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आशा की किरण

मिश्रा जी पहले-पहल दादा जी बने थे। एक  हाथ में अख़बार ले कर खिड़की से बिस्तर पर आती सुबह की पहली किरण को देख रहे थे। ताज़ी हवा भी धीरे से प्रवेश पा रही थी। ऐसे में मिश्रा जी का मन उमंग और स्फूर्ति से भर जाना चाहिए था। किंतु अख़बार पढ़ते हुए ये हो न सका। पूरा पन्ना कोरोना से पीड़ित लोगों के दुखदर्द से भरा था। क्या देश, क्या विदेश! सब ओर तबाही। दो-चार ख़बरें पढ़ कर उन्होंने एक लम्बी साँस ली। फिर अख़बार एक ओर रख दिया। अनमने से हो कर छत की ओर देखने लगे जैसे वहाँ कुछ लिखा हो। तभी मिश्राइन नवजात पोते को ले कर सामने आ बैठीं। मिश्रा जी का ध्यान बरबस ही सारी चिंताएँ छोड़ बच्चे की ओर आकृष्ट हो गया। तभी मिश्राइन ने बच्चा मिश्रा जी को थमाया और वहाँ से निकल गईं। नन्हा शिशु उन्हें आँखों में आँखें डाल कर देख रहा था। उसकी निर्दोष, निर्विकार आँखों में भय का कहीं कोई नमोनिशान नहीं था। वे मन ही मन में बोले– "बड़े विकट समय में आए हो साहब! कोरोना के बाद दुनिया न जाने क्या रंग रूप ले। अभी तो इसकी काली चादर का ओर-छोर भी नहीं दिख रहा।"

तभी उन्हें सुनाई दिया। उस नवजात शिशु ने कुछ कहा– हाँ, शिशु बोल नहीं सकता किंतु उसकी आँखें बोल सकती हैं। वे बोल रहीं थीं– "ये काली चादर बहुत लम्बी नहीं। हम जल्द ही इसे उतार फेंकेंगे। फिर भोर की कच्ची धूप और नरम हवा के साथ अख़बार ख़ुश ख़बर ले कर आएँगे। मम्मी सेल के इश्तहार देखेगी। पापा बहाने बनाएँगे। सब मिल कर घूमने जाएँगे। स्कूलों में घंटी बजेगी और बाज़ारों में रौनक़ छाएगी। वो सुबह जल्दी ही आएगी।"

मिश्रा जी बच्चे के शब्दों को आवाज़ दे रहे थे फिर उन्होंने उस नवजात  शिशु की आँखों को होंठों से छुआ। 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/05/06 12:06 PM

बहुत खूब सकारात्मक उम्मीद

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