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अस्तित्व

बचपन से ही माँ ने उसे बेटा बनाकर पाला था। "यह मेरा राजा बेटा है, दुलारा है प्यारा है" कहकर लाड़ लड़ाती रही। माँ के लिये वह बेटी नहीं बेटा थी। वह दुनिया से यही कहती "लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं; मेरे लिये यही लड़का है।" वह बड़ी हुई और लड़कों वाले कपड़े पहनकर ही रहती थी। स्कूल में ड्रैस में स्कर्ट ब्लाउज़ पहनना ज़रूरी था। क्योंकि स्कूल के नियमों के अनुसार वह लड़की थी। घर आते ही वह अपनी नेकर-शर्ट पहनती, जैसे-जैसे कपड़ों के डिज़ाइन बदले वह शर्ट्स और टॉप पहनती, बिन्दास लड़कों के साथ खेलती। लड़की वाली कोई बात उसमें नहीं थी सिवाय शारीरिक गठन के। उसके बराबर की लड़कियाँ बार्बी डॉल ख़रीदतीं तो वह क्रिकेट का बैट लेकर आती।

उसकी माँ गर्व से उसका परिचय कराती यह मेरा बेटा है। माँ ने नाम भी दिया कुशल। कुशल यूनीसेक्स नाम। लड़कों को भी कुशल कहा जा सकता है और लड़कियों को भी। पहले बहुत नाम सोचे संचिता, ऐश्वर्या सत्या, स्वर्णा और न जाने कितने आ की मात्रा लगे नाम जिससे उनको अँग्रेज़ी में लिखा जाये तो यूनीसैक्स ही लगें, नहीं तो उसकी मात्रा हटा देगी। पर कुशल नाम के लिये यह क़वायद नहीं करनी पड़ी और वह उनका बेटा बन गयी।

स्कूल व कॉलेज में मुश्किल थी। लड़के कुछ दूरी बनाकर चलते तो लड़कियाँ भी कटतीं क्योंकि वह अपने आपको सुपर मान कर चलती। अपने आप ही उसका सिर गर्व से तना रहता कि उसका लालन-पालन लड़कों की तरह हुआ है। वह अपने माँ-बाप का बेटा है तो सिर ऊँचा ही रहना है जबकि लड़कियाँ बहुत खुले दिमाग़ वाली होते हुए भी दबी-सी रहतीं। यह दबा-सा रहना उसके ख़ुद के हिसाब से था। जब कि लड़कियाँ अपने आपको स्मार्ट समझती थीं पर कुछ उनमें लड़कीपन भी था। क्योंकि वे खुलकर लड़कों के साथ हाथ मार कर बात नहीं करती थीं, वे अकेले उनके ग्रुप में नहीं जाती थीं। पार्टी आदि में जाने में हिचकतीं। ग्रुप की सब लड़कियाँ जातीं- तब जातीं। पर वो उन्हें हिकारत की दृष्टि डालकर कहती, "क्या खा जायेंगे हाथ लगाकर तो देखें।" वास्तव में लड़के उससे घबराते थे।

लड़कियाँ रात आठ बजे के बाद वाले कोचिंग सैन्टर पर जाने से हिचकतीं, पर जातीं तो उन्हें लेने छोड़ने का काम माँ बाप करते; लेकिन कुशल धड़धड़ाती स्कूटर पर जाती। लड़कियाँ हैरानी से पूछतीं, “कुशल तुम से स्कूटर खिंच जाता है”। स्कूटी तो अधिकतर चलाती थीं पर “स्कूटर बहुत भारी है।” तो कुशल उनकी कलाई कस कर पकड़ लेती, ऊ ऊ की आवाज़ से, “हाय कुशल तू तो वास्तव में!” हैरानी से कहतीं, “हाय राम कहीं तू…?”

“चल चल आ मेरे साथ चल!” कोचिंग किसी न किसी की ढाल बनी कुशल जाती। ढके-ढके अन्दाज़ में सब उसे मर्दमार कहते।

माँ का सीना चौड़ा होता, “मैंने पता है... बिल्कुल लड़कों की तरह पाला है।” सच कुशल ने कभी फ़्रिल वाली फ़्रॉक नहीं पहनी, कभी गुलाबी रंग की जाली की मैक्सी पहनकर सिर पर फूल लगा परी नहीं बनी। माँ की सब फ़्रैंड्स लड़कियों की ढेर सी शॉपिंग करतीं। तरह-तरह के पिन, हाथ के बैंड, सिर के बैंड और बहुत सी चीज़ें... साथ ही कहती जातीं लड़कों के लिये कुछ होता ही नहीं ख़रीदने को, वही शर्ट, पैंट, जीन्स नेकर ले लो और क्या लें- गेंद बैट बल्ला? लड़कों को इंडोर गेम्स भी तो नहीं चाहियें। कितनी कितनी किट्स मिलती हैं क्विलिंग पेन्टिंग की, स्यूइंग किट पर लड़कों के लिये शॉपिंग बहुत मुश्किल है। और वास्तव में कुशल की माँ ने भी कपड़़ों का ढेर तो लगाया कुशल के लिये... जीन्स एक साथ बारह, टी-शर्ट एक साथ चौबीस, जूतों से अलमारी भरी हुई थी। ब्रान्डेड जूते, चश्मे एक से एक क़ीमती थे पर कभी उसने नगीने वाली जूतियाँ नहीं पहनीं जिन्हें पहनकर लड़कियाँ जन्मदिन को परी बनतीं या सिंड्रेला। नाक-नक्शा अच्छा था, कुशल की आँखें बड़ी-बड़ी थीं, रंग उजला था। शरीर कसा था, इकहरा था अगर लड़कियों की तरह रहती तो अच्छी सुंदर लड़की कहलाती। बाल काले चमकदार थे पर उन्हें कभी लंबाई नहीं मिली। और इस सब पर माँ को गर्व था और स्वंय कुशल को गर्व या घमंड तो नहीं पर अपने पर मान था कि वह सबसे अलग है।

लड़की सयानी होती है तो माँ को फ़िक्र होती है पर यहाँ पिता कहते, “कुशल की शादी के विषय में कुछ सोचा?” तो माँ चौंक उठती, “क्या शादी? कुशल की शादी? मतलब कुशल चली जायेगी?” इस सोच से ही सिहर उठी नहीं यह नहीं हो सकता।

“सुनो यह नहीं हो सकता कि कोई घर जवाई मिल जाये?” माँ को यही हल नज़र आया।

“नहीं! घर जवाई कुशल को पसंद आयेगा? जो घर जवाई बनेगा उसमें अपना स्वाभिमान नहीं होगा क्या? हाँ यह हो सकता है जिसके माँ-बाप न हों, ऐसा लड़का मिल जाये।”

"अनाथ नहीं।” माँ की आँखों के सामने अनाथालय के लड़के घूम गये। वह कई समाज सेवी संस्थाओं की सदस्य थी और अधिकतर शिशु सदन, वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम में कभी कपड़े बाँटने, कभी खाना बाँटने जाती थी। ऐसी लड़की, उनकी इकलौती संतान जिसे उन्होंने ज़माने से अलग ढंग से पाला है, वह तो ख़ुद बेटा है उसके लिये। वे सिहर उठीं। “नहीं अच्छे घर का पढ़ा-लिखा लड़का हो, वैसे भी तो सर्विस वाले लड़के अब कौन माँ-बाप के पास रहते हैं। वे एब्रॉड चले जाते हैं या मैट्रो सिटीज़ में; तब वो माँ बाप के साथ तो नहीं रहते।” माँ के अपने तर्क थे।

“जब अपने माँ-बाप के साथ नहीं रहेगा तो तुम्हारे साथ क्यों रहेगा? तब कुशल भी तो जोयगी। हम जाकर रह तो सकते हैं, पर कुशल को तो जाना ही पड़ेगा न।” 

“कुशल अब अपने आप निर्णय लेगी,” माँ का दिमाग़ चकरा गया। अब क्या करें पर कुशल से दूरी, उनसे अब यह कैसे हो सकता है ‘कुशल तो उनका जीवन है, साँस है, ज़िंदगी है’ उसके बिना तो वो सोच ही नहीं सकती थी। पर हाँ दिन महिना बीतते अब छब्बीस की हो गई। सत्ताइसवाँ चल गया, जब-तब कुशल से चर्चा कर बैठतीं।

“कुशल अब शादी की भी तो सोच। शादी! हाँ, शादी तो करनी ही चाहिये। कुशल तेरे तो इतने क्लाइंट्स है, बड़े बड़े ऑफ़िसर और बिज़नेसमैन क्लाइंट्स हैं, कोई अच्छा सा जोड़ा नहीं बैठ रहा?" सी.ए. बनने के बाद शहर के प्रतिष्ठित सी.ए. की असिस्टेंट बन गई थी कुशल। घटा-जोड़, हिसाब-किताब के जैसे रूखे-सूखे विषय में रसनिष्पादन का कहीं कोई स्त्रोत भी नहीं था। सास-बहू वाले सीरियल के तो नाम ही नहीं मालूम थे।

“हूँ... सोचा जाये।” कुशल बेबाक कहती, “माँ एक बात है शादी और फिर बच्चे... न बाबा न... यह मेरे बस की नहीं है। हाँ, ऐसा कोई मिले जो बच्चा गोद देने को तैयार हो! माँ मकान तो बेवकूफ़ बनाते हैं, रहना है आराम से किराये का लेकर रहो। कौन पचड़े में पड़े?”

“तो क्या हम बेवकूफ़ हैं और क्या पापा बेवकूफ़ हैं जो इत्ती बड़ी कोठी बनाई है?”

“शिट! मम्मी मेरा तो बच्चे से मतलब था। माँ मैं वह फूले पेट की कल्पना से ही सिहर उठी, पॉटी, सूसू के रें रें! नहीं माँ, मैं तो तेरे लिये बहू लाऊँगी; ऐसे लड़के को देखेंगे जो सब कर ले।”

“बच्चे तो पैदा नहीं कर पायेगा?" माँ हँसी, “अब यह तो बिल्कुल ही अलग हो जायेगा।"

“ऐसा हो जाये तो मज़ा आ जाये," ज़ोर से हँस पड़ी कुशल। मन नही मन कुशल सोचने लगी कैसे करेगी; घर-गृहस्थी दूर-दूर तक मतलब नहीं। घर, घर किस चिड़िया का नाम है? घर कोठी होती है और उसमें एक माँ एक पिता होता है। माँ देखभाल कर लेती है, पिता बहस कि देश में क्या हो रहा है।

टूट तो माँ का दिल बहुत रहा था पर ज़रूरी है कुशल शादी कर ले जिससे मन मिल जाये वही ठीक। वह ख़ुद ही ढूँढ़े अपने टाइप का। बार-बार कहने से अब कुशल अपने हर मिलने जुलने वाले में एक पति ढूँढ़ने लगी। सोचा एड दिया जाये या क्लाइंट्स से ज़िक्र किया जाय पर इसमें उसे अपनी हेठी लगी और इतना किसी से खुल ही नहीं सकी कि वह कुछ कह सके। कुशल तीस पार गई। कुलीग सब शादी-शुदा मज़े में एक-एक, दो-दो बच्चों के बाप बन गये, और फिर सबको कुशल की प्रकृति पता थी कोई साहस ही नहीं कर सकता था।

पति के रूप में उसे चाहिये था कोई उसके अस्तित्व को उसी के ढंग से स्वीकारे। उससे एक कप चाय की भी आशा न करे वरन् वह तो चाहती थी कि ऐसा हो जो उसे चाय पिलाये।

“नहीं वह भी नहीं चलेगा। ऐसे व्यक्ति में स्वाभिमान नहीं होगा।” उम्र बढ़ती गई कुशल को अपना टाइप नहीं मिला।

माँ बीमार पड़ी तब कर्मचारी उससे पूछते हर काम के लिये, तब वह चौकन्नी हुई। तब उसे पता चला कि रसोई के लिये इंतज़ाम, कपड़ों के लिये इंतज़ाम, सफ़ाई के लिये देखभाल भी करनी होती है। माँ-बाप किसके रहे हैं? सबको जाना है और एक उम्र के बाद जाना ही ठीक होता है और उसके माँ-बाप आसानी से चले गये। एक-एक, दो-दो दिन की बीमारी में चले गये। शायद जानते थे कि बेटी को दुनियादारी सिखाई नहीं है न इन पचड़ों में डाला। लड़के फिर भी सीख जाते हैं क्योंकि बीबी-बच्चों के साथ सब आ जाता है पर कुशल छड़ी... छड़ी को क्या पता? गृहस्थी नौकरों पर चलने लगी जो भी चलती जैसे भी चलती। गृहस्थी के नाम पर था क्या…?

कुशल को केस ऑडिट करने के बाद डिप्टी कमिश्नर से मिलना था उसके पास उसके क्लाइंट के केस थे। पता लगा कोई महिला है, जब कुशल केस की फ़ाइल लेकर पहुँची तो सामने सीट पर देखकर चौंक गई, “अनुषा तुम, अच्छा वाह! पता ही नही चला कब कम्पटीशन में बैठी?” केस-वेस तो उस दिन कुछ हुआ नहीं, काफ़ी देर तक दोनों बात करती रहीं। उसी दौरान अनुषा की बेटी स्कूल से आई। घर न जाकर वह ऑफ़िस आ गई थी, “मम्मी आपने प्रॉमिस किया था मुझे आई पैड दिलवाने का। आज चलो अब कोई बहाना नहीं चलेगा।”

“अरे! आंटी को नमस्ते तो करो।” 

नमस्ते कर वह अनुषा को उठाने में लग गई। “मम्मी, मम्मी चलो!”

अनुषा ने हँसते हुए घंटी दबा दी। अर्दली आकर खड़ा हुआ तो, “ड्राइवर से कहो गाड़ी निकाले और सामान ले लो।"

कुशल को विश्वास नहीं हो रहा था यही छुई-मुई सी अनुषा है, जिसे उसने कितनी बार कवर किया था। पतली-दुबली प्यारी सी।

"कुशल आज घर आ जाओ, गाड़ी भेज दूँगी। डिनर मेरे साथ करना,” कहकर बेटी के पीछे खिंचती-सी अनुषा चली गई।

“नहीं मैं आ जाऊँगी, वहीं जजेस कॉलोनी में ही तो होगा बँगला।"

हाँ वहीं है सब गवर्नमेंट ऑफ़िसर्स के रेज़िडेन्स। कुशल का तो काम था इन सबसे मिलने-जुलने का। वैसे भी शहर में कुशल प्रतिष्ठित लोगों में मानी जाती थी इसलिये सब जगह जानती थी।

ऑफ़िस और घर में अनुषा बिल्कुल अलग थी। कुक बग़ैरह सभी सुविधाएँ थीं, अफ़सराना अंदाज़ था लेकिन पूरी गृहस्थिन लग रही थी।

"अरे आज दही-बड़े मैंने बनाये हैं। कुशल मुझे मालूम है तुझे बहुत अच्छे लगते हैं, याद आई तब सैन्ट्रल बैंक के दही-बड़े खाने जाया करते थे।"

एक बेटा एक बेटी और एसेसिंग ऑफ़िसर पति। हँसते-खिलखिलाते परिवार की बड़ी सी तस्वीर लगा रखी थी। कुशल सहज नहीं हो पा रही थी। खाने के समय सब साथ-साथ खा रहे थे तो अनुषा बीच-बीच में देख लेती। “सिमरन खाना छोड़ो नहीं, शिवम् इतना पानी पी रहे हैं मिर्च तो है नहीं, अश्विन कुछ लो न, खाया नहीं आज, क्या ऑफ़िस में कुछ खाया?”

“नहीं पर इतना तो खा लिया। कुशल जी आपकी वज़ह से बहुत सारा खाने को मिला है," अश्विन हँस पड़े। 

“छोड़ो रोज़ तो कुछ न कुछ बनाती हूँ... आज तो कुछ नहीं बनाया... ग़लत बात।" रूठती सी अनुषा ने मान किया।

“अच्छा बच्चो तुम सोओ सुबह स्कूल जाना है।” फिर आया से बोली, “इनकी ड्रैस तेयार है न?”

“जी मैडम सब तैयार है। मैं अब जाऊँ?”

“जाओ," बचे हुए खाने को समेटती अनुषा नौकर को खाने का आदेश देती फिर उसके पास आ बैठी।

“चलूँ मैं भी।" कुशल भी उठ खड़ी हुई, “बहुत अच्छा लगा।"

कुशल बहुत पार्टियों में जाती है डिनर पर भी जाती है। कभी क्लाइंट के घर, कभी पुराने दो तीन दोस्तों के घर जहाँ उनकी पत्नियाँ उसे अजूबे की तरह देखतीं और बात करने से बचतीं। एक फ़ॉर्मेलिटी सी लगती। पर अनुषा के यहाँ उसे बहुत अलग लगा एक परिवार का सा माहौल, अपनापन! उस दिन अपना अकेलापन बहुत खल गया।

कपड़े बदल कर वह एक बार दरवाज़े चैक करने ड्राइंगरूम से होकर लॉबी में गई। उसकी निगाह मम्मी-पापा की तस्वीर पर पड़ी... वह ठिठक गई। सामने कुर्सी पर बैठ गई। माँ को देखती रही फिर बुदबुदाई, “माँ भी आत्म-सम्मान से जीती है। माँ, मेरा मन अब फिर बच्चा बनने को चाह रहा है। बहुत सी घेर वाली, फ़्रिल वाली जाली की गुलीबी फ़्रॉक पहनने को दिल चाह रहा है।" उसने आँख पर कुहनी रख सिर कुर्सी से टिका लिया।

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टिप्पणियाँ

veena vij 2019/08/17 04:41 PM

आज के समय की आम समस्या को लेकर लिखी गई कहानी...सरल व सरस !

कृपया टिप्पणी दें

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