अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

औलाद के लिए माँ की चाहत

भगवान विष्णु और लक्ष्मी के बीच ’माँ अपनी सन्तान के लिए क्या चाहती है?’  विषय पर बहुत वाद-विवाद होता रहा। और अन्त में विष्णु को लक्ष्मी ने कहा– "प्रभु जाइए मर्त्यलोक में। ‌माँ सन्तान के लिए क्या चाहती है, वहीं से आप को अवगत हो जाएगा । जाइए, झुमावती देवी के घर में जाकर इस बात का उदाहरण देखिए। वह अभी बहुत बीमार ‌और मृत्युशय्या पर है।"  

इतने में भगवान विष्णु भेष बदलकर झुमावती देवी के घर में पहुँचे और देखा कि वह बिस्तर पर लेटी हुई थी।  उनसे भगवान विष्णु पूछने लगे– "माताजी अब आप कैसी हैं?"

"और तो सब कुछ ठीक है, फिर क्या बताऊँ? अब मेरा अन्त भी आ गया . . . पर मेरे जाने के बाद बेटे का क्या होगा यही चिन्ता सता रही है।"

"अगर आप से भगवान इस वक़्त आके पूछे कि 'माता जी आप क्या चाहती हैं?' तो आप क्या माँगतीं?"

झुमावती देवी बहुत मुश्किल से बोली, “मैं तो भगवान से माँगती . . .”

"क्या माँगती?"

"भगवान मुझे और दो महीने मोहलत और दे दो।”

"दो महीने ही क्यों? दो वर्ष भी माँगतीं।"

"दो महीने के बाद ठण्डी कम हो जाएगी न,  इसलिए।"

"मरने और ठंड का क्या मतलब है? मरना तो आख़िर मरना है चाहे ठण्ड हो या गर्मी हो।"

"सो तो है। इस बहुत कड़ाके की ठण्ड में मैं मर गई तो बेटे का क्या होगा? कैसे मेरा क्रिया-कर्म करेगा! वह रोज़-रोज़ कैसे नहाएगा ठण्डे पानी से? क्रिया-कर्म में बैठे हुए पुत्रों को गरम कपड़े भी तो नहीं पहनने देते पण्डित लोग। इसलिए भगवान से मैं, जब गरम मास शुरू हो तभी मरूँ, यही मन्नत माँगती हूँ।"

भगवान को पर्याप्त उदाहरण  मिल गया था कि माता अपने सन्तति के लिए क्या चाहती है; और वह अन्तर्धान हो कर वैकुण्ठ की ओर चल दिए।

इधर झुमावती देवी का पुत्र उनकी सेवा में जुट गया ।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 छोटा नहीं है कोई
|

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर…

अंतिम याचना
|

  शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर…

अंधा प्रेम
|

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत…

अपात्र दान 
|

  “मैंने कितनी बार मना किया है…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं