हृदय पर नित्य प्रभाव रखनेवाले रूपों और व्यापारों को भावना के सामने लाकर कविता बाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की अंत:प्रकृति का सामंजस्य घटित करती हुई उसको भावात्मक सत्ता के प्रकार का प्रचार करती है। कविता के विषय में अशोक वाजपई ने कहा था "कविता अवश्य दौड़ती है पर जीवन और मनुष्य के लिए, भाषा के लिए, किसी और के लिए नहीं।"13

आलोचन पर विचार करते हुए अरुण कमल अपनी गोलमेज पुस्तक में कबीर से निराला पंत और महादेवी के बाद केदारनाथ कुंवर नारायण भिखारी ठाकुर आदि से होती हुई वह लगभग प्रेमचंद से रामविलास तक के कुछ प्रश्नों का उत्तर अपने आलोचनात्मक लेखों के आधार पर देते हैं। उनकी कबीर के मस्तक पर मोर पंख आलोचना में भारतीय जीवन की प्राप्ति का साक्ष्य कुछ इस तरह से पेश किया है। वह मानते हैं कि शायद कबीर के बिना ऐसा संभव ही नहीं हो पाता "ठगिनी क्यों नैना जनकारी ठगिनी" में अक्सर कबीर के दर्शन पर बात करते हैं। उनके धार्मिक चिंतन और समाज सुधार के पक्ष को व महादेवी के चिंतन की बौद्धिक प्रक्रिया को वह चिंतन के भाषाई क्षेत्र से जोड़कर सामने लाने का प्रयास करते वह एक जगह लिखते हैं कि महादेवी भारतीय काव्य की मूल प्रेरणा की पहचान करती है। वह महादेवी के प्रिय पद सर्ववाद को सामने लाकर रहस्यवाद को आत्मा का गुण स्वीकार करवा लेते हैं।14

अपने आलोचनात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए अरुण कमल जनतंत्र और आलोचना में कुछ इस तरह से स्पष्ट करते हैं वह लिखते हैं - जनतंत्र का अर्थ है मानव-गरिमा की अधिकाधिक प्रतिष्ठा और राज्य-कार्य में अधिकाधिक जन समुदाय का सहभाग, इन मूल्यों के अधीन चलने वाली आलोचना, चाहे वह राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, वास्तविक जनतांत्रिक आलोचना होगी15 अपने आलोचक के भाव को प्रबल करते हुए अक्सर कलाओं के इतिहास में आंदोलन चलाने के पक्ष में बात करते हैं। वह निर्मल वर्मा के शब्द एवं उनके अर्थों की बारीक़ी से जानकारी उद्धरण करते है, तो साथ ही कहते हैं - ऐसा आलोचक उस कविता की व्याख्या नहीं कर सकता अर्थ की गहराई में नहीं पहुँच सकता तो जीवन दृष्टि हो या जीवन मूल्य का सवाल शब्दों के परिष्कार मात्रा से संतुष्ट हो जाता है लेकिन बड़ा लेखक हमेशा जीवन को तरह-तरह के संदर्भों और महत्त्व मूल्यों से धमन भट्टी में झोंक देता है।16

वह मानते हैं कि अभी हिंदी आलोचना की दुरवस्था को लेकर कभी-कभी अकारण ही नहीं परंतु चर्चा तो हो ही जाती है। दुर्भाग्य से साहित्य अथवा कला में जीवन राष्ट्रों का संघर्ष उसी भाँति चलता रहता है। जिस भाँति घड़ी की दोनों सुइयों का संघर्ष वह बार-बार कहते हैं कि साहित्य भाषा में होता है जैसे मछली पानी में होती है ठीक उसी प्रकार से साहित्य भी भाषा में ही होता है। लेकिन भाषा में बहुत कुछ होता है। वह साहित्य भाषा के विशेष बर्ताव में स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि "शब्दों के बीच की खाली जगहों का जो इस्तेमाल होता है। वह अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग ग्रहण करता है। पाठकों तक इसे पहुँचाने का कार्य आलोचक द्वारा किया जा सकता है। जिस भाषा में यह गुण यानी अधिक से अधिक अर्थ जमा करते हैं। वह भाषा उतना ही अधिक साहित्य विकसित कर सकती है।17 वह मानते हैं कि साहित्य में हमेशा वह तत्व होता है। जो भविष्य का है यानी जो नहीं है, वह है। इस बात का उजागर एक आलोचक द्वारा ही संभव हो पाता है। रचनाकार तो केवल अपनी कल्पनाओं को यथार्थ रूप से संजोकर उसी मूर्त रूप प्रदान करता है वह अपने समकालीनता को संजोए हुए होता है। जब कि आलोचक अपने समकालीनता को।

नन्द किशोर आचार्य ने अपनी साहित्य के स्वभाव नामक पुस्तक में एक जगह लिखा था। इसलिए किसी भी कृति अधिकार के मूल्यांकन की प्राथमिक कसौटी उनकी ज्ञानमीमांसा ही हो सकती है ज्ञान मीमांसा की मौलिकता ही किसी लेखक की मौलिकता की असली कसौटी है। क्योंकि उसके बिना तत्वमीमांसा अथवा मूल्य में मानसिकता संभव ही नहीं होती।18 अरुण कमल में ज्ञानमीमांसा की बेजोड़ परंपरा दिखाई देती है। उनके आलोचना कृति की धार कला में हमेशा संयोग की बात को उजागर करते दिखाई पड़ते हैं। वह मानते हैं कि कला में संयोग ही महत्वपूर्ण भूमिका है। यह वास्तव में और चेतन अथवा अवचेतन की भूमिका है। एक सीमा तक तो रचनाकार यह जानता है कि उसको यह कहना है लेकिन उसके बाद लगता है कि उसे हट करने से निकल जाता है।

अरुण कमल ने अपनी पुस्तक गोलमेज के एक आलोचक के लेख में कविता के नए प्रतिमान विषय में लिखा था कि कविता की भाषा का आधार बोलचाल की भाषा होना चाहिए। वह केवल भाषागत स्वाभाविकता अथवा स्थल प्रकृतिवाद प्रवृत्ति का ही सूचक नहीं बल्कि उसके साथ कवि का एक गंभीर नैतिक साहस जुड़ा हुआ है। जिसके अनुसार अपने आसपास की दुनिया में हिस्सा लेते हुए एक कविता को इस दुनिया के अंदर एक दूसरी दुनिया की रचना करना आवश्यक हो जाता है।19 वह कभी-कभी अनुवाद पर बोलते हुए कहते हैं "अनुवाद का एक मुख्य काम हमेशा ही अपनी भाषा के लिए समृद्धि लाना रहता है। तथा उस अपूर्णता को दूर करना जो प्रत्येक भाषा में किसी न किसी पक्ष की होती है। जब हमें लगता है कि हमारी भाषा में कोई तत्व विशेष नहीं है या कम है भावों का भंडार महसूस करने की क्षमता अभिव्यक्ति के साधन तथा भाषा के भी उपक्रम जिसके बिना हम सब क्षमता के साथ ना तो जीवन को समझ सकते हैं।20

विचार विधा में भावों को न समझ सकते हैं तो हमें अनुवाद का सहारा लेना चाहिए समकालीनता के प्रश्नों पर विचार करते हुए अरुण कमल बार-बार यह बताते हैं कि किसी भी कृति की रचना एक चुने हुए काल क्षण में ही संभव है। सिद्ध करता है कि प्रत्येक रचना अपने काल से बंद होती है और आलोचना अपने-अपने काल से यह जो जीवन है संदर्भ अंगूर और गंदगी से भरा वही कविता का अपना घर है और इनकी चर को साफ करना उस में बसे कमल को बाहर निकालना आलोचना का फर्ज। वह हिंदी साहित्य और साहित्यकारों की स्थिति बयां करते हुए कहते हैं किसी भी भाषा के साहित्य और साहित्यकार का स्थान वास्तव में उस भाषा के व्यवहार करने वालों पर निर्भर करता है यह व्यवहार बदलता रहता है पर कई बार इनके कारण अलग होते हैं। हिंदी समाज में साहित्य और साहित्यकारों का स्थान आलोचना में अभी बाक़ी है ठीक जैसे भारत में आलोचना का अपना सैद्धांतिक वर्ग भारतीय राजनीति पर विचार करते हुए कई बार अरुण कमल आज और आज से पहले की बातों को आत्म सम्मान करते दिखाई देते हैं। वह नैतिकता को इसलिए बनाए रखते हैं क्योंकि भारत जैसे देश में अपने आलोचनात्मक पक्ष को स्पष्ट करना बहुत कठिन है। जहाँ एक और नामवर तो दूसरी ओर अशोक वाजपेई जैसे कई आलोचक निपुण हैं मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो नंदकिशोर आचार्य के संपादन में आगे के लेखक के दायित्व के बारे में कह गई थीं कि आलोचना कई प्रकार की होती है क्योंकि वह कई उद्देश्य से की जा सकती है सब आलोचना मूल्यवान नहीं होती उसका उद्देश्य प्रभाव उत्पन्न करना या व्याख्या करना भी हो सकता है। लेकिन अंततोगत्वा समालोचक को कहीं न कहीं मूल्यों का विचार भी करना पड़ता है कृतिका मूल्यांकन व न भी करे तो भी स्वयं उसकी रसास्वादन की प्रक्रिया में उसके स्वीकृत मूल्य प्रतिमानों का महत्व होता है। समालोचक क्या पता है यह अनिवार्य है इस पर निर्भर करता है कि वह क्या लेकर चलता है।21 इस आधार पर अरुण कमल जी कवि के साथ-साथ आलोचना के पायदान पर जीवन बंद को मारते हुए इस तरह से चल रहे हैं। जहाँ उनकी आत्म संस्कृति से मानवीय संवेदना का विस्तार संभव हो सकता है वहीं उनकी आलोचना संपूर्ण समष्टि में अविभाज्य है। जिस तरह वह मानवीय संवेदना के उदाहरणों में सामाजिक, सार्वभौमिक हो जाते हैं। उसी तरह वह निजी और सामाजिक के बीच की बुनियाद को साधारणीकरण कर संवेदना से जोड़े रखते हैं वह आधुनिकता पर बारीक़ी से विचार करते नज़र आते हैं। कविता और समय के बाद गोलमेज उनकी आलोचना की कृतियाँ साहित्य विचारों की विविधता को ख़ुद प्रमाण प्रमाणित प्रदान करती है। उसकी प्रामाणिकता का आधार विचारों की धारा नहीं बल्कि आलोचना की कड़ियाँ हैं। वह मानते हैं कि साहित्य की भाषा मनुष्य की चेतना का संपादन तो करती है परंतु साथ ही हमारे समय के एक बिंब की घटना भी है, जो हमें जोड़े रखती है। क्योंकि कविताओं को पढ़ने से आलोचना के मायने का अनुभव सहज ही उत्पन्न हो जाता है वह मानते हैं कि आज की आलोचना और साहित्य समकालीनता का भार इतना अधिक है कि कई बार लगता है जैसे हमारी भाषा का और हमारी जाति का साहित्य इतिहास का इतिहास है। वह समकालीन कविता के विकास के लिए बड़ी-बड़ी और नई नई चुनौतियों को झेलना पसंद करते हैं।

पीयूष कुमार पाचक
हिंदी विभाग
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर

संदर्भ:

1. रमेश दावे : आलोचन-समय और साहित्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 49
2. मधुरेश : हिंदी आलोचना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ 22
3. अरुण कमल : कविता और समय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 165
4. अरुण कमल : गोलमेज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ 125
5. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : अशोक के फूल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली , 2002 पृष्ठ 08
6. रामेश्वरलाल खंडेलवाल एंड गुप्त (स.) : हिंदी आलोचना के आधार स्तम्भ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2004 पृष्ठ 18
7. साहित्य अकादमी अध्यक्ष, विश्वनाथ त्रिपाठी से पीयूष पाचक की वार्ता
8. अरुण कमल : कविता और समय, वाणीं प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 67
9. अरुण कमल : कविता और समय, वाणीं प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 167
10. अरुण कमल : गोलमेज , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ 88
11. अरुण कमल : गोलमेज , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ 24
12. आचार्य रामचंद्र शुक्ल : चिंतामणि भाग 1, अशोक प्रकाशन नई दिल्ली 2004, पृष्ठ ७०
13. अशोक वाजपई : कविता का गल्प, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1996, पृष्ठ 32
14. अरुण कमल : गोलमेज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ, ३५
15. अरुण कमल : कविता और समय, वाणीं प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 185
16. अरुण कमल : गोलमेज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ१५०
17. अरुण कमल : कविता और समय, वाणीं प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 196
18. नन्द किशोर आचार्य : साहित्य का स्वभाव, वाग्देवी प्रकाशन , बीकानेर पृष्ठ 15
19. अरुण कमल : गोलमेज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ 118
20. अरुण कमल : गोलमेज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ 126
21. नन्द किशोर आचार्य (स.) : लेखक का दायित्व : अज्ञेय, वाग्देवी प्रकाशन,
बीकानेर पृष्ठ 11

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